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''छह साल की उम्र से ही मुझे बौद्ध ग्रंथ पढ़ाए जाने लगे थे। कठिन सूत्रों को कंठस्थ करना होता था। उस उम्र में ही यह घोषित हो गया था कि मैं दलाई लामा हूं। सब लोग मुझे पवित्र मानते थे। मेरा सम्मान करते थे, लेकिन इसके बावजूद मेरे शिक्षक मेरे सामने छड़ी लेकर बैठते थे। गलती होने पर छड़ी से पिटाई का खतरा था। मैं साधारण छात्र नहीं था, 'पवित्र दलाई लामा' था, तो शिक्षक ने इस बात का लिहाज करते हुए छड़ी का रंग पीला कर दिया था, क्योंकि पीला पवित्र रंग माना जाता है। असाधारण और पवित्र छात्र को पढ़ाने के लिए पवित्र रंग वाली एक पवित्र छड़ी। मुझेे उस छड़ी से बहुत डर लगता था, उसी डर के कारण मैंने सारी शुरुआती पढ़ाई की थी, क्योंकि उस उम्र में भी मुझे पता था कि जब उस छड़ी से मेरी पिटाई होगी, तो जो दर्द होगा, वह कतई 'पवित्र' नहीं होगा।''
आज की शिक्षा व्यवस्था पर टिप्पणी करने के लिए दलाई लामा का यह संस्मरण सटीक जान पड़ता है। हमने अपने शिक्षकों पर यकीन करना छोड़ दिया है। शिक्षकों को हर बात अब कानून बनाकर ही बताई जा रही है। यदि विद्यालयों में शिक्षकों को अपनी तरह से प्रतिक्रिया करने और अपनी तरह से सोचने और पढ़ाने का अवसर नहीं देंगे तो उनका क्रियाकलाप मशीनी बन कर ही रह जाएगा। अब बात हो रही है कि शिक्षकों को छड़ी का इस्तेमाल करने की इजाजत नहीं मिलेगी। इस तरह के नियम और कानून बनाने की जगह यदि शिक्षकों से इस बात पर चर्चा की जाए तो उससे अच्छे परिणाम सामने आ सकते हैं। आज हम नई-नई शिक्षा नीति ला रहे हैं। उनमें कुछ ऐसी बातें कर रहे हैं, जो सुनने में नई लगती हैं लेकिन भारतीय परंपरा में वह नई नहीं है। लेकिन हमारे देश में जब तक कोई बात विदेश न चली जाए तब तक हमें वह ग्राह्य नहीं लगती। महत्वपूर्ण बात यह है कि हम जिस मॉडल को अपना रहे हैं, उसे भी श्रेष्ठ की जगह विकृत रूप में अपना रहे हैं। आपने पढ़ा होगा, इन दिनों बच्चों को कक्षाओं में न रोकने पर विचार चल रहा है। कक्षा में कोई असफल नहीं होगा। बच्चा चाहे पढ़ने में कैसा भी हो, वह एक के बाद एक अगली कक्षाओं में पहुंचता रहेगा। रांची विश्वविद्यालय में प्रोफेसर दिवकार मिंज इस संबंध में गुरुकुल परंपरा को याद करते हुए कहते हैं, ''उस समय गुरुकुल में रहने वाले बच्चों को भी साथ-साथ ही रखकर पढ़ाया जाता था। सभी बच्चों को एक तरह की शिक्षा दी जाती थी। राजा के यहां से विद्यार्थी आया हो या रंक के यहां से, सबके साथ गुरु एक सा व्यवहार करता था।''
मिंज कहते हैं, ''गुरुकुल परंपरा में मांग कर बच्चों को अपने भोजन की व्यवस्था जुटानी पड़ती थी। यह मांग भीख नहीं थी। यह सभी बच्चों में बराबरी का भाव लाने के लिए किया जाने वाला एक महत्वपूर्ण अभ्यास था। किसी बच्चे में राजा का बेटा होने की वजह से अहंकार न आ जाए, इसके लिए किया जाने वाला प्रयास था। आज हम दिल्ली के एमसीडी स्कूल और संस्कृति स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों में आसानी से अंतर कर सकते हैं।''
सेंटर फॉर सिविल सोसायटी लंबे समय से शिक्षा पर काम करने वाली संस्था है। संस्था से जुड़े अविनाश चंद्रा के अनुसार, ''आज सरकारी और निजी विद्यालयों में फर्क बहुत साफ नजर आता है। दोनों की पढ़ाई के स्तर में जमीन-आसमान का अंतर है। इसकी एक वजह सरकारी विद्यालयों के प्रधानाध्यापकों के पास अधिकारों का अभाव है। निजी विद्यालयों के प्रधानाध्यापकों के पास असीमित अधिकार होते हैं। इसलिए वे परिणाम देने में सफल होते हैं।''
सरकारी विद्यालयों की शिक्षा की आलोचना दलित चिंतक चन्द्रभान प्रसाद भी करते हैं। वे कहते हैं, ''आज गरीब्3ा से गरीब आदमी से बात कीजिए, चाहे वह रिक्शा चलाता हो, रेहड़ी लगाता हो या दिहाड़ी मजदूरी करता हो। इनमें से काई भी अपने बच्चे को सरकारी विद्यालय में नहीं पढ़ाना चाहता। सभी निजी विद्यालयों की ओर भाग रहे हैं, वह भी अंग्रेजी माध्यम की ओर। सरकारी स्कूल की शिक्षा-व्यवस्था की दुर्दशा को समाज में सबसे पिछड़े तबके का आदमी समझ गया है। यह बात सरकार क्यों नहीं समझ पा रही है।''
सरकारी बनाम निजी स्कूल की बहस में अविनाश चन्द्रा का सुझाव महत्वपूर्ण है। वे कहते हैं, ''यदि देश में सरकारी विद्यालयों की स्थिति नहीं सुधरनी तो दिल्ली जैसे शहर में कम से कम सरकार वह पैसा सीधे बच्चों के हाथ में दे दे, जिसे वह बच्चों पर हर महीने खर्च करने का दावा करती है। एक अनुमान के अनुसार दिल्ली सरकार प्रत्येक महीने एक छात्र पर दो हजार रुपए खर्च कर रही है।''
रमेश थानवी ने जयपुर से लंबे समय तक शिक्षा पर केन्द्रित पत्रिका 'अनौपचारिका' का संपादन किया। उनकी एक किताब है 'शिक्षा की परीक्षा'। थानवी मानते हैं कि आज के समय में परीक्षा के नाम पर शिक्षा की परीक्षा हो रही है। तय पाठ्यक्रम के बाहर बच्चे इसी परीक्षा के भय से देखने से डरते हैं। थानवी विदेशों में बढ़ रहे नेचर डेफिसिट डिसऑर्डर पर भी चिन्ता व्यक्त करते हैं। उन्हें डर है कि यह बीमारी भारत का रुख न करे। रिचर्ड लव ने 2005 में आई अपनी किताब 'लास्ट चाइल्ड इन द वूड्स' मेंे पहली बार इस डिसऑर्डर का जिक्र किया था। प्रकृति से दूर रहने वाले और पूरा समय घर में बिताने वाले बच्चों में यह डिसऑर्डर देखा गया है। इसमें डॉक्टर बच्चों को बाहर ले जाने और प्रकृति के बीच में रखने की सलाह देते हैं।
इतनी निराशा भरी बातों के बीच रोशनी की एक किरण आनंद द्विवेदी जैसे लोग दिखाते हैं। जो अंजनीसेन (उतराखंड) में पर्यावरण विद्यालय चला रहे हैं। वे लंबे समय तक चित्तूर (आंध्र प्रदेश) ऋषि वैली के साथ जुड़े रहे। वैली से उनका विरोध अमीर घरों से आने वाले बच्चों के प्रति संस्था के अतिरिक्त झुकाव को लेकर था। गरीब बच्चों के लिए वहां संभावना नहीं थी। वे वहां से निकले। यायावरों की तरह भारत की यात्रा करते रहे। यात्रा के दौरान स्वामी मन्मथन के संपर्क में आए। उनसे प्रभावित हुए। स्वामी मन्मथन के आग्रह पर उनके पर्यावरण स्कूल का कामकाज संभाला। शर्त रखी कि इसे वे अपने मनमाफिक चलाएंगे। स्वामी जी को इसमें कोई आपत्ति नहीं थी। आनंद के पर्यावरण विद्यालय में आने वाले बच्चों की पीठ पर बस्ते का भारी-भरकम बोझ नहीं होता। संगीत और ध्यान को प्राथमिकता दी जाती है। किताबों का नंबर उसके बाद आता है। आनन्द बताते हैं, हम यहां बच्चों को जीने की कला सिखाते हैं।
पर्यावरण विद्यालय में बच्चों से जो शुल्क लिया जाता है, वह मामूली है। जो छात्र यह रकम भी देने में असमर्थ हैं, उनके पढ़ने से लेकर स्कूली पोशाक तक का इंतजाम स्कूल करता है। आनंद द्विवेदी और उनके साथ काम करने वाले सभी शिक्षक और शिक्षिकाएं विद्यालय को अपनी सेवा नि:शुल्क दे रहे हैं। अपनी दाल-रोटी चलाने के लिए ये सभी लोग अध्ययन-अध्यापन से जुड़ा कुछ और काम स्वतंत्र रूप से करते हैं। उनके काम करने की पद्धति को समझे बिना कोई भी व्यक्ति उनके विद्यालय को किसी तरह की मदद करे, उन्हें पसंद नहीं है। पैसे देने की पेशकश लेकर आईं एजेंसियों को द्विवेदी के संकल्प की वजह से बिना पैसे दिए ही वापस लौटना पड़ा। जिसे धन लेना हो, वह खाली हाथ लौट जाए – इस तरह की घटना समाज में आम है। लेकिन देने वाले का हाथ नीचे हो और लेने वाले का हाथ ऊपर, यह कम ही हो पाता है।
-आशीष कुमार 'अंशु'
तय हो शिक्षा का लक्ष्य
-अतुल कोठारी-
अपने देश की शिक्षा-व्यवस्था का जब हम चिन्तन करते हैं, तो पाते हैं कि देश की शिक्षा का लक्ष्य तय नहीं है। शिक्षा का अर्थ सिर्फ किताब का ज्ञान मात्र नहीं है, शिक्षा का अर्थ है, चरित्र निर्माण, व्यक्तित्व निर्माण जिसमें शामिल हो। शिक्षा का लक्ष्य निर्धारित होना चाहिए। शिक्षा ऐसी जिसमें हमारे प्राचीन ज्ञान और आधुनिक ज्ञान का समन्वय हो। जिसमें भौतिकता और आध्यात्मिकता का समन्वय हो। शिक्षा मूल्य आधारित हो। मातृभाषा में हो। शिक्षा व्यापार के लिए नहीं, बल्कि सेवा के लिए हो। शिक्षा में समग्रता का चिन्तन हो। इन सारी बातों को ध्यान में रखकर शिक्षा की नीति और पाठ्यक्रम तैयार किया जाना चाहिए।
हमने कुछ विद्यालयों में इसे लागू करने का प्रयास किया है। पाठ्यक्रम सरकार के हाथ में है। उसे नहीं बदल सकते हैं। उसे छोड़कर बाकी सभी बिन्दुओं को ध्यान में रखकर हमने कुछ प्रयोग किए हैं। जैसे पंजाब के तलवारा में एक स्कूल में हमारा यह प्रयास चल रहा है। झाबुआ (मध्य प्रदेश) में हमारा प्रयोग सफल है। इडर (गुजरात) में यह प्रयोग चल रहा है। यह प्रयोग गायत्री परिवार द्वारा संचालित देव संस्कृति विश्वविद्यालय में भी देखने को मिलता है।
हमने मूल्य आधारित शिक्षा का प्रयोग और बिना शिक्षक परीक्षा का प्रयोग किया। स्कूल के प्रधानाध्यापकों ने कहा कि यह प्रयोग सफल रहा। बिना शिक्षक के परीक्षा दे रहे विद्यार्थियों में से किसी ने नकल करने की कोशिश नहीं की।
शिक्षा को लेकर कुछ बातें हमें गांठ बांध लेनी चाहिए। शिक्षा ऐसी हो, जिससे हमें मूल्य आधारित जीवन जीने की प्रेरणा मिले। जो राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय चुनौतियों से हमारा परिचय कराए। जिससे व्यक्तित्व का विकास हो। जिससे हमें देश के समक्ष खड़ी चुनौती से टकराने और उसके समाधान को तलाशने की प्रेरणा मिले।
झाबुआ के हमारे स्कूल में बच्चे किताबी शिक्षा के साथ पर्यावरण से जुड़ने की भी शिक्षा ले रहे हैं। स्कूल में कोई बच्चा जंक फूड या फास्ट फूड इस्तेमाल नहीं करता। सभी घर से खाना लाते हैं। कोई पॉलिथीन का प्रयोग नहीं करता। विश्व स्वास्थ्य संगठन हाथ धोना सिखलाने के लिए करोड़ों रुपए खर्च कर रहा है। हमारे बच्चे खाना खाने से पहले हाथ धोना और खाना खाने के बाद हाथ धोना नहीं भूलते। यह उनकी आदत में शामिल हो गया है। बच्चे अपने घर से अनाज लेकर आते हैं और पक्षियों को देते हैं। बीच-बीच में शहर में पर्यावरण के लिए समाज में जागरूकता फैलाने के लिए ये रैलियां भी करते हैं। लोगों से व्यक्तिगत स्तर पर मिलकर उन्हें पर्यावरण का महत्व समझाते हैं। पॉलिथीन को ना कहना सिखलाते हैं। उज्जैन की एक जर्जर हो रही धर्मशाला में पहली मंजिल पर लड़कियों का एक सरकारी स्कूल बहुत बुरी हालत में चल रहा था। 2012 में जब हमने काम शुरू किया, वहां 60 लड़कियां थीं। आज वहां सर्वांगीण विकास को लक्ष्य करके दी जा रही शिक्षा इतनी प्रेरणादायी है कि लड़कियों की संख्या 500 को पार कर गई है। इस स्कूल पर एक छात्रा ने गहन शोध किया और अब वह शोध किताब के रूप में छप कर भी आ गई है।
ऐसी शिक्षा का कोई लाभ नहीं जिसका लक्ष्य स्पष्ट न हो।
(लेखक शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास में राष्ट्रीय सचिव हैं)
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