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पश्चिम बंगाल में ममता सरकार तुष्टीकरण की राजनीति कर रही है। कालियाचक, धूलागढ़ और हावड़ा के गुनहगार साफ बच निकलते हैं, लेकिन दार्जिलिंग में हक की आवाज उठाने वाले गोली खाते हैं
जिष्णु बसु
गत 7 मई को तृणमूल कांग्रेस ने दार्जिलिंग में एक रैली की थी। इसमें तृणमूल सांसद और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक बनर्जी भी उपस्थित थे। रैली में तृणमूल मंत्री इंद्रनील सेन ने कहा कि वे अपने साथ ‘6 फुट लंबे 32 ताबूत और रस्सी’ लाए हैं। 14 मई को नगरपालिका चुनाव के बाद गुरूंग, गिरि और गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (जीजेएम) के सभी नेताओं को रस्सी से बांध कर दूसरे जिलों में भेजा जाएगा। इस बयान से पहाड़ और कोलकाता के लोगों को बहुत निराशा हुई थी। सत्तापक्ष द्वारा विपक्ष के नेताओं के विरुद्ध इस तरह के शब्दों के प्रयोग को क्या अच्छा माना जाएगा?
इसी तरह, 3 जनवरी, 2016 को कालियाचक (मालदा) में पुलिस थाने को मुस्लिम कट्टरपंथियों ने आग के हवाले कर दिया। जिहादियों ने 10 साल पुरानी फाइलें जला दीं। पुलिस की जीप को भी आग में झोंक दिया गया, लेकिन ममता बनर्जी ने सेना या विशेष बल को नहीं बुलाया। उलटे अपराधियों को सुरक्षित निकलने का रास्ता दिया गया।
13-14 दिसंबर, 2016 को जिहादियों ने पश्चिम बंगाल के हावड़ा स्थित धूलागढ़ में घरों और दुकानों पर हमला कर लूटपाट की, फिर उन्हें आग के हवाले कर दिया। हिंसा को नियंत्रित करने में पुलिस पूरी तरह नाकाम रही। सरकार ने तो धूलागढ़ में किसी भी तरह के सांप्रदायिक दंगे की घटना से ही इनकार किया।
कहना न होगा कि अभी तक ‘सहिष्णु’ रही ममता सरकार दार्जिलिंग की पहाड़ियों के लिए ‘असहिष्णु’ बन गई। 2 मई को ममता सरकार ने राज्य के सभी स्कूलों में कक्षा 1 से 10 तक ‘बांग्ला भाषा अनिवार्य’ बनाने की घोषणा की। 4 मई को पहाड़ियों में जहां लोग बांग्ला नहीं बोलते, वहां इसका विरोध हुआ और 5 जून को मुख्यमंत्री को मिरिक में काले झंडे दिखाए गए। 8 जून को ममता ने कहा कि जब तक हालात सामान्य नहीं होंगे, वह दार्जिलिंग से नहीं जाएंगी और उसी दिन जीजेएम समर्थकों की पुलिस के साथ झड़प हुई। तब ममता ने दार्जिलिंग में सेना तैनाती की मांग की और अगले ही दिन आधी रात को दार्जिलिंग से निकल गर्इं। 17 जून को गोलीबारी हुई, जिसमें जीजेएम के तीन प्रदर्शनकारियों की मौत हो गई। लेकिन ममता बनर्जी को कोई फर्क नहीं पड़ा और वह 19 जून को नीदरलैंड्स रवाना हो गर्इं।
दार्जिलिंग के मौजूदा हालात को समझने के लिए हमें थोड़ा पीछे जाना होगा। सत्ता में आने के बाद 18 जुलाई, 2011 को मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने तत्कालीन गृहमंत्री पी. चिदंबरम की मौजूदगी में एक त्रिपक्षीय समझौता किया था। गोरखालैंड क्षेत्रीय प्रशासन (जीटीए) मुद्दे पर हुए इस समझौते पर गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (जीजेएम) के महासचिव रोशन गिरि और ममता बनर्जी ने हस्ताक्षर किए थे। एसोसिएशन के ज्ञापन के मुताबिक, जीजेएम कुछ समय पहले से दार्जिलिंग जिले के पहाड़ी इलाकों, सिलीगुड़ी तेराई और डूअर्स (यहां पर क्षेत्र के रूप में संदर्भित) के कुछ इलाकों के लिए अलग राज्य ‘गोरखालैंड’ की मांग कर रहा था। जीजेएम अलग राज्य की मांग से पीछे नहीं हटा तो मंत्रिस्तरीय और सरकारी स्तर पर कई दौर की त्रिपक्षीय बैठकों के बाद एक स्वायत्त निकाय की स्थापना पर सहमति बनी। कहा गया कि निकाय प्रशासनिक, वित्तीय और कार्यकारी शक्तियों से लैस होगा जो क्षेत्र का विकास करेगा और शांति भी बहाल करेगा।
दरअसल, ममता और उनकी पार्टी शुरू से ही दार्जिलिंग मामले में ‘बांटो और शासन करो’ के सिद्धांत पर काम कर रही है। दार्जिलिंग में पहाड़ी जनजातियों के लिए स्वायत्तता की मांग करने वाले दार्जिलिंग गोरखा हिल काउंसिल (अब जीटीए) को कमजोर करने के लिए ममता सरकार ने 2 सितंबर, 2012 को लेपचा समुदाय के लिए लेपचा विकास बोर्ड बना दिया। इसकी दूसरी वर्षगांठ पर लेपचा जनजातीय संघ ने ममता को सम्मानित किया था। 3 सितंबर, 2013 को ममता ने अपने फेसबुक पेज पर लिखा, ‘आज, मैं कालिम्पोंग में लेपचा के भाइयों और बहनों के निमंत्रण पर हूं, जिन्होंने मुझे ‘किंग्सूम दारमित’ यानी ‘समृद्धि की देवी’ की उपाधि देने का फैसला किया है। मैं ईमानदारी से आभार व्यक्त करती हूं और इसके लिए धन्यवाद देती हूं।’ इसके बाद नव ‘समृद्धि की देवी’ ने तुरंत घोषणा की कि वह जीटीए में जीजेएम के आंदोलन को समाप्त कर देंगी।
लेकिन लेपचा विकास बोर्ड के गठन ने दूसरों के लिए भी रास्ता खोल दिया। दिसंबर 2013 में भूटिया समुदाय ने बोर्ड और स्थानीय पहाड़ी जनजाति ने लिम्बू आदिवासी विकास परिषद की मांग उठाई। उधर, मिरिक में भी तृणमूल ने सांप्रदायिक कार्ड खेला और स्थानीय जनजातीय समुदायों के खिलाफ हिंदी भाषी मुस्लिम समुदाय को खड़ा किया। इस तरह, तृणमूल ने मिरिक अधिसूचित क्षेत