मनुष्य और समाज का नदी, तालाब तथा बाढ़ से अटूट संबंध रहा है। इसलिए उनके लिए बाढ़ कभी आपदा नहीं हो सकती है। बाढ़ का प्रत्येक रूप आपदा नहीं होता है। आपदा वह है, जिसके आने की तिथि और समय पक्की नहीं होती है, जैसे- सुनामी, भूकंप इत्यादि।
समूचे विश्व का 40 प्रतिशत बाढ़ प्रभावित हिस्सा एशिया में पड़ता है। बाढ़ प्रभावित देशों में बांग्लादेश के बाद भारत का स्थान है। राष्ट्रीय बाढ़ आयोग (1980) के अनुसार, देश की लगभग 4 करोड़ हेक्येटर भूमि और आबादी का 1/8वां हिस्सा बाढ़ प्रभावित है। बिहार का लगभग 16.5 प्रतिशत क्षेत्र और 40 प्रतिशत आबादी बाढ़ प्रभावित है। इस वर्ष उत्तर पूर्वी राज्यों, हिमाचल, दिल्ली, पंजाब में आई अप्रत्याशित बाढ़ की व्याख्या व विश्लेषण विशेषज्ञ अपने हिसाब से कर रहे हैं। ऐसे में यह लेख बाढ़ की परंपरागत प्रवृत्ति को जलवायु परिवर्तन के समकालीन और अति विवादित आयाम से देखने की चेष्टा करता है।
ज्ञान-परंपरा और बाढ़ के साथ सहजीवन
मनुष्य और समाज का नदी, तालाब तथा बाढ़ से अटूट संबंध रहा है। इसलिए उनके लिए बाढ़ कभी आपदा नहीं हो सकती है।
बाढ़ का प्रत्येक रूप आपदा नहीं होता है। आपदा वह है, जिसके आने की तिथि और समय पक्की नहीं होती है, जैसे- सुनामी, भूकंप इत्यादि। लेकिन हर वर्ष बाढ़ आने की एक पक्की तिथि होती है। फिर बाढ़ को आपदा कहा जा सकता है? बाढ़ विशेषज्ञ दिनेश मिश्रा विभिन्न शब्दावली का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि बाढ़ के सभी रूप भयावह नहीं होते हैं। ‘हुम्मा’, ‘शाह’ और ‘प्रलय’ वीभत्सकारी रूप हैं, जबकि बाढ़ व बोह सामान्यतया लाभकारी होता है। बांग्लादेश के एक शोध में बाढ़ के दो रूपों-वर्षा और बोन्ना का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। वर्षा बाढ़ की सामान्य प्रवृत्ति की ओर संकेत करती है, जो धान की फसल के लिए उपयोगी होती है। वहीं, बोन्ना अप्रत्याशित स्थिति है, जिससे जान-माल का नुकसान होता है।
बाढ़ का आजीविका से अभिन्न संबंध है। बाढ़ अपने साथ मछली की कई किस्में लाती है और बाढ़ का पानी धान की खेती के लिए बहुत उपयोगी होता है। फ्रांसिस बुकानन ने पूर्णिया (बिहार) गजेटियर में लिखा है, ‘‘यहां की नदियों में 124 किस्म की मछलियां हैं। बाढ़ के पानी के साथ मछलियां प्लावित करती हैं और स्थानीय लोग बहुत चाव से मछली-भात खाते हैं।’’
बाढ़ का संस्कृति और उत्सव से भी संबंध रहा है। बिहार के बाढ़ प्रभावित इलाकों में जब बांध और तटबंध नहीं थे, तब वहां के लोकजीवन में जनेर खेलना और जनेर गीत गाने का खासा महत्व था। जनेर लोगों के बीच लोक-साहचर्य, सामाजिक पूंजी और सामुदायिक सहभागिता के अद्भुत रूपक के तौर पर स्थापित था। कोसी, कमला-बलान, बागमती और महानंदा नदी क्षेत्र में जनेर को स्थानीय बोली में झिंझिर, झझेर, कस्तीखोरी या कस्तीबाजी भी कहा जाता था।
यूएन आईपीसीसी की रिपोर्ट है कि अगले दो दशक में भारत जलवायु परिवर्तन संबंधी कई आपदाओं का सामना करेगा। यदि 2030 तक ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में कटौती नहीं की गई, तो इन आपदाओं को टालना असंभव होगा।
