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जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में 9 फरवरी, 2016 की घटना को अधिकांश बुद्धिजीवियों ने अपने-अपने नजरिये से देखा। लेकिन पेशे से पत्रकार संदीप देव वामपंथ के व्यावहारिक पक्ष को समझने के लिए इसकी गहराई तक गए। 'कहानी कम्युनिस्टों की' पुस्तक उसी शोध का प्रतिफल है। इसमें 1917 से 1964 के बीच अंतरराष्ट्रीय परिवेश में भारत के भीतर वामपंथ के विकास, उसके व्यवहार और प्रभाव का ऐतिहासिक और समाजशास्त्रीय अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। लेखक ने कम्युनिस्ट आंदोलन को अलग दृष्टि से राष्ट्रीयता के परिप्रेक्ष्य में देखा है। संदीप ने कई खुलासों के साथ लेनिन, स्टालिन के नेता बनने, राजनीतिक हत्याओं तथा बोल्शेविकों की क्रूरता के उदाहरण भी दिए हैं। पुस्तक भारत में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना से लेकर पूर्व प्रधानमंत्री पं. नेहरू के कार्यकाल की समाप्ति तक के कालखंड की पड़ताल करती है। दावा किया गया है कि नेहरू केवल ऊपर से गांधीवादी थे, आंतरिक रूप से वे कम्युनिस्ट थे। साथ ही यह दर्शाने का प्रयास किया गया है कि जेएनयू की घटना के पीछे वामपंथी विचारधारा थी, जो आजादी के पहले से ही भारत को एक 'राष्ट्र' नहीं मानती। लेखक ने नेहरू को वामपंथी साबित करने के लिए कई तथ्य पेश किए हैं। वामपंथ को लेकर पुस्तक के आवरण पृष्ठ पर सी. रामास्वामी की गंभीर टिप्पणी भी उद्धृत है। इसके मुताबिक, अगर भारत में वापपंथ का कोई भविष्य है तो भारत का भविष्य नहीं बचता।
पुस्तक पांच अध्यायों विभक्त में है। इसमें सिलसिलेवार ढंग से उस कालखंड का आकलन है, जिसमें कम्युनिस्ट आंदोलन उत्पन्न हुआ और विश्व राजनीति की धुरी बना। जन्म के साथ ही यह विचारधारा किस तरह विषैली होती गई, इस पर लेखक ने शोध कर प्रामाणिक तथ्य जुटाए हैं। पहले अध्याय की शुरुआत में लिखा है, ''पुराना नेतृत्व सीपीआई रूस की राह पर चलने की बात करता है और देश में 'क्रांति' पैदा करने की बात करता है। वहीं, नया नेतृत्व सीपीएम चीन का अनुसरण करता है और 'सिविल वार' की वकालत करता है। इनमें से कोई भी अपने देश की न तो चिंता कर रहा है, न उसे समझने का प्रयास कर रहा है और न ही यहां की स्थिति का ही सही आकलन कर रहा है।'' यह अध्याय कम्युनिस्टों की कथनी और करनी में अंतर भी बताता है। कार्ल मार्क्स और उसके सहयोगी एंजिल्स जिसे बुर्जुआ कहकर सर्वहारा को उसके खिलाफ आंदोलन करने के लिए कहते हैं, वास्तव में वे स्वयं उसी बुर्जुआ वर्ग के थे। मार्क्स की पत्नी जेनी वॉन भी अमीर परिवार से थीं। संदीप लिखते हैं, ऐसा नहीं है कि मार्क्स के मन में सर्वहारा के प्रति बहुत अधिक सहानुभूति थी। इसे साबित करने के लिए वे नौकरानी के साथ मार्क्स के नाजायज संबंध और उसकी नाजायज संतान का हवाला भी देते हैं। यह भी बताया है कि मार्क्स के 'सर्वहारा के अधिनायकवाद' को लेनिन, स्टालिन, माओ और अन्य साम्यवादी शासकों ने किस तरह अपनाया और खूनी, सशस्त्र क्रांति के जरिये दुनिया भर में 10 करोड़ से अधिक लोगों की जान ले ली। इसी सर्वहारा अधिनायकवाद की स्थापना के लिए दंतेवाड़ा के जंगलों में नक्सली-माओवादी भोले ग्रामीणों और सेना के जवानों का खून बहा रहे हैं।
