किसी भी आंदोलन का अंजाम कई कारकों या संयोगों पर निर्भर करता है। ये कारक जब एक साथ सक्रिय हो जाएं, तो अप्रत्याशित परिणामों की भूमिका गढ़ देते हैं। मौजूदा संकेतों के आधार पर बात करें, तो बलूचों का आंदोलन इसी दौर से गुजर रहा है। अफगानिस्तान सीमा से लेकर खैबर पख्तूनख्वा और सिंध, सब अलग-अलग कारणों से सुलग रहे हैं। सबके अपने-अपने दर्द हैं और पाकिस्तान के खिलाफ तीनों इलाकों में सक्रिय संगठन एक साथ सीधी रेखा में खड़े दिखाई दे रहे हैं। यह संयोग सारे समीकरणों को सिर के बल खड़ा कर देने वाला है और ये पाकिस्तान के लिए आकार ले रही बड़ी चुनौती के संकेत हैं।
मार्च का दर्द, ताबड़तोड़ हमले
बलूचिस्तान में ग्वादर से लेकर समूचे चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपेक) पर चीनी नागरिकों और चीनी निवेश वाली, परियोजनाओं पर हमले कोई नई बात नहीं है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान ग्वादर के नामी पांच सितारा होटल और वीआईपी के ठहरने की पसंदीदा जगह ‘पर्ल कॉन्टिनेन्टल’ से लेकर डॉक यार्ड और यहां बनी सरकारी इमारतों को कई बार निशाना बनाया गया।
हमलों को लेकर खास तौर पर मार्च का महीना बड़ा अहम होता है। 1948 में इसी महीने की 27 तारीख को पाकिस्तान ने कलात पर कब्जा कर दुनिया के नक्शे से एक आजाद देश का नाम मिटा दिया था और तभी से बलूचिस्तान को आजाद कराने का आंदोलन चल रहा है। इसीलिए मार्च का दूसरा हिस्सा संवेदनशील होता है।
इस 20 मार्च को कुछ हथियारबंद लोगों ने ग्वादर बंदरगाह प्राधिकरण के कार्यालय पर हमला किया। इन आत्मघाती लड़ाकों ने विस्फोटक भरी गाड़ी को उड़ा दिया। इस फिदायीन हमले के तुरंत बाद कुछ लड़ाकों ने सुरक्षाबलों पर हथगोलों से धावा बोल दिया। जिस इमारत को निशाना बनाया गया, उसमें खुफिया एजेंसी समेत कई सरकारी विभागों के दफ्तर थे। सुरक्षाबलों ने हमलावरों को मार गिराया। दो चरणों वाले इस हमले का वैसा नतीजा नहीं निकला, जैसा बलूचों ने सोचा होगा। दूसरा हमला 25 मार्च को तुरबत के नौसैनिक अड्डे पर हुआ। हमलावर नौसैना अड्डे में घुसने की कोशिश कर रहे थे। इसमें एक सैनिक मारा गया, जबकि सुरक्षाबलों की कार्रवाई में पांचों हमलावर मारे गए। बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी (बीएलए) ने इन हमलों की जिम्मेदारी ली है। इन दोनों हमलों में एक बात साफ दिखती है कि बीएलए तैयारी पाकिस्तान और चीन को बड़ा नुकसान पहुंचाने की थी, लेकिन ऐसा हो न सका।
इसके अतिरिक्त, 26 मार्च को नुश्की इलाके में काजियाबाद स्थित आईएसआई के दफ्तर पर रॉकेट से हमला किया गया। इसमें कई लोगों के हताहत होने की खबर है। 27 मार्च की शाम बलूच लड़ाकों ने दुक्की कोयला खदान में तैनात सुरक्षाकर्मियों पर धावा बोला। दोनों ओर से गोलीबारी हो ही रही थी कि फ्रंटियर कॉर्प्स के जवान भी वहां पहुंच गए। इन हमलों की जिम्मेदारी भी बीएलए ने ली है। बीएलए के प्रवक्ता आजाद बलूच ने कहा कि दुक्की के संघर्ष में फ्रंटियर कॉर्प्स का एक जवान मारा गया और कई घायल हो गए।
चीन के साथ भी अमेरिका वाला ‘खेल’!