पहले सावन-भादो की चांदनी रात में बुजुर्ग, युवा, महिलाएं और बच्चों की टोली नाव से जनेर खेलने निकलती थी। उनके साथ झाल-करताल, ढोल और दूसरे वाद्ययंत्र भी होते थे। फणीश्वरनाथ रेणु ने भी अपने रिपोर्ताज ‘ऋणजल, धनजल’ में जनेर प्रथा का उल्लेख किया है। वे लिखते हैं, ‘‘गांव के लोग, जिनके पास नाव की सुविधा नहीं होती, वह भी सामान्य तौर पर केले के पौधों का भेला बनाकर जनेर का आनंद लेते थे। वहीं, जमींदार लोगों के पास नाव होती थी और वे हारमोनियम-तबला के साथ झिझिर या जल विहार करने निकलते थे।’’(रेणु-1977)
परंपरागत रूप से कृषि 27 नक्षत्रों पर आधारित है। इसमें आर्द्रा, रोहिणी और हस्त का बहुत अधिक महत्व था। आर्द्रा की शुरुआत और हस्त के अंत में बारिश नहीं होने पर किसानों को खासा नुकसान होता था। किसान रोहिणी नक्षत्र (मई) में भदई धान और आर्द्रा नक्षत्र (जुलाई) में अगहनी धान की बुआई करते हैं। लेकिन किसान खुशहाल तभी होता था, जब हस्त में वर्षा से होती थी। लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण किसान बेहाल है। इससे उसकी कृषि अर्थव्यवस्था काफी प्रभावित हुई है। कृषि विशेषज्ञ गजानन मिश्रा कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन के कारण हथिया (हस्त नक्षत्र) के दर्शीय प्रदर्शन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। अगर इस नक्षत्र से जुड़े दशकीय आंकड़ों को देखें तो 10 में से 8 वर्ष हथिया विफल रहा है।
बाढ़ और जलवायु परिवर्तन
बाढ़ और जलवायु परिवर्तन के बीच संबंध को रेखांकित करते हुए आईपीसीसी (जलवायु परिवर्तन पर अंतरसरकारी पैनल) ने स्पष्ट किया है कि जलवायु परिवर्तन से जल जनित नवीन प्रवृत्तियां (बाढ़, सूखा और चक्रवात इत्यादि) बढ़ी हैं। संयुक्त राष्ट्र आईपीसीसी ने 2022 में जारी अपनी रिपोर्ट में चेतावनी दी है कि ‘‘अगले दो दशक में भारत जलवायु परिवर्तन संबंधी कई आपदाओं का सामना करेगा। यदि 2030 तक ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में कटौती नहीं की गई, तो इन आपदाओं को टालना असंभव होगा।’’
भारत के कई राज्यों में परंपरागत रूप से बाढ़ की प्रवृत्तियां देखने को मिलती हैं, परंतु जलवायु परिवर्तन के कारण ये प्रवृत्तियां बदली हैं। पहला, जलवायु परिवर्तन के कारण बाढ़ की तीव्रता बढ़ी है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में 1982 का रिकॉर्ड तोड़ते हुए यमुना यमुना खतरे के निशान से ऊपर बह रही है। दूसरा, जलवायु परिवर्तन के कारण बाढ़ की आवृत्ति बढ़ी है। जैसे- पहले साल भर में पूरे मानसून काल में एक बार बाढ़ आती थी, परंतु अब 5-6 बार बाढ़ आती है। तीसरा, जलवायु परिवर्तन के कारण बाढ़ प्रभावित क्षेत्र में भी वृद्धि हुई है। उत्तर बिहार में 1954 में जहां 25 लाख हेक्टर भूमि बाढ़ प्रवण थी, जो 2016 में बढ़कर 72.95 लाख हेक्टर हो गई।