लेनिन को दरकिनार कर स्टालिन ने उसकी जगह ली और न केवल अपने दुश्मनों को चुन-चुन कर मारा, बल्कि रूस का झूठा इतिहास, साहित्य आदि भी लिखवाना शुरू कराया। इसी 'स्टालिनवाद' का अनुसरण कर भारत के वामपंथी इतिहासकारों एवं साहित्यकारों ने भारतीय इतिहास को विकृत किया। पश्चिम बंगाल से लेकर केरल और नक्सलवाद से माओवाद तक के मूल में दुश्मनों की हत्या का प्रारंभिक विचार इसी विचारधारा से आया। बाद में इसमें चीनी तानाशाह माओ-त्से-तुंग का हिंसक विचार भी जुड़ गया। स्टालिन के काल पर रोशनी डालने के बाद लेखक ने कम्युनिस्ट सोच का एक खाका पेश किया है। वे लिखते हैं, ''राष्ट्र और राष्ट्रवाद का जिक्र होते ही भारत सहित दुनिया के कम्युनिस्ट हिटलरशाही, तानाशाही, फासीवाद चिल्लाने लगते हैं। लेकिन सच तो यह है कि जर्मनी के तानाशाह एडोल्फ हिटलर के साथ स्टालिन के समझौते के चलते ही द्वितीय विश्वयुद्ध की शुरुआत हुई।'' लेनिन ने ही पहली बार वामपंथियों को अपने ही 'राष्ट्र' के खिलाफ उतरने का विचार दिया। प्रथम विश्वयुद्ध में लेनिन अपने ही देश की पराजय चाहता था, इसलिए वह दुश्मन देश जर्मनी से सहयोग हासिल कर रहा था। लेनिन की उसी वैचारिक गूंज की अनुगूंज को 'भारत तेरे टुकड़े होंगे', 'पाकिस्तान जिंदाबाद' जैसे नारों में सुना जा सकता है।
दूसरा अध्याय कहीं ज्यादा रोचक है। कम्युनिस्ट इंटरनेशनल (कॉमिन्टर्न) के गठन और उसकी गतिविधियों के आलोक में भारत के कम्युनिस्ट आंदोलनों को दर्शाया गया है। 'साम्यवादी साम्राज्य' को बढ़ाने के लिए कॉमिन्टर्न ने किस तरह एजेंट तैयार किए और उन्हें अलग-अलग देशों में एक वर्ग को दूसरे वर्ग से लड़ाने को कहा। साथ ही, कॉमिन्टर्न ने भारत के लिए तीन समूह बनाए। इनमें सशस्त्र क्रांति वाला गुट सीधे लेनिन से निर्देशित था और इसके अगुआ मानवेंद्रनाथ राय थे। भारत में सशस्त्र क्रांति के लिए राय ने ताशकंद में 1919-20 में 'कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया' बनाई और लेनिन के कहने पर सशस्त्र क्रांति की रूपरेखा तैयार की। दरअसल, रूस पूरे पंजाब को भारत से अलग करना चाहता था। दूसरे गुट का नेतृत्व ब्रिटिश कम्युनिस्ट रजनीपाम दत्त और हैरी पॉलिट के पास था, जिनका काम भारत में कम्युनिस्ट पार्टी बनाकर आंदोलन को धार देना था। तीसरे गुट का नेतृत्व जवाहरलाल नेहरू के हाथ में था। संदीप लिखते हैं कि दत्त-ब्रैडले सिद्धांत के अनुसार ही कांग्रेसी नेताओं को सामाजिक विचारधारा में