पश्तून तहफ्फुज मूवमेंट खैबर पख्तूनख्वा और बलूचिस्तान में सक्रिय एक सामाजिक संगठन है, जो पख्तूनों के मानवाधिकारों की रक्षा के लिए काम करता है। इसके सदस्य फजल-उर-रहमान आफरीदी ने सनसनीखेज दावा किया है कि खैबर पख्तूनख्वा में हाल ही में हुए एक हमले में जो चीनी इंजीनियर मारे गए, उसके पीछे पाकिस्तान का हाथ हो सकता है। आफरीदी ने कहा, ‘‘इस तरह की घटनाएं तब तक नहीं रुकेंगी, जब तक पाकिस्तान को उसके किए के लिए जिम्मेदार न ठहराया जाए। इस तरह की घटनाओं को पाकिस्तान के आतंकी शिविरों में प्रशिक्षित आतंकियों ने अंजाम दिया है और इनके पीछे पाकिस्तानी सेना का हाथ है। पाकिस्तान अब चीन के साथ भी वही कर रहा है, जो कभी उसने आतंकवाद के खिलाफ तथाकथित लड़ाई के नाम पर अमेरिका के साथ किया था। खैबर पख्तूनख्वा में कई आतंकी शिविर चलाए जा रहे हैं और यहां से निकले आतंकी पश्तूनों और बलूचों पर हमले कर रहे हैं।’’ आफरीदी ने इस पर भी सवाल उठाया कि आखिर क्यों पश्तूनों और बलूचों के इलाकों में हमले हो रहे हैं और पंजाब इस तरह की घटनाओं से सुरक्षित है?
एक समय था, जब पाकिस्तान ने आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में अमेरिका का जमकर इस्तेमाल किया। एक ओर तो वह आतंकियों को सेना और आईएसआई के जरिये हर तरह की मदद देता रहा, दूसरी ओर अमेरिका के साथ आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में मदद के बहाने मोटी रकम ऐंठता रहा। बलूचिस्तान नेशनल मूवमेंट के वरिष्ठ संयुक्त सचिव कमाल बलोच कहते हैं, ‘‘इसमें कोई शक नहीं कि दहशतगर्दी को सियासी मकसद के लिए औजार की तरह इस्तेमाल करना पाकिस्तान की फितरत रही है। ऐबटाबाद में कुख्यात आतंकी ओसामा बिन लादेन का सुरक्षित घर में पाया जाना एक ऐसी घटना है, जिसने किसी तरह के शक की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी कि उसने अमेरिका को धोखे में रखा। लेकिन जहां तक चीन के साथ वही सब करने की बात है, मुझे नहीं लगता कि ऐसा होगा। इसके बड़े नुकसान हो सकते हैं और मेरे ख्याल में पाकिस्तान के पास आज के दौर में ऐसा करने की कोई वजह नहीं है।’’
खैबर में बलूच पदचिह्न
अब बात खैबर पख्तूनख्वा के शांगला जिले की, जो इन दिनों चर्चा में है। ग्वादर की तरह 26 मार्च को खैबर पख्तूनख्वा के शांगला में पाकिस्तान को चीन से जोड़ने वाले हाईवे पर फिदायीन हमला हुआ। उस समय चीनी इंजीनियर निर्माणाधीन दासु हाइड्रोपावर परियोजना स्थल जा रहे थे। स्थानीय पुलिस के मुताबिक इन्हें ले जा रही बस को सामने से विस्फोटकों से भरी