जलवायु परिवर्तन को वर्षा के बदलते स्वरूप से भी समझा जा सकता है। बिहार, उत्तर प्रदेश सहित गंगा के मैदानी भागों में वर्षा के स्वरूप में काफी बदलाव आया है। मौसम विभाग के अनुसार, 1950-80 तक इन इलाकों में वर्ष में करीब 1200-1500 मिलीमीटर वर्षा होती थी, जो 1990-2020 के दौरान घटकर 800-900 मिलीमीटर हो गई। यानी वर्षा में सालाना लगभग 25 प्रतिशत की कमी आई है। लेकिन हाल के वर्षों के आंकड़े अलग तस्वीर पेश करते हैं। 1950-80 के दौरान एक दशक में एक वर्ष ही अति-वृष्टि होती थी, जबकि 1990-2020 में तीन-चार वर्ष अति-वृष्टि हुई। इसी तरह, 1950-80 के दौरान मानसून काल में तीन-चार दिन होने वाली अतिवृष्टि 1990-2020 में बढ़कर 15-20 दिन हो गई। स्पष्ट है कि वर्षा के अनिश्चित स्वरूप ने बाढ़ को और अनिश्चित बना दिया है।
इस साल आई बाढ़ और बारिश की अनिश्चितता के संदर्भ में मौसम वैज्ञानिकों का मानना है कि भारत में ‘फ्लड वल्नरबिलिटी’ जोन मध्य भारत और पश्चिम तट की तरफ खिसक रही है। परिणामस्वरूप मध्य प्रदेश, पूर्वी राजस्थान, गुजरात के साथ-साथ कोंकण, गोवा और तटीय कर्नाटक में ‘फ्लैश फ्लड’ की संभावना अति तीव्र हुई है।
‘‘अगले दो दशक में भारत जलवायु परिवर्तन संबंधी कई आपदाओं का सामना करेगा। यदि 2030 तक ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में कटौती नहीं की गई, तो इन आपदाओं को टालना असंभव होगा।’’
-संयुक्त राष्ट्र आईपीसीसी ने 2022 में जारी अपनी रिपोर्ट
क्या है समाधान?
इसके समाधान के लिए परंपरागत ज्ञान परंपरा को पुनर्जीवित करने की कोशिश के साथ परंपरागत नक्षत्र प्रणाली पर आधारित खेती अनिवार्य की जानी चाहिए। जब तक हम आर्द्रा, रोहिणी और हस्त नक्षत्र की विशेषताओं को नहीं समझेंगे, जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए देशज विकल्प नहीं खोज पाएंगे। राज्य द्वारा प्रेरित हाइड्रोलॉजिकल प्रविधि, बाढ़ नियंत्रण व प्रबंधन, आपदा प्रबंधन नीतियां इत्यादि स्थानीय ज्ञान के बिना अधूरी व एकांगी हैं। दूसरे शब्दों में, प्रस्तावित वैकल्पिक बाढ़ नीति की संकल्पना बाढ़, बांध संबंधी सिविल इंजीनियरिंग समझ-बूझ व ज्ञानमीमांसा के साथ स्थानीय समझ व चिंतन के संवाद को जरूरी बताता है।
राज्य व लोक ज्ञानमीमांसा में संवादहीनता को कोसी बाढ़ के समय रेखांकित करते हुए अनुपम मिश्रा 2008 के अपने लेख ‘तैरने वाला समाज आज डूब रहा है’ में कहते हैं, ‘‘कोसी बाढ़ के वक्त राहत कार्य के लिए खाना बांटने, खाने के पैकेट गिराने में प्रयुक्त हेलीकॉप्टरों के ईधन पर 24 करोड़ रुपये खर्च कर 2 करोड़ रुपये की रोटी-सब्जी बांटी गई थी। क्या ज्यादा अच्छा यह नहीं होता कि इस इलाके में 24 करोड़ रुपये के ईधन के बदले 20,000 नावें तैयार रखते और मछुआरों, नाविकों, मल्लाहों को इस कार्य से जोड़ते, जो नदियों की गोदी में पला-बढ़ा समाज है। इससे कम लागत में बेहतर राहत कार्यों का वितरण किया जा सकता था।’’