प्रशिक्षित करने का निर्णय लिया गया था। इसी के तहत नेहरू को कॉमिन्टर्न का मानद अध्यक्ष मनोनीत किया गया। कॉमिन्टर्न की पहल पर ही नेहरू सोवियत संघ की 'रिपब्लिकन आर्मी' के सदस्य बने। जब गांधीजी को यह पता चला तो वे बहुत दुखी हुए और नेहरू को पत्र लिखकर इसे उनका उतावलापन करार दिया। भारत में कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापकों में से एक फिलिप स्प्रैट की टिप्पणी तो बेहद गंभीर है। उन्होंने कहा था, ''मैं जितना समझता था, नेहरू उससे भी बड़े कम्युनिस्ट थे।''
पुस्तक में ऐसे कई तथ्य दिए गए हैं कि किस तरह नेहरू कांग्रेस पर अपनी वामपंथी विचारधारा थोपने के लिए बार-बार न केवल महात्मा गांधी से भिड़ रहे थे, बल्कि उनकी अहिंसक नीतियों को भी खारिज कर रहे थे। महात्मा गांधी द्वारा कांग्रेस छोड़ने के फैसले को भी संदीप ने अलग नजरिये से पेश करते हुए लिखा है, ''नेहरू के विचारों में आए विचलन से आहत होकर अहिंसा के पुजारी ने कांग्रेस से इस्तीफा दिया था।'' वामपंथी शुरू से ही गांधी और सरदार पटेल को दक्षिणपंथी और प्रतिक्रियावादी कहते रहे। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान गांधी के बाद सुभाषचंद्र बोस सबसे ज्यादा कम्युनिस्टों के निशाने पर रहे। इसी अध्याय में यह पटाक्षेप किया गया है कि कैसे नेहरू कम्युनिस्ट आंदोलन के संपर्क में आए। कैसे उनकी मुलाकात पहले मानवेंद्रनाथ राय की पत्नी और फिर राय से हुई। नेहरू से जुड़े रोचक तथ्यों के अलावा इसका भी जिक्र है कि वामपंथी इतिहासकारों ने कैसे अपनी इतिहास दृष्टि विकसित की। वामपंथी विचारधारा वाले इतिहासकारों बिपिन चंद्रा, मृदुला मुखर्जी, आदित्य मुखर्जी, कम्युनिस्ट नेता नंबूदिरिपाद आदि के लेखन से कुछ महत्वपूर्ण तथ्य भी पेश किए गए हैं।
मेरठ षड्यंत्र के बाद अंग्रेजों ने 1934 में कम्युनिस्ट पार्टी और उनके सभी प्रकाशनों पर पाबंदी लगा दी तो सभी कम्युनिस्ट नेताओं और विचारकों को कांग्रेस में शामिल करा कर इस विचारधारा को जिंदा रखा गया। लेकिन प्रतिबंध के तीन माह बाद अक्तूबर 1934 में बंबई के तमाम समाजवादी एकजुट हुए और जेपी, आचार्य नरेंद्र देव एवं मीनू मसानी की अगुआई में कांग्रेस के अंदर ही 'कांग्रेस समाजवादी पार्टी' बनी।
1935 में पीसी जोशी ने दोबारा कम्युनिस्ट पार्टी का पुनर्गठन किया और कॉमिन्टर्न के सिद्धांत के उलट 'क्रेमलिन' की राह पकड़ी। भारतीय कम्युनिस्टों ने 'क्रेमलिन' के नए सहयोगी 'लंदन' के लिए स्वतंत्रता सेनानियों की जासूसी की और उन्हें अंग्रेजों से पकड़वाया। जोशी और उनकी पार्टी ने 'भारत छोड़ो आंदोलन' को विफल करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाया। मार्क्सवादियों ने तो गांधी को 'अंग्रेजों का दलाल' और 'पूंजीवाद का सबसे धूर्त गुंडा' तक कहा था। तीसरे अध्याय में बताया गया है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के समाप्त होने पर सीपीआई ने पाला बदला और ब्रिटिश सरकार के विरोध में आ गई और ब्रिटेन को साम्राज्यवादी देश घोषित कर दिया। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद दुनिया जब दो खेमों में बंट गई तब सोवियत रूस ने साम्यवाद के विस्तार के लिए रणनीति बदल दी। कम्युनिस्ट इंटरनेशनल का नाम बदल कर कम्युनिस्ट इन्फॉर्मेशन ब्यूरो (कॉमिन्फर्म) कर दिया। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि आजादी मिलते ही कम्युनिस्टों ने तेलंगाना में नेहरू सरकार का तख्ता पलट करने की साजिश रची। लेकिन मार्क्सवादी इतिहासकारों ने इसे मामूली सशस्त्र विद्रोह बता कर इसे इतिहास की किताबों से ही गायब कर दिया। इतना ही नहीं, बलवाने की योजना विफल होने पर नेतृत्व ने इसका ठीकरा कार्यकर्ताओं पर फोड़ा और उन्हें कायर, डरपोक जैसे विशेषणों से नवाजा। आजादी से पहले भाकपा ने मुस्लिम लीग का समर्थन करते हुए देश विभाजन के पक्ष में प्रस्ताव पारित किया था और 1946 में ब्रिटिश सरकार के समक्ष देश को 17 हिस्सों में बांटने का सुझाव भी दिया था।
इस पुस्तक में लेखक ने कम्युनिस्टों के चाल, चरित्र और चेहरे को उजागर किया है। साथ ही, यह भी रेखांकित किया है कि असफल होने के बाद वे कैसे तिलमिलाते हैं। लेखक ने पीसी जोशी और बीटी रणदिवे के जरिये कम्युनिस्ट अंतर्द्वंद्व को भी पेश किया है। दरअसल, जोशी गांधी को प्रतिक्रियावादी और नेहरू को प्रगतिशील मानते थे और इसीलिए कांग्रेस के साथ कम्युनिस्टों का नाता तय करना चाहते थे। लेकिन 1948 में कलकत्ता सम्मेलन में पार्टी ने उन्हें हटाकर रणदिवे को कमान सौंप दी। इसका सीधा मतलब था कि कम्युनिस्ट नेहरू सरकार का तख्ता पलटने के मंसूबे पाले हुए थे। देश के बंटवारे के दिन को सीपीआई ने 'खुशी के दिन' के रूप में मनाया और घोषित किया कि यह 'आजादी झूठी है।' संदीप लिखते हैं, ''सीपीआई महासचिव सहित चार नेता 9 फरवरी, 1951 को मॉस्को में स्टालिन से मिले। वहां से लौटने के बाद यानी चार साल बाद पहली बार 15 अगस्त, 1951 को सीपीआई देश की स्वतंत्रता को स्वीकारा।''
पुस्तक में ऐसे बहुत से तथ्य दिए गए हैं, जिन्हें कम्युनिस्टों और कांग्रेसियों के लिए झुठलाना मुश्किल होगा। खासकर 1961 में हरकिशन सिंह सुरजीत की भूमिका, जिनकी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) चीनपंथी थी। हालांकि तीन पुस्तकों की शृंखला में यह पहली पुस्तक है, लेकिन इसमें ऐसे कई संदर्भ हैं जो इसे चर्चित बनाने के लिए काफी हैं। -नागार्जुन
पुस्तक का नाम : कहानी कम्युनिस्टों की (खंड-।)
लेखिका : संदीप देव
मूल्य : 399 रु.
पृष्ठ : 373
प्रकाशक : ब्लूम्सबरी पब्लिशिंग इंडिया, द्वितीय तल, एलएससी बिल्डिंग नं. 4, डीडीए कॉम्प्लेक्स, पॉकेट सी- 6 व 7, वसंत कुंज, नई दिल्ली-110070
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