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शिक्षित युवा भारतीय सदियों पुरानी गुलामी की जंजीरों को तोड़ने की पूरी तैयारी में हैं और इस दिशा में अगुआई कर रहे हैं। अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जुड़ने की भारतीय मानस की यह नई इच्छा सचमुच स्वागतयोग्य है
जे. नंदकुमार
श्रेयान्स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह:।। (3:35)
वैचारिक धरातल पर शाश्वत दर्शन के सबसे स्पष्ट एवं विस्तृत ग्रंथ भगवद्गीता में कहा गया है, ‘‘अधूरा ही सही, परंतु अपना कर्तव्य (स्वधर्म) निभाना ही श्रेष्ठ होता है, बजाय किसी अन्य व्यक्ति (परधर्म) के कार्योें को संपूर्णता के साथ पूरा करने के। अपना कार्य करते हुए मृत्यु का आलिंगन करो; किसी अन्य के कार्य तुम्हें आध्यात्मिक संकट में डाल सकते हैं।’’
इसी आधार पर, उपनिवेशवाद हमारी संस्कृति के आधारभूत या सहज तत्वों के अस्तित्व को संकट में डालने वाली प्रक्रिया थी, इसके कारण हम अपने सांस्कृतिक अतीत और सभ्यता के आदर्शों (स्वधर्म) से कट गए थे। अपने दोहरे नकारात्मक लक्ष्य को पूरा करते हुए, इसने इस खाली स्थान को अनजाने अवयवों और मूल्यों (परधर्म) से भर दिया था जिस कारण हम स्वतंत्रता की शुरुआत में ही, बिना किसी भावी उम्मीद के, अधर में जा लटके थे। हमारे पास अपने औपनिवेशिक हुक्मरानों और वाम-उदारवादी नव-औपनिवेशिक आकाओं द्वारा रोपे गए पश्चिमी मूल्यों के आधार पर आगे बढ़ने के अलावा और कोई चारा न था।
उपनिवेशवाद की बागडोर
गौरतलब है कि उपनिवेशवाद शब्द केवल ब्रिटिश तक ही सीमित न होकर उन समूचे विदेशी विचारों और आदर्शों को इंगित करता है जिन्हें हमारे ऊपर थोप दिया गया था। स्वातंत्र्योत्तर भारत में यह बागडोर कथित प्रख्यात इतिहासकारों और अकादमिकों को सौंप दी गई थी। उन्होंने अपने औपनिवेशिक आकाओं की तरह वही औजार और सामग्री इस्तेमाल की जिनके आधार पर देश में ‘बांटो और राज करो’ की नीति को सफलतापूर्वक लागू किया गया था। सरल शब्दों में, उपनिवेशवाद को दो तरह से समझा जा सकता है: एक, उपनिवेशवाद का वास्तविक स्वरूप, और दूसरा उसका अदृश्य रूप, जो हमारी पहचान से बाहर रहता या काम करता है। दूसरा रूप अधिक गंभीर है क्योंकि यह राष्ट्रीय मेधा और एकता को ज्यादा नुकसान पहुंचाता है। इसीलिए यह जानना जरूरी हो जाता है कि क्या भारतीय मानस को औपनिवेशिक शिकंजे से मुक्त कराने के गंभीर प्रयास किए गए हैं? इस दिशा में उठाए जाने वाले जरूरी कदमों पर सोचना आवश्यक है।
जीव-जगत में एक रोचक तथ्य है, जो सांकेतिक रूप से उपनिवेशवाद की कार्यविधि के बारे में बताता है। यहां बर्र का एक रंग-बिरंगा परिवार होता है जो झींगों, पतंगों और मकड़ियों जैसे प्राणियों के ऊपर या उनके अंदर अपने अंडे देते हैं। अंडे देने के दौरान ही ये इन प्राणियों में एक द्रव्य भी छोड़ते हैं जो उन्हें मारता नहीं है, बल्कि पंगु बना देता है। जब अंडे टूटते हैं तो लार्वा अपने जीवित शिकार से अपना पेट भरते हैं, पेट भरने के लिए वे सबसे पहले उनके शरीर की वसा और पाचक अंगों को खाते हैं और दिल व तंत्रिकातंत्र जैसे जरूरी अंगों को बाद के लिए छोड़ देते हैं ताकि वे अंग उन्हें भोजन के तौर पर ताजा मिलें। उपनिवेशवाद भी कुछ इसी तरह काम करता है। भड़कीले पश्चिमी विचारों व आदर्शों के नशे में आने के बाद हम अक्सर अपने दिमाग में उनके द्वारा रोपे गए नशे के प्रति सचेत नहीं रह पाते और लार्वा हमारी राष्ट्रीय जीवनशैली के महत्वपूर्ण अवयवों को खा जाता है जिस कारण हमारा अंत होता है।
