बिंदु से विराट तक : आदि गुरु शंकराचार्य
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बिंदु से विराट तक : आदि गुरु शंकराचार्य

वैशाख शुक्ल पंचमी, वि.सं.2082, तद्नुसार 2 मई 2025 को आदि गुरु शंकराचार्य के जन्मोत्सव पर समर्पित

by डॉ. आनंद सिंह राणा
May 2, 2025, 10:13 am IST
in संस्कृति
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शुक्ल यजुर्वेद के अनुसार, “त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुष:पादोSस्येहाभवत्पुनः”

अर्थात् भक्तों के विश्वास को सुदृढ़ करने हेतु भगवान् अपने चतुर्थांश से अवतार ग्रहण करते हैं। शिव अंशावतार आदि गुरु, श्रीमज्जगदगुरु, धर्म चक्र प्रवर्तक, सनातन धर्म पुनरुद्धारक, आदिशंकराचार्य जी के अवतरण पर गोविंद भट्ट ने कहा कि “दुष्टाचार विनाशायः प्रादुर्भूतो महीतले, स एव शंकराचार्य साक्षात् केवल्य नायक:।”

पिताश्री शिवगुरु और माताश्री आर्याम्बा के यहाँ ऐतिहासिक दृष्टि से आदि शंकराचार्य का अवतरण केरल में कालटी ( काषल, कालड़ी) गांव में सन् 788 में हुआ तथा महापरिनिर्वाण केदारनाथ में 32 वर्ष की आयु में सन् 820 में हुआ। परंतु शंकराचार्यों की ऐतिहासिक परंपरा में आदि शंकराचार्य का अवतरण आज से लगभग 2510 वर्ष पूर्व युधिष्ठिर शक संवत् 2631 वैशाख शुक्ल पंचमी नंदन वर्ष, तद्नुसार ईसवी सन् पूर्व 507 को हुआ था और यही शिरोधार्य है।

षड् दर्शन में छठा ब्रह्म सूत्र है, वेदांत के 3 मूलाधार हैं – उपनिषद, भगवद्गीता और ब्रम्ह सूत्र, प्रस्थान त्रयी कहलाते हैं। उपनिषद – श्रुति प्रस्थान, भगवद्गीता – स्मृति प्रस्थान और ब्रम्ह सूत्र न्याय प्रस्थान हैं। बादरायण कृत ब्रह्म सूत्र पर आदिशंकराचार्य का शांकर भाष्य है।

शांकर वेदांत की ज्ञान परंपरा व्यवहारवादी दृष्टि और सार्वभौम स्वरूप ने भारतीय जनमानस में नूतन चेतना, उमंग, आत्मविश्वास व सद्गुणों की स्थापना का सद्प्रयास किया है। चारों वेदों की चार मुख्य महावाक्य क्रमशः प्रज्ञानं ब्रह्म, अहं ब्रह्मास्मि , तत्त्वमसि, अयमात्मा ब्रह्म का विवेचन किया है। जो नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त स्वभाव निरुपाधिक है वही आत्मा है।

मन और बुद्धि रूप में विभक्त अंतःकरण की अनेकों वृत्तियाँ हैं, जिन्हें प्रज्ञान कहा गया है-” प्रज्ञानस्य नामधेयानि भवन्ति ”
यह हृदय और मन की संज्ञप्ति रूप चैतन्य भाव है अर्थात् जिस वस्तु के स्वरूप का सम्यक ज्ञान होता है उसे संज्ञान कहते हैं।
प्रज्ञानं ब्रह्म में जो प्रज्ञान है वही ब्रह्म है ‘प्रज्ञाने प्रतिष्ठतम् – प्रज्ञानेत्रैलोक: प्रज्ञाने प्रतिष्ठतम्’ प्रज्ञान ही जगत की उत्पत्ति का कारण है, प्रज्ञानं ब्रह्म इस महावाक्य में प्रज्ञान और ब्रह्म का समानाधिकरण होने से दोनों का एकत्व सिद्ध होता है।

‘अहं ब्रह्मास्मि’ यह महावाक्य अहं पदार्थ का निरूपण करता है। परिपूर्ण परमात्मा इस जगत में ब्रह्म विद्या के अधिकारी मनुष्य देह में बुद्धि के साक्षी रूप में स्थित होकर प्रकाशित हो रहा है, वही अहं है। ब्रह्म विद्या के द्वारा मनुष्य हम स्वरूप हो जाएंगे ऐसा माना जाता है।

‘तत्त्वमसि ‘ यह महावाक्य है, उत्पत्ति के पूर्व प्रतीत होने वाला यह नामरुपात्मक जगत सजातीय, विजातीय और स्वगतभेद शून्य एकमात्र अद्वितीय सत ही था, वही सत पदार्थ वर्तमान काल में नामरुपात्मक प्रतीत होता है। नाम रूप का त्याग कर देने पर एकमात्र सद्वस्तु ही अवशिष्ट रहती है। देह और इंद्रियों से अतीत स्थूल सूक्ष्म और कारण शरीर से भिन्न साक्षी रूप में भाषित होने वाली वस्तु है, वह तत्त्वमसि है। इस महावाक्य में तीन पद हैं- तत्, त्वम् एवं असि, तत् पदवाच्य श्रवण – मनन दोनों की एकता भावोद्गम है। अतः तत् और त्वम् दोनों की एकता का साक्षात्कार ही मुक्ति का कारण है।

क्या है आत्मा

‘अयमात्मा ब्रह्म’ अयं, इस शब्द से साक्षी आत्मा का स्व प्रकाश होने से अपरोक्षता मानी गई है और अहंकार से लेकर देह पर्यंत संघात का जो साक्षी है वही आत्मा है।

आदि शंकराचार्य की नवोन्मेष शालिनी प्रज्ञा से, “तत्वमसि” “अहं ब्रम्हास्मि” “प्रज्ञानं ब्रह्म” “अयमात्मा ब्रम्ह “एक ब्रम्ह द्वितीय नास्ति” के आलोक में अद्वैत वेदांत की स्थापना विश्व के सभी धर्मों का मूलाधार है।

मैं शिव हूँ, चेतना का अविभाज्य सार

शास्त्रार्थ में अपराजेय रहे आदि शंकराचार्य ने कहा कि मैं क्या हूँ? “मैं न तो पृथ्वी हूँ, ना जल, ना अग्नि, ना वायु, ना आकाश और ना ही कोई पदार्थ, मैं इन्द्रिय भी नहीं हूँ, और ना ही मन,.. मैं शिव हूँ, चेतना का अविभाज्य सार”..।

ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या

वस्तुतः ज्ञान के दो प्रकार हैं – एक परा विद्या – सगुण, एक अपरा विद्या – निर्गुण, ब्रह्म मूलतः, तत्वत: एक है, जो अंतर दिखता है वह अज्ञानतावश है। ब्रम्ह सत्य है जगत मिथ्या है त्रुटिवश लोग गलत अर्थ लगाते हैं, यहां जगत मिथ्या का अर्थ है, जो दिखता है, वह अस्तित्व में तो है, पर सत्य नहीं है शाश्वत नहीं है।

 

Topics: आदि गुरुआद्य शंकराचार्य जयंतीआदि शंकराचार्य की जयंतीशुक्ल यजुर्वेदब्रह्मशंकराचार्य’ ‘आत्मा
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