आवरण कथा-1
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आवरण कथा-1
सावधान
हो
भारत!
आलोक गोस्वामी
अफगानिस्तान की राजधानी काबुल में 15 अप्रैल को संसद सहित अमरीकी, ब्रिटिश और 'नाटो' ठिकानों पर जबरदस्त फिदायीन हमलों को दो जिहादी मंसूबे परवान चढ़ाने की कोशिश के तौर पर देखा जाना चाहिए। पहला, करीब चार हफ्ते पहले दोहा में चल रही गुप्त बातचीत से बौखलाकर बाहर हुए तालिबानी वार्ताकारों ने अपने हथियारबंद दस्तों के मार्फत काबुल को दहलाकर यह जताने की कोशिश की है कि कोई मुगालते में न रहे, तालिबानी लड़ाके खूनी खेल खेलना भूले नहीं हैं, वे जब चाहें, जहां चाहें हमले कर सकते हैं। दूसरा मंसूबा है पाकिस्तानी आईएसआई, फौज और उत्तरी वजीरिस्तान की अपनी सुरक्षित खोहों में जमे तालिबानी कमांडरों के गठजोड़ का, जो अफगानिस्तान में 1996-2001 का तालिबानी राज लौटाने के ख्वाब देख रहा है। उसे यह समय सुभीता लग रहा है, क्योंकि पश्चिमी गठजोड़ की सेनाएं 2014 तक अफगानिस्तान से रवाना हो जाएंगी, जिसके बाद बचने वाले 15 हजार पश्चिमी फौजियों और 240,000 की जगह 190,000 अफगानी फौजियों के चलते अफगानिस्तान में उनको तख्त पर चढ़ बैठने में, उनके मंसूबे के अनुसार, ज्यादा मुश्किल पेश नहीं आएगी।
पाकिस्तान में जमे तालिबानी
काबुल के हमलों में जिस हक्कानी गुट का हाथ माना जा रहा है, उसका सरगना जलालुद्दीन हक्कानी पाकिस्तान में जमा है। करीब 12 घंटे के दरम्यान 15 से ज्यादा जगहों पर एक के बाद एक हमलों से सतर्क हुए पश्चिमी और अफगानी फौजियों ने कमाल की मुस्तैदी दिखाते हुए 36 आतंकी ढेर कर दिए। विशेषज्ञ इस हमले को तालिबान की अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की कसमसाहट ज्यादा मानते हैं, क्योंकि हमलों में जानोमाल का ज्यादा नुकसान नहीं हुआ था। लेकिन दीवार पर लिखी इबारत की तरह यह भी साफ है कि तालिबान को जिलाए रखने के पीछे पाकिस्तान की आईएसआई और फौज है। अमरीकी सेनाओं के 2014 तक वहां से निकलने के बाद पाकिस्तानी नहीं चाहते कि भारत का वहां कोई दखल रहे, लिहाजा वे अफगानिस्तान में विकास कार्यों, सैन्य और राजनीतिक क्षेत्र में भारत की बढ़ती भूमिका को लेकर बेचैन हैं। पाकिस्तानी हुक्मरान अपने कबीलाई इलाकों में मौजूद तालिबानी और जिहादी कमांडरों से इतना खौफ खाए हुए हैं कि इसमें आश्चर्य नहीं अगर वे अफगानिस्तान में तालिबानी आतंक को अपना रणनीतिक संबल देते हों।
भारत के लिहाज से स्थितियां खतरे का संकेत दे रही हैं। मध्य एशिया में रणनीतिक दृष्टि से अति संवेदनशील अफगानिस्तान परंपरा से भारत के नजदीक रहा है, बीच के तालिबानी राज को छोड़ दें तो, जब बामियान में तालिबानों ने बुद्ध की मूर्तियां तोड़ी थीं।
जरदारी की मंशा
गौर करिए, 8 अप्रैल को पाकिस्तान के राष्ट्रपति जरदारी बरास्ते दिल्ली अजमेर दरगाह गए थे। दिल्ली में उन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से अपनी मुलाकात में पूर्वी मोर्चे पर शांति बहाली की बात छेड़ी। क्यों? अचानक पाकिस्तान का राष्ट्रपति यह शांति की भाषा क्यों बोलने लगा? इस संदर्भ में रक्षा विशेषज्ञ मेजर जनरल (से.नि.) गगनदीप बख्शी कहते हैं, कि पूर्वी मोर्चे पर जरदारी को भारत से शांति का वादा इसलिए चाहिए ताकि पाकिस्तान भारत की तरफ से बेफिक्र होकर पश्चिमी सरहद के पार अफगानिस्तान पर ध्यान जमा पाए और वहां अमरीकियों के निकलने के बाद राष्ट्रपति करजई का नजीबुल्लाह जैसा हाल करके तालिबानियों का राज कायम करा पाए। मे.ज.बख्शी कहते हैं, पाकिस्तान अपने उसी मंसूबे को पूरा करने में जुट गया है, जिसकी बानगी 15 अप्रैल को काबुल पर हमलों में दिखी। जरदारी निश्चित रूप से अपने जनरल कयानी से सलाह करके ही दिल्ली आए होंगे, कयानी ने ही 'शांति का रास्ता' सुझाया होगा, क्योंकि पाकिस्तानी फौज तालिबानी कमांडरों से आंख मिलाने से कतराती है और मांगने पर उनकी मदद से इनकार नहीं कर सकती। पाञ्चजन्य से वार्ता में मे.ज.बख्शी इस बात से खिन्न दिखे कि भारत का सियासी नेतृत्व और अधिकांश मीडिया जरदारी के 'शांति के पैगाम' को लपकने की उतावली दिखा रहा था। वह कहते हैं, 'अरे भई, कम से कम जरदारी की मंशा तो समझो। साउथ ब्लाक इसके पीछे क्या है, उसे अनदेखा तो न करे। पाकिस्तानी फौज पूरी ताकत अफगानिस्तान में झौंकना चाहती है इसलिए फिलहाल उसे भारत से कोई झंझट नहीं चाहिए।' लेकिन अफगानिस्तान में तालिबानों को कायम करने में कामयाब होते ही पाकिस्तानी आईएसआई भारत में जिहादी भेजकर भीषण तबाही मचा देगी। काबुल हमलों को मे.ज.बख्शी भारत के लिहाज से एक खतरनाक संकेत मानते हैं। उनके अनुसार, भारत को पूर्वी मोर्चे पर दबाव बनाना चाहिए ताकि तालिबानी अफगानिस्तान और अफगानियों को पैरों तले न रौंद पाएं। वे पूछते हैं, क्या भारत अफगानिस्तान को पाकिस्तान का उपनिवेश बनने देना चाहता है?
पाकिस्तान में भारत के उच्चायुक्त रहे, विदेश मामलों के विशेषज्ञ श्री गोपालस्वामी पार्थसारथी भी काबुल हमलों को खतरे की घंटी मानते हैं। उनका कहना है कि तालिबानी यह दिखाना चाहते हैं कि वे अब भी एक दमदार लड़ाकू हैं। पर इसमें शक नहीं कि उन्होंने ये हमले पाकिस्तान की मदद से ही किए होंगे। पाञ्चजन्य से बात करते हुए पार्थसारथी ने कहा कि जलालुद्दीन हक्कानी गुट, जिसने, बताया जा रहा है काबुल हमले किए, भारत के लिहाज से खासी चिंता का विषय है। क्योंकि इसी गुट ने अफगानिस्तान में भारतीय दूतावास पर हमला किया था, भारत के नागरिकों को मारा था। अफगानिस्तान सरकार ने साफ कहा है कि वजीरिस्तान (पाकिस्तान) में छुपे बैठे तालिबानियों ने सीमा पार आकर हमले किए थे। पार्थसारथी के अनुसार, अमरीकी सेना की वापसी की बात तय होने के बाद हक्कानी गुट ने अफगानिस्तान में सुरक्षित अड्डे जमा लिए हैं। वे कहते हैं कि, पाकिस्तान के खोस्त में चल रहे आतंकी शिविरों में आईएसआई तालिबान की मदद से हरकतुल मुजाहिदीन के आतंकियों को जम्मू- कश्मीर में घुसपैठ करने का प्रशिक्षिण दे रही थी। अमरीकी हमले में वह शिविर ध्वस्त हो गया था। भारत के खिलाफ पाकिस्तान किस तरह तालिबानी आतंकियों का इस्तेमाल करता रहा है, इसका उदाहरण देते हुए पार्थसारथी बताते हैं कि कारगिल युद्ध के दौरान तत्कालीन आईएसआई प्रमुख जनरल जियाउद्दीन काबुल गए थे, जहां उन्होंने अफगानी राष्ट्रपति गुलाम मोहम्मद रब्बानी से पूछा था कि क्या वे ऐसे बीस-तीस हजार लोग उन्हें दे सकते हैं जो ऊंचे पहाड़ी ठिकानों को कब्जा कर बैठे रहें? इस पर रब्बानी ने हंसते हुए कहा था, बीस-तीस हजार क्या, जम्मू-कश्मीर में जिहाद के लिए मैं तुम्हें पांच लाख लोग दे सकता हूं! यह सब विवरण पाकिस्तान के सुप्रसिद्ध लेखक शुजा नवाज ने लिखा है, जो खुद पाकिस्तान के पूर्व सैन्य प्रमुख के भाई हैं।
मदद को आगे आए भारत
पार्थसारथी भी अफगानिस्तान में तालिबानियों के काबिज होने की सूरत में भारत के लिए गंभीर खतरा देखते हैं। आज की स्थिति में, उनका सुझाव है कि भारत सरकार अफगानिस्तान की चुनी हुई सरकार की हर तरह से मदद करे, अफगानी सेना को प्रशिक्षण, उपकरण वगैरह दे। आर्थिक मदद तो भारत दे ही रहा है। उनके अनुसार, भारत को डूरंड लाइन का मुद्दा भी उठाना चाहिए। कोई पश्तून डूरंड लाइन को सीमा रेखा नहीं मानता है।
पार्थसारथी दूरदृष्टि रखकर भारत सरकार को सलाह दे रहे हैं। पाकिस्तान, अफगानिस्तान का उन्होंने बारीकी से अध्ययन किया है। वे आज की भू राजनीति को कसौटी पर कसकर कह रहे हैं कि भारत को आज अफगानिस्तान की हर प्रकार की मदद करनी चाहिए। लेकिन भारत सरकार सुरक्षा, बाहरी और भीतरी दोनों, को लेकर कितनी सतही सोच रखने वाली रही है, वह बार-बार अनुभव में आया है। सावधान करते काबुल हमलों को हल्के में लेकर जरदारी के मुलम्मा चढ़े मंसूबों को न समझना अक्षम्य लापरवाही ही मानी VÉÉBMÉÒ*n
आंतरिक सुरक्षा पर मुख्यमंत्रियों का सम्मेलन
क्या सच में गंभीर है मनमोहन सरकार?
आंतरिक सुरक्षा पर मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में और जो हुआ सो तो हुआ ही, पर केन्द्रीय गृहमंत्री चिदम्बरम के भाषण में एक बात की पुष्टि जरूर हो गई कि नक्सलवादी–माओवादी गुटों को कई सामाजिक संगठनों का सहयोग मिल रहा है, जिसके चलते वामपंथी उग्रवाद गंभीर चुनौती बन गया है। इस संदर्भ में ध्यान एकदम से उन बिनायक सेन पर जाता है जिनपर वामपंथी उग्रवाद का सहयोग करने का आरोप लगा था और जो जेल काटकर बाहर आने पर फिर से सक्रिय हो चुके हैं। सेन के जमानत पर रिहा होने के बाद कई सेकुलर सामाजिक संगठन उनको 'निर्दोष डाक्टर' साबित करते हुए आगे आए थे और जगह–जगह सेन के भाषण कराए गए थे। इतना ही नहीं तो, उनके ही कथित दबाव पर, योजना आयोग की एक समिति में बिनायक को भी शामिल कर लिया गया। ध्यान दें, यह योजना आयोग उसी भारत सरकार के तहत है जिसके गृहमंत्री उक्त बयान देते हैं कि नक्सलियों को सामाजिक संगठनों का सहयोग मिल रहा है।
16 अप्रैल को नई दिल्ली में देश की आंतरिक सुरक्षा पर बुलाए गए मुख्यमंत्रियों के इस 5वें सम्मेलन में प्रधानमंत्री ने जिहादी आतंकवाद, मजहबी कट्टरता और नक्सली–माओवादी उग्रवाद को देश के लिए सबसे बड़ा खतरा गिनाते हुए समन्वित प्रयासों से इनसे लड़ने की जरूरत बताई। आतंक के खिलाफ लड़ाई को प्रमुखत: राज्यों के तंत्रों की जिम्मेदारी बताकर प्रधानमंत्री ने इसके लिए केन्द्र से संस्थागत साधन मुहैया कराने की बात की। प्रधानमंत्री भूल गए कि जिस आतंक से निपटने की जिम्मेदारी वे राज्यों की बता रहे हैं उन्हीं को विश्वास में लिए बिना राष्ट्रीय आतंक निरोधी केन्द्र (एन.सी.टी.सी.) का खाका तैयार करवा लिया गया। राज्यों का इस पर विरोध जताना स्वाभाविक था। प. बंगाल की ममता, तमिलनाडु की जयललिता, गुजरात के नरेन्द्र मोदी, छत्तीसगढ़ के रमन सिंह, ओडिशा के नवीन पटनायक ने आगे होकर एन.सी.टी.सी. को राज्यों के अधिकार क्षेत्र में दखल बताते हुए आम सहमति बनाने का मुद्दा उठाया ही हुआ है। दबाव इतना पड़ा है कि मनमोहन सरकार को आखिरकार आगामी 5 मई को इसी मुद्दे के लिए मुख्यमंत्रियों की बैठक तय करनी पड़ी। ज्यादातर मुख्यमंत्रियों ने केन्द्र के इस कदम को संघीय ढांचे के विरुद्ध बताया है। मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में कमोबेश हर मुख्यमंत्री ने इस बात पर जोर दिया कि आतंकवाद से लड़ने जैसे अहम मुद्दों पर राज्यों से सलाह करनी ही चाहिए। केन्द्र को एकतरफा फैसले लेने का कोई अधिकार नहीं है। जम्मू–कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने इस मंच का भी दुरुपयोग कर राज्य में सशस्त्र सेनाओं के विशेषाधिकार खत्म करने की बात रख दी। जबकि सैन्य अधिकारी, विशेषज्ञ खुद कई मर्तबा कह चुके हैं कि घाटी के हालात अभी ऐसे नहीं हैं कि विशेषाधिकार हटाए जाएं। हां, अलगाववादी हुर्रियती नेता जरूर ऐसी मांग उछालते हुए सेना पर पत्थर बरसवाते रहे हैं। कर्नाटक के सदानंद गौड़ा ने राज्य के पांच जिलों में तेजी से बढ़ते वामपंथी उग्रवाद से निपटने में केन्द्र से सहयोग देने की अपील की।
पर जब तक संसद हमले के फांसी की सजा पाए अपराधी अफजल और मुम्बई 26/11 के अपराधी कसाब को उनके किए की सजा देने में केन्द्र टालमटोल करता रहेगा तब तक आंतरिक सुरक्षा पर प्रयासों के प्रति उसकी ईमानदारी पर सवालिया निशान लगा ®ú½äþMÉÉ!n
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