दिल्ली, हिमाचल, पंजाब और हरियाणा में आई अप्रत्याशित बाढ़ के संदर्भ में यह इसका ध्यान रखना होगा कि फ्लड प्लेन जोन को अवैध निर्माण आदि से प्रभावित न करें। नदी क्षेत्र में निर्माण से नदियों की परंपरागत दिशा बाधित हो रही है, जिसका रोष वे अप्रत्याशित बाढ़ के रूप में प्रकट करती हैं। बांग्लादेश की तर्ज पर हमें भी बाढ़ नियंत्रण की जगह बाढ़ प्रबंधन पर जोर देना चाहिए। इसमें बाढ़ आधारित अधिसंरचना, स्कूलिंग प्रणाली, संचार प्रणाली आदि को खास स्थान देना चाहिए। बाढ़ के अतिरिक्त जल की उपयोगिता को निश्चित करने के साथ इसमें सामुदायिक जिम्मेदारी भी तय की जाए। छोटे तकनीक या माध्यमिक तकनीक पर खास जोर देना होगा। वैकल्पिक बाढ़ नीति की संकल्पना तकनीक विरोधी नहीं, बल्कि जमीनी जरूरतों के अनुरूप बड़े तकनीक की जगह छोटे तकनीक के प्रयोग की हिमायती है। बाढ़ प्रभावित नदी बेसिन में विशेष रूप से नागरिक समाज व स्थानीय निवासी रिवर साइड से ‘कंट्री साइड’ की तरफ अतिरिक्त पानी के हस्तांतरण व जल जमाव की समस्या के रोकथाम के लिए तटबंधों पर स्लुईस गेट जैसी लघु तकनीक अपनाने की मांग कर रहे हैं।
‘‘कोसी बाढ़ के वक्त राहत कार्य के लिए खाना बांटने, खाने के पैकेट गिराने में प्रयुक्त हेलीकॉप्टरों के ईधन पर 24 करोड़ रुपये खर्च कर 2 करोड़ रुपये की रोटी-सब्जी बांटी गई थी। क्या ज्यादा अच्छा यह नहीं होता कि इस इलाके में 24 करोड़ रुपये के ईधन के बदले 20,000 नावें तैयार रखते और मछुआरों, नाविकों, मल्लाहों को इस कार्य से जोड़ते, जो नदियों की गोदी में पला-बढ़ा समाज है। इससे कम लागत में बेहतर राहत कार्यों का वितरण किया जा सकता था।’’-अनुपम मिश्रा
इसके अलावा, बाढ़ नियंत्रण संबंधी गैर-संरचनात्मक उपायों जैसे-वाटरशेड की रक्षा व उसे कायम रखना, कैचमेंट एरिया इम्प्रूवमेंट, बाढ़ पूर्व चेतावनी प्रणाली व फ्लड फोरकॉस्टिंग तकनीक पर बल जोर देना चाहिए। वैकल्पिक बाढ़ नीति राज्य द्वारा सदैव से प्रोत्साहित संरचनात्मक उपायों के स्थान पर उपरोक्त गैर-संरचनात्मक मानकों पर बल देती है और वैश्विक स्तर पर इससे जुड़े सफल प्रयोगों को आत्मसात करने की भी बात करती है, ताकि बाढ़ से होने वाले नुकसान को कम किया जा सके। वैकल्पिक बाढ़ नीति नवपरंपरावादी दृष्टिकोण अपनाते हुए ‘रिवाइवल आॅफ ड्राइंग’ की अवधारणा के अंतर्गत पोखर, छोटी नदी, तालाब जैसे परंपरागत जल स्रोतों और जनेर जैसी सांस्कृतिक प्रथाओं को पुनर्जीवित करने पर भी जोर देती है। बाढ़ प्रभावित इलाके में पोखर, तालाब और इन छोटी नदियों को कुशन और जमीन की किडनी के रूप में देखा जाता है। इसे पुन: जीवित किया जाना चाहिए।
वैकल्पिक बाढ़ नीति के अंतर्गत समावेशी आपदा प्रबंधन नीति की संभावनाओं को भी प्रोत्साहित करने पर जोर दिया गया है। 2005 के बाद बाढ़ को आपदा मानते हुए उसके प्रबंधन की जिम्मेदारी राज्य पर है। परंतु स्थानीय लोगों व स्थानीय जनमीमांसाओं की सहभागिता के बिना आपदा प्रबंधन नीति को समावेशी नहीं बनाया जा सकता है। समावेशी आपदा प्रबंधन के तहत बाढ़ के पूर्व, बाढ़ के दौरान व बाढ़ के उपरांत की प्रक्रियाओं में राज्य के साथ-साथ स्थानीय समूहों, नागरिकों की समग्र सहभागिता होगी।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के मोतीलाल नेहरू कॉलेज में
राजनीति विज्ञान विभाग में सहायक प्रोफेसर हैं)
टिप्पणियाँ