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दिल तो बच्चा है जी…

by
Oct 16, 2017, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 16 Oct 2017 16:03:35


राहुल शिवहरे मिसाल हैं उन युवाओं के लिए जो जीवन की सार्थकता की तलाश में हैं, उनके लिए जो अपनी क्षमता-सामर्थ्य से समाज के लिए कुछ करना चाहते हैं। उत्तर प्रदेश के मथुरा और ब्रज मंडल  में उनके ‘स्माइल रिवोल्यूशन’ने 250 से ज्यादा बच्चों के जीवन को निखारा है और उनके बचपन को मायने दिए हैं

नाम : राहुल शिवहरे (25 वर्ष)
कार्य : इन्फोसिस में इंजीनियर
प्रेरणा : ‘पढ़ेगा इंडिया, बढ़ेगा इंडिया’
अविस्मरणीय क्षण : जब पिता ने शाबाशी दी
250  से ज्यादा बच्चों की शिक्षा 2000  से ज्यादा पेड़ लगाए

 

निष्ठा जैन

पहली नजर में 25 वर्षीय के राहुल को देखकर लगता ही नहीं कि उन्होंने अपने शहर मथुरा में 250 बच्चों के जीवन को किलकारियों से गुंजायमान किया है। दुबली काया और भोली सूरत वाले राहुल शिवहरे ने अपनी गैर-सरकारी संस्था ‘स्माइल रिवोल्यूशन’ के जरिए पैसे से गरीब पर आसमान छूने के इरादे रखने वाले गरीब, मजदूर और बेसहारा बच्चों के जीवन में एक क्रांति का सूत्रपात किया है।
इन्फोसिस, गुरुग्राम में वरिष्ठ सिस्टम इंजीनियर राहुल के इस ‘रिवोल्यूशन’ की बुनियाद कब, कैसे और कहां पड़ी? इस बाबत पूछने पर संकोची राहुल ने बताया, ‘‘बात तब की है जब मैंने 2011 में जीएलए इंस्टीट्यूट, मथुरा में बी.टेक. (कम्प्यूटर साइंस) में दाखिला लिया। कॉलेज में उन दिनों नई इमारतें बन रही थीं, सो कैंपस में मजदूरों के बच्चों को सारा दिन मिट्टी में खेलते देखता था। एक दिन लगा कि अगर ये बच्चे पढ़-लिख जाएं तो आगे मजदूरी न करके देश के लिए कुछ और बेहतर कर सकते हैं।’’ उनके कानों में उन दिनों एक नारा बराबर गूंजा करता था-‘पढ़ेगा इंडिया तभी तो बढ़ेगा इंडिया’। और नारे ने ठीक जगह पर अपना असर दिखाया। राहुल बताते हैं कि उनके जीवन पर उनके स्वतंत्रता सेनानी रहे दादाजी का बहुत प्रभाव है। वे बताते हैं, ‘‘मेरे दादाजी हमेशा मेरा हौसला बढ़ाते थे।’’ और कॉलेज के ही कुछ साथियों के साथ राहुल ने आखिरकार 2012 में मजदूरों के चंद बच्चों को इकट्ठा किया और उनके माता-पिता की रजामंदी से मां सरस्वती की प्रार्थना के साथ कॉलेज के एक कोने में विद्यादान का काम शुरू किया। उन्होंने बताया, ‘‘हम तो खुद ही अभी पढ़-लिख रहे थे, बच्चों को कॉपी-किताब दिलाने के लिए हमारे पास पैसे नहीं थे। सो, साथियों ने मिलकर चंदा किया। कॉलेज के बाद मेरा और दो-तीन साथियों का शाम 6 बजे का वक्त बच्चों को पढ़ाने में लगने लगा। धीरे-धीरे बच्चों में बदलाव आता दिखा तो कॉलेज के आस-पास रहने वाले गरीब-गुरबों ने भी उनसे कहा कि उनके बच्चों को भी पढ़ाएं। दायरा बढ़ता गया, और साथ देने वाले साथी बढ़ते गए।’’ राहुल की लगन और तपस्या से आकर्षित होकर जीएलए इंस्टीट्यूट ने अपना सभागार उनके इस अभियान के लिए उपलब्ध करा दिया। राहुल और उनके दोस्तों ने तय किया कि क्यों न बाकायदा एक संस्था बनाकर काम का दायरा बढ़ाया जाए। इस तरह मई 2013 में ‘स्माइल रिवोल्यूशन’ की नींव पड़ी। काम अब कॉलेज तक सीमित न रहकर मथुरा शहर तक फैल गया। उन्होंने मथुरा जंक्शन के पास एक बस्ती में जाना शुरू किया। वहां राहुल की टीम पढ़ाने और बच्चों के साथ खेलकूद के जरिए एक सकारात्मक बदलाव लाने में जुट गई—अनुज, प्रिया, राहुल, सौरभ, हिमांशु जैसे मजबूत-कर्मठ साथी उसका हाथ बंटाने लगे और आज भी संस्था का सारा कामकाज संभाले हुए हैं। इतना बड़ा काम खड़ा करने वाले राहुल की सादगी देखिए कि घर में उसके माता-पिता तक को लंबे समय तक यह पता नहीं चला कि उनका सपूत किस काम में जुटा है। उन्हें तो वह कॉलेज जाता-आता ही मालूम देता था। वह तो एक दिन राहुल के पिता के दोस्त ने घर में आकर जब राहुल के कामों की बधाई दी तब जाकर पिता को पता चला कि बेटा किस ‘रिवोल्यूशन’ में जुटा है। आज सृजन नाम की संस्था भी उन्हें उनके सत्कार्य में सहयोग दे रही है। राहुल एक मजेदार किस्सा सुनाते हैं, ‘‘उस दिन हम लोग मथुरा जंक्शन के पास खुले में बच्चों को पढ़ा रहे थे। तभी कुछ लोग आए और हमें पढ़ाते देखने लगे। बाद में वे हमसे बोले, ‘हम अक्षयपात्र से हैं। क्या हम आपके काम में किसी तरह मदद दे सकते हैं।’ अक्षयपात्र वह संस्था है जो स्कूली बच्चों को मिड डे मील योजना के तहत भोजन पहुंचाती है। हमने फौरन कहा, आप इन बच्चों के भोजन की व्यवस्था कर दें तो बड़ा अच्छा हो। और व्यवस्था हो गई। स्टेशन के पास अक्षयपात्र की ओर से बच्चों को नियमित खाना दिया जाने लगा।’’
ऐसे एक नहीं, मथुरा के कितने ही सेवाभावी लोग संस्था के नेक काम में तन-मन-धन से साथ देने को आगे आए हैं। राहुल के इस अभियान में 2015 में एक मोड़ आया जब उनकी इंजीनियरिंग पूरी हुई और उसे नौकरी के लिए गुरुग्राम जाना था। लेकिन जब ठान लिया तो ठान ही लिया। गुरुग्राम में इन्फोसिस में काम करते हुए भी हर 15 दिन में राहुल मथुरा जाकर छुट्टी के दो दिन अपनी संस्था के कामों और बच्चों की किलकारियों के बीच बिताते हैं। साल में एक दिन वे सब बच्चों को किसी ऐतिहासिक जगह घुमाने ले जाते हैं। काम का दायरा इतना बढ़ गया है कि करीब 250 बच्चों को तो वे अपनी संस्था के माध्यम से पढ़ा-लिखा रहे ही हैं, बल्कि शहर के जितने भी अनाथालय, सामाजिक संस्थाएं, बाल आश्रम हैं, वे सब राहुल के काम को सराहते हुए उन्हें गरीब बच्चों के बारे में और उनकी मदद के बारे में बताते रहते हैं। अपनी कमाई का 30 प्रतिशत हिस्सा इन बच्चों पर खर्च करने वाले राहुल को उनकी कंपनी ने पुणे या बेंगलूरू जाकर और बड़ा पद संभालने को कहा, पर राहुल ने छोटे पद पर ही रहते हुए खुद को मथुरा से दूर नहीं होने दिया है।
हैरानी होती है राहुल के ऐसे इरादे को देखकर, खासकर ऐसे दौर में जब ज्यादातर युवा बस चमक-दमक की जिंदगी और रुतबे-पैसे के आगे सब फिजूल समझते हैं। हमारी यह हैरानी भांपकर राहुल हंसते हुए कहते हैं, ‘‘क्या करूं, दिल तो बच्चा है जी।’’     ल्ल 

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