पं. नेहरू की सांस्कृतिक समझ
जहां तक राष्ट्रीय पुनर्निर्माण एवं उपनिवेशवाद से मुक्ति के प्रयासों का सवाल है तो हमारे पहले प्रधानमंत्री, जो खुद को अंग्रेज कहलाने में गर्व महसूस करते थे, की नीतियां उपनिवेशवाद के अंत की बजाय उसे पुख्ता करने वाली साबित हुई थीं। एम़ ए़ वेंकट राव (जिन्हें गुरुजी ने एक समूचा खंड समर्पित किया है) ने ‘बंच आॅफ थॉट्स’ की भूमिका में ठीक ही लिखा है, ‘‘नेहरू की सोच अधिकांशत: बाहर ही निर्मित हुई थी और डिस्कवरी आॅफ इंडिया के बावजूद, श्री नेहरू कभी भारतीय संस्कृति की आत्मा को समझने में सफल नहीं हुए। इसलिए बतौर प्रधानमंत्री जिस नए समाज की रूपरेखा का वे इस्तेमाल कर रहे हैं और राष्ट्रीय पुनर्गठन के नेता के तौर पर जिस स्वतंत्र भारत का निर्माण कर रहे हैं, वह समाजवादी धरातल पर आधारित समाज है जो कहीं काल्पनिक और सतही, अधिकाधिक मशीनी और वर्ग विभेद की अनसुलझी समस्याओं से लैस है, ना कि अतीत के बुनियादी विचारों पर आधारित।’’ हालांकि भारत के साथ ही आजाद होने वाले अन्य देशों में उपनिवेशवाद से मुक्ति के विचारों को प्राथमिकता दी गई, परंतु भारत में इसके पैरोकारों ने ऐसे विचार का ही अंत कर दिया था। दुर्भाग्यवश, राष्ट्रीय चेतना को पुनर्जीवन देने और युवाओं को अपनी खोई जड़ों के साथ जोड़ने के प्रयास को हमने ही समाप्त कर दिया था।
इस बड़े अपराध की जिम्मेदारी उन प्रतिष्ठित व्यक्तियों पर थी जो नवगठित भारतीय जनतंत्र में शासन कर रहे थे। इन्हें तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है। यह सब, स्वेच्छा या अनिच्छा से खुद को ‘औपनिवेशिक मूल्यों’ का हिमायती मानते थे। ऐसा व्यक्ति जिसे स्वधर्म के महत्व का कोई ज्ञान नहीं है। जाहिर है, वे उसे मानते भी नहीं थे। उसे प्रोत्साहन देने की बजाय, वे उसे भीतर से खोखला करने की कोशिशों में लगे रहते थे। वे हमारे सांस्कृतिक अस्तित्व के मूलाधार, स्वधर्म को देश के विकास की राह में बड़ी अड़चन मानते थे। दूसरे वे लोग जो खुद को इसके प्रति सचेत तो मानते हैं, परंतु इसे अपनाने में हिचकते हैं क्योंकि उनका मानना है कि मौजूदा भारत के सामने खड़ी समस्याओं को सुलझाने में यह विचार सक्षम या मजबूत नहीं है। चूंकि औपनिवेशिक अतीत के साथ उनके संबंध मजबूत और गहरे हैं, इसलिए वे भारत की मौजूदा हालत को अपने विदेशी वामपंथी और पूंजीपति देशों (पूर्व सोवियत संघ या अमेरिका) के साथ मिलकर सुलझाने की सोचते हैं। लिहाजा, आजादी के बाद नेहरू की नीतियां भारत के औपनिवेशिक अतीत का ही विस्तार थीं जो आत्मसम्मान और स्वावलंबन से विहीन सोवियत मॉडल से उधार ली गई थीं, जो कि विकास का अनदेखा नमूना था और भारतीय परिस्थितियों के लिए असफल साबित होना ही था, सो हुआ। हालांकि, उपरोक्त दोनों पक्ष स्थानीय परंतु अपनी प्रकृति में विध्वंसक थे। तीसरा समूह इस मामले में असली दुश्मन साबित हुआ। यह देश से बाहर का था और ‘भारत तोड़ो’ नीति का पैरोकार था।
जैसा कि ऊपर कहा गया, उपनिवेशवाद नए गुलाम ही नहीं बनाता बल्कि तब तक गुलाम बनाना जारी रखता है, जब तक कि इसके शिकार जड़ से समाप्त नहीं हो जाते। जहां तक राष्ट्रीय ढांचे का सवाल है, उपनिवेशवाद उसके लिए जहर है, वहीं उपनिवेशवाद से मुक्ति की नीति को जहर काटने की दवा के तौर पर काम करना चाहिए, जिसे योजनाबद्घ और सावधानीपूर्वक अमल में लाया जाए। जो लोग देश के मौजूदा हालात पर विचार कर रहे हैं वे ‘अदृश्य उपनिवेशवाद’ से भारतीय मेधा को होने वाले व्यापक नुकसान को अनदेखा नहीं कर सकते। जैसा कि भगवान कृष्ण ने गीता में स्पष्ट कहा, यदि हम अपनी प्रकृति के अनुसार रहना चाहते हैं, तो विदेशी प्रभुत्व के नकारात्मक असर से बचना ही होगा।
प्रख्यात पत्रकार मार्क टली ने ठीक ही कहा है कि भारत में अंग्रेजी का प्रभुत्व बौद्धिक जीवनशैली और लोकतंत्र के लिए हानिप्रद है, जबकि कई अकादमिक ‘स्थानीय’ जन की परिस्थिति पर केवल हंस कर रह जाते हैं। राज करने वालों ने अपना पूरा प्रयास भाषायी उपनिवेशवाद के पक्ष में लगाया। यह एक तरह से अंग्रेजी को प्रभुता संपन्न बनाने और भारत को भाषायी उपनिवेशवाद से मुक्त करने का प्रयास था। नतीजा, आंकड़ों के अनुसार, गैर-अंग्रेजी भाषी माध्यम विद्यार्थियों के बीच लोकसेवा प्राथमिक परीक्षा पास करने का प्रतिशत मात्र 13 प्रतिशत रहा!
भ्रामक इतिहास का जंजाल
सामाजिक विज्ञान एवं मानव विज्ञान जैसे विषयों का उदाहरण लें तो हम अभी तक भारत में विकसित विज्ञान की शिक्षा देने को तैयार नहीं हुए हैं। आर्य आक्रमण की परिकल्पना आज तक इतिहास के साथ-साथ हमारे विश्वविद्यालयों के समाज शास्त्र के पाठ्यक्रमों में भी विवादित विषय रही है। अत: हम अपने विद्यार्थियों को पढ़ा रहे हैं कि कौटिल्य भारतीय मैकियावली हैं, समुद्रगुप्त भारतीय नेपोलियन, कालिदास भारतीय शेक्सपियर हैं। हालांकि ये विदेशी नाम किसी भी तरह उपरोक्त भारतीय विभूतियों के समकक्ष नहीं कहे जा सकते। ऐतिहासिक या कालक्रम, किसी अनुसार नहीं। किंडरगार्टन स्तर से, अंग्रेजी को संप्रेषण के साथ-साथ सीखने के माध्यम के तौर पर थोपा गया है। सावरकर, आऱ सी़ मजूमदार आदि की लिखी इतिहास पुस्तकों को हमारे कथित प्रतिष्ठित अकादमिकों द्वारा मौलिक एवं तथ्यपरक दस्तावेज नहीं माना
गया है।
मीडिया के अकादमिक जगत में भी संप्रेषण के भारतीय सिद्धांतों जैसा कुछ नहीं है। कला एवं साहित्य में भी कथित अंतरराष्ट्रीय स्तर जैसा कोई योगदान नहीं माना जाता। क्या भारतीय दर्शन के छात्रों को प्लूटो एवं सुकरात पढ़ाने से ज्यादा बेतुका तर्क और कुछ हो सकता है? हम औपनिवेशिक सोच के ऐसे जहरीले असर में फंसे हुए हैं जहां राजनीति विज्ञान के भारतीय विद्यार्थी को हिंदू राजतंत्र पढ़ने को ही नहीं मिलता। आखिर प्रकांड शिक्षाविदों की मंशा क्या है, उन्हें किस बात का डर है? क्या हमारी भारतीय ‘गणराज्य’ व्यवस्था पढ़ने लायक नहीं है?
उपनिवेशवाद के दूरगामी असर
हमारे समाज में उपनिवेशवाद का आज भी साफ दिखता है और अक्सर वे विभिन्न रूपों में दिखाई दे जाता है। यह विश्वविद्यालयों परिसरों में देश विरोधी नारेबाजी या संसद अथवा सड़कों पर अलगाववाद के समर्थन में उठने वाली आवाजों में दिखता है। अफसोस की बात यह है कि इनका असर राष्ट्रीय जीवनशैली के हर स्वरूप पर पड़ता है। कृषि क्षेत्र में पश्चिमी पद्धति अपनाई गई है जबकि स्वदेशी कृषि पद्धतियों और बीजों को पश्चिमी अवयवों से बदल दिया गया है। यहां औद्योगिक क्षेत्र एवं तकनीकी की बात करना बेमानी होगा, क्योंकि उनमें भारतीय नाम का कुछ नहीं है। समय-समय पर सुधारवादी कदम उठाए जाने के बावजूद हमारी नौकरशाही, न्यायपालिका, प्रशासनिक ढांचा आदि हमारे औपनिवेशिक काल के ही अवशेष नजर आते हैं।
मौजूदा सामाजिक ढांचा उपनिवेशवाद के जुर्मों की गवाही देता है जिसने पुराने सामाजिक ढांचे को बदलने के लिए बंटवारे के बीज बोये और वर्ग विभेद को बढ़ावा दिया था जो कि मूलत: पश्चिमी देन है। नतीजा, प्रतिदिन नई जातियां सिर उठा रही हैं।
उपनिवेशवाद के सभी नकारात्मक असर 6 तरह के कहे जा सकते हैं—हीनताबोध, अज्ञानता, आलस्य, अकर्मण्यता, अनिच्छा और अनादर। सदियों तक औपनिवेशिक मानसिकता के अधीन होने के कारण हीनता और तिरस्कारबोध की आदत सिर उठाती है। हमारी समृद्ध धरोहर से कई लोग अनजान हैं, क्योंकि उन्हें उसके बारे में बताया ही नहीं गया। प्रख्यात वकील नानी पालखीवाला ने एक बार सख्त शब्दों में कहा था : ‘‘भारत की हालत उस गधे जैसी है जो अपनी पीठ पर सोने की ईंटें ढोकर चल रहा है। गधे को पता नहीं कि वह क्या उठाए, लेकिन वह इस बोझ को उठाकर चलने में ही संतुष्ट है।’’
एक अन्य महामारी जो हमारे बीच पसरी हुई है, वह है आलस्य। बेशक हम जानते हैं कि हम इसके घेरे में हैं, लेकिन हम गतिशील होने को तैयार नहीं होते। सभी क्षेत्रों में फैली अकर्मण्यता के कारण हमने परिवार आधारित उद्योगों को सामाजिक ढांचे से ही बाहर कर दिया है। जब यह अनिच्छा शर्मनाक दासत्व मानसिकता के रूप में बाहर आती है, उस समय भारतीय छाप की तमाम वस्तुओं के प्रति अनादर का पता चलता है, जिसकी घुट्टी स्वातंत्र्योत्तर भारत की सभी पीढ़ियों को यहां के बौद्धिकों और अकादमिकों ने पिलाई थी। हिंदू मनोभाव से जुड़ी हुई किसी भी चीज को सांप्रदायिक, दकियानूसी, प्रतिगामी और न जाने क्या-क्या कहा जाता है। अकादमिक हलकों में यह प्रचार वामपंथी बौद्धिकों ने लगातार जारी रखा। कहना न होगा कि वे इस तरह पश्चिमी उपनिवेशवाद के एजेंडे को ही आगे ले जाते रहे हैं। गौरतलब है कि मार्क्सवाद का एक उत्तर-आधुनिक वैचारिक स्वरूप विषयपरक ज्ञान को ही सिरे से नकारता है और कहता है कि ज्ञान किसी भी व्यक्ति की सामाजिक पृष्ठभूमि पर निर्भर करता है। साथ ही, इस दर्शन के अनुसार ‘सामाजिक विज्ञान से जुड़े प्रत्येक शोध का राजनीतिक एजेंडा होता है।’
स्वामी रामकृष्ण परमहंस एवं स्वामी विवेकानंद द्वारा चलाया गया आध्यात्मिक आंदोलन, बंगाल से उठने वाला सांस्कृतिक नवजागरण, जो समूचे देश में फैला, रबीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा की गई शुरुआत (विश्व भारती, डेक्कन एजुकेशन सोसाइटी आदि), श्री अरविंद, बाल गंगाधर तिलक एवं अन्य क्रांतिकारी राष्ट्रवादियों द्वारा उपनिवेशवाद के अंत और राष्ट्रवाद को बड़े तौर पर प्रोत्साहन दिया गया। इन राष्ट्रवादियों ने भारतीय मानस में राष्ट्रवाद और स्वधर्म की भावना को मजबूत करने हेतु गंभीर प्रयास किए थे। परंतु इस दिशा में व्यापक और चैतन्य प्रयास 1925 में डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के गठन के साथ किया था।
शिक्षा क्षेत्र, जो कि उपनिवेशवाद का सबसे पहला और बड़ा शिकार रहा है, उसको औपनिवेशिक दासता से मुक्त करने के लिए बड़े प्रयासों की जरूरत के साथ-साथ राष्ट्रवाद भारतीय अकादमिक जगत में धीरे-धीरे अपना स्थान बना रहा है। शिक्षा क्षेत्र में यह विध्वंस व्यापक रहा था, इसलिए हमारे अकादमिक परिवेश के भारतीयकरण के लिए सचेत और सतत प्रयासों की जरूरत है। यह केवल सलाह-मशविरे और तर्क-वितर्क से ही संभव है। जरूरी यह जानना भी है कि हमारी अपनी भाषा के अभाव में देश तरक्की नहीं कर सकता। इसलिए संस्कृत एवं अन्य भारतीय भाषाओं को अकादमिक हलकों में समुचित स्थान मिलना चाहिए।
संस्कृत के पुनरुत्थान, योगादि को मिलने वाले व्यापक समर्थन से साबित होता है कि युवा मस्तिष्क आज अपनी पिछली पीढ़ी की बजाय भारतीयता की ओर लौटने लगा है। भारत को औपनिवेशिक माहौल से मुक्ति के संबंध में वह चमकता उदाहरण है। देश भर में सामाजिक-सांस्कृतिक एवं राजनीतिक परिधि में राष्ट्रवादी संस्थानों के उत्थान से स्पष्ट होता है कि हम सही मार्ग पर चल रहे हैं। उदाहरणार्थ, भारतीय मजदूर संघ सबसे बड़ा टेÑड यूनियन बन चुका है। पश्चिमी लीक पर चलने वाले अन्य मजदूर संघों की बजाय, ब.म.संघ की सोच है कि मजदूर क्षेत्र एक परिवार की तरह है, जब कि ट्रेड यूनियन का कम्युनिस्ट विचार उसे युद्ध क्षेत्र सरीखा मानता है।
उपनिवेशवाद की संतानें और औपनिवेशिक मानसिकता रखने वाले आज भी विभिन्न राष्ट्रवादियों द्वारा उपनिवेशवादी सोच का अंत करने के प्रयास का विरोध कर रहे हैं। परंतु शिक्षित युवा भारतीय सदियों पुरानी गुलामी की जंजीरों को तोड़ने को पूरी तैयारी में हैं और इस दिशा में अगुआई कर रहे हैं। अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जुड़ने की भारतीय मानस की यह नई इच्छा सचमुच स्वागतयोग्य है। उम्मीद है कि आजादी के सात दशकों बाद ही सही, यह असली स्वराज की स्थापना में सफल हो सकेगी।
(लेखक प्रज्ञा प्रवाह के अखिल भारतीय संयोजक हैं)
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