एक कार ने टक्कर मार दी, जिसमें पांच चीनी नागरिक और बस चालक की मौत हो गई। इससे बौखलाए चीन ने सुरक्षा व्यवस्था पर सख्त नाराजगी जताते हुए 9,860 मेगावाट क्षमता वाली तीन महत्वपूर्ण परियोजनाओं दासू बांध, डायमर-बाशा बांध और तबरेला विस्तार पर फिलहाल काम रोक दिया है। हमले के बाद कई चीनी कंपनियों ने अपने कर्मचारियों की संख्या कम कर दी है। पाकिस्तान ने चीन से यह वादा किया था कि वह उसके नागरिकों की पूरी सुरक्षा करेगा। चीनी नागरिकों की सुरक्षा के लिए पाकिस्तान ने 15,000 सैनिकों की तैनाती भी की। इसके बावजूद बलूच लड़ाकों के हमलों में बीते दो वर्ष में 30 चीनी नागरिक मारे जा चुके हैं।
उधर, खैबर पख्तूनख्वा के आतंकवाद विरोधी विभाग ने 12 लोगों को गिरफ्तार किया है। विभाग ने हमले के लिए तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) को जिम्मेदार ठहराया है। उसने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि गिरफ्तार किए गए लोगों में हमले की साजिश रचने वाले और उनके मददगार शामिल हैं। इनमें दो बलूचिस्तान से हैं। सभी टीटीपी से संबद्ध हैं। शांगला हमले में दो बलूचों की गिरफ्तारी महत्वपूर्ण है। अगर आतंकवाद विरोधी विभाग अपने रुख पर कायम रहा, तो यह पाकिस्तान में पूरे समीकरण को सिर के बल खड़ा करने वाला मामला है।
खैबर पख्तूनख्वा को टीटीपी का गढ़ माना जाता है। इस इलाके में वह ऐसे हमले करता रहा है। पाकिस्तान में आम चुनाव से ठीक पहले 5 फरवरी को टीटीपी ने डेरा इस्माइल जिले में एक थाने पर हमला किया था, जिसमें 10 पुलिसवाले मारे गए थे। इससे पहले उसने पिछले साल दिसंबर में भी दाराबन तहसील में एक थाने के बाहर विस्फोटकों से भरी गाड़ी को उड़ा दिया था, जिसमें 23 पुलिसवाले मारे गए थे। यह पहला मौका नहीं है, जब खैबर पख्तूनख्वा में चीनी नागरिकों को निशाना बनाया गया।
2021 में भी खैबर में ऐसे ही एक हमले में नौ चीनी इंजीनियर मारे गए थे। लेकिन इस बार एक अंतर है। खबर लिखे जाने तक किसी संगठन शांगला में हुए हमले की जिम्मेदारी ने नहीं ली थी। दूसरा, यह हमला बलूचिस्तान में सक्रिय सशस्त्र बलूच संगठनों या खैबर पख्तूनख्वा में सक्रिय संगठनों के चरित्र से मेल नहीं खाता। ग्वादर या तुरबत के नौसैनिक अड्डे पर किया गया हमला बेशक लक्ष्य को पाने के नजरिए से नाकाम रहा हो, लेकिन बीएलए ने तत्काल इसकी जिम्मेदारी ली। वैसे ही, खैबर पख्तूनख्वा में सुरक्षाबलों पर हमले के साथ ही टीटीपी इनकी जिम्मेदारी लेता रहा है। फिर शांगला के मामले में कोई सामने क्यों नहीं आ रहा?
बदलते समीकरण
बहरहाल, आतंकवाद विरोधी विभाग के उस दावे पर लौटें, जिसमें कहा गया है कि शांगला हमले में गिरफ्तार लोगों में दो बलूच हैं। इस हमले में बलूचों के शामिल होने के बारे में दो ही स्थितियां हो सकती हैं। पहली, हमले में वाकई बलूच शामिल हों और उन्होंने पख्तूनों के साथ मिलकर खैबर पख्तूनख्वा में चीनी इंजीनियरों को निशाना बनाया हो और दूसरी, इस हमले में उनका हाथ न हो। चूंकि कुछ दिन पहले ही बलूचिस्तान में चीनी नागरिकों और उनके निवेश वाली परियोजनाओं को निशाना बनाया गया था, इसलिए संदेह में दो बलूचों को भी गिरफ्तार किया गया हो। दोनों ही स्थितियां आने वाले समय में बड़े खून-खराबे की ओर संकेत करती हैं।
कमाल बलोच कहते हैं, ‘‘इसमें कोई शक नहीं कि बलूचों के संघर्ष में और भी कौमें शरीक हो रही हैं। चाहे वे पख्तून हों या सिंधी। कहते हैं कि दर्द का रिश्ता बड़ा गहरा होता है और इन दोनों कौमों को भी पाकिस्तानी हुक्मरानों के हाथों तशद्दुद (हिंसा) का शिकार होना पड़ा है। जब दहशतगर्द एक हो और उसके शिकार कई, तो इन शिकारों का हमदर्द हो जाना लाजिमी होता है।’’ इस नजरिये से 14 मार्च को सिंध के ‘शाही रोड’ क्षेत्र के मीरपुर खास में हुआ हमला महत्वपूर्ण हो जाता है। यहां गैस पाइपलाइन को विस्फोट से उड़ा दिया गया था, जिसके कारण बलूचिस्तान, कराची समेत पाकिस्तान के कई इलाकों में गैस आपूर्ति प्रभावित हुई थी। बीएलए ने इस हमले की जिम्मेदारी लेते हुए कहा था कि बलूच बलूचिस्तान के प्राकृतिक संसाधनों की लूट-खसोट के खिलाफ हैं।
खैबर पख्तूनख्वा और सिंध में बलूच आंदोलन का अपने लिए जगह बना लेना एक बड़े बदलाव का संकेत है। यह पाकिस्तान के लिए कितना खतरनाक हो सकता है, इसका अनुमान दो बातों से लगाया जा सकता है। एक, पिछले दो-तीन वर्ष के दौरान बलूचिस्तान की आजादी के लिए सशस्त्र छापामार संघर्ष कर रहे बलूच लड़ाकों की कार्यशैली में बड़ा बदलाव यह आया है कि आम बलूचों पर जुल्म ढाने वाली पाकिस्तानी सेना, फ्रंटियर कॉर्प्स और उनके पिट्ठू ‘डेथ स्क्वॉड’ के लोगों को वे चुन-चुनकर मार रहे हैं।
बलूचिस्तान नेशनल मूूवमेंट के सूचना सचिव काजीदाद मोहम्मद रेहान कहते हैं, ‘‘इसमें शक नहीं कि छापामार तरीके से आजादी की लड़ाई लड़े रहे लोगों ने आजादी के चाहने वाले आम बलूचों पर जुल्म करने वालों को खासतौर पर निशाना बनाया है। यह उनके हौसले, भरोसे और आजादी की जंग में आम लोगों की हिस्सेदारी को बनाए रखने की गंभीरता को बताता है।’’ इस तरह की रणनीति से जहां आम लोगों का हौसला मजबूत होता है, वहीं हिंसा के बूते उनके हौसले को तोड़ने की कोशिश कर रहे सरकारी सुरक्षा तंत्र में निराशा का भाव भरता है।
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि छापामार लड़ाई लड़ रहे गुटों ने जिस तरह पाकिस्तान के पूरे सुरक्षा तंत्र को घुटनों पर ला देने की क्षमता विकसित कर ली है, अगर उन्हें खैबर पख्तूनख्वा और सिंध में सक्रिय सशस्त्र गुटों का भी साथ मिल गया, जिसके संकेत मिल भी रहे हैं, तो पाकिस्तान के लिए कितनी बड़ी मुसीबत खड़ी होने वाली है, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।
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सांच को आंच नहीं
सशस्त्र बलूचों ने कैसी क्षमता हासिल कर ली है, इसका पता इसी वर्ष जनवरी में चला, जब बीएलए के मजीद ब्रिगेड के फिदायीन दस्ते ने फ्रंटियर कॉर्प्स के मुख्यालय पर हमला कर न केवल दर्जनभर से अधिक सैनिकों को मार डाला, बल्कि पूरे माच शहर को 24 घंटे से भी अधिक समय अपने कब्जे में रखा। बलूचों पर तरह-तरह के अत्याचारों के लिए कुख्यात फ्रंटियर कार्प्स के सैनिक भागकर मुख्यालय में जाकर दुबक गए थे। बीएलए ने इस आपरेशन को दारा-ए-बोलन नाम दिया था। बीएलए के प्रवक्ता जीयंद बलोच ने तब खुलकर कहा था,
‘‘पाकिस्तानी फौज गलत दावा कर रही है कि उसने बीएलए को हमले को नाकाम कर दिया है और पूरे माच शहर को सुरक्षित कर लिया गया है। पूरा शहर हमारे कब्जे में है। हमारे लड़ाके शहर की सड़कों पर गश्त कर रहे हैं और हमें आम लोगों से पूरा समर्थन मिल रहा है। हम पाकिस्तान समेत विदेशी मीडिया से पेशकश करते हैं कि वे यहां आकर अपनी आंखों से सच को देखें। मीडियाकर्मियों को पूरी सुरक्षा की गारंटी हमारी है।’’ उस हमले के दौरान मजीद ब्रिगेड के लड़ाकों ने मुख्य सड़कों पर बारूदी सुरंगें बिछाकर शहर के लोगों से बाहर नहीं निकलने की अपील की थी। बाद में मजीद ब्रिगेड ने मुख्यालय में घुसकर चुन-चुन कर सैनिकों को मारा। इस घटना के संदर्भ में अगर खैबर पख्तूनख्वा और सिंध में बलूचों के पदचिह्न पाए जाने की समीक्षा करें, तो निश्चित ही यह एक बड़े बदलाव की ओर इशारा करता है।
दुनिया के लिए नासूर पाकिस्तान
कमाल बलोच मानते हैं कि जब से चीन ‘सीपेक’ के जरिये बलूचिस्तान के प्राकृतिक संसाधनों को लूटने की साजिश में शामिल हुआ है, तब से यहां के समीकरण बदल गए हैं। वे कहते हैं, ‘‘कायदे की बात तो यह है कि चीन को बलूचिस्तान छोड़कर चले जाना चाहिए। लेकिन अगर वह ऐसा नहीं करता, तो न तो बलूच चैन से बैठेंगे, न उसे चैन से बैठने देंगे। इस इलाके में चीन अपनी भागीदारी और निवेश जितना बढ़ाएगा, उसके लोगों पर हमले उतने ही बढ़ेंगे।’’ साथ ही, वह यह कहते हैं कि सिर्फ चीन के चले जाने से कुछ नहीं होगा। असल बात है पाकिस्तान जैसे नासूर का इलाज। जब तक इस नासूर का इलाज नहीं होगा, दुनिया में अमन-चैन मुमकिन नहीं है। दहशतगर्दी इनकी फितरत है। कभी ये मजहब के नाम पर दहशत फैलाते हैं, कभी बदले के नाम पर, तो कभी किसी और बहाने से। दुनिया के किसी भी कोने में जब भी कोई आतंकी हरकत होती है, तो शायद ही ऐसा कोई मामला होता है जिसका पाकिस्तान से कोई संबंध न हो।
इसमें शक नहीं कि बलूचिस्तान की आजादी की लड़ाई एक नए दौर में प्रवेश कर चुकी है। इसके नतीजे दूरगामी होंगे। लेकिन कमाल बलोच का मानना है कि बलूचों की समस्या उस पाकिस्तान से है, जो पूरी दुनिया में शांति के लिए खतरा है। इसलिए यह जिम्मेदारी सभी की है। वे कहते हैं, ‘‘खास तौर पर इस खित्ते में तब तक अमन नहीं हो सकता, जब तक पाकिस्तान की मुश्कें नहीं कसी जातीं। इसमें हमसाया मुल्कों को हमारी मदद करनी चाहिए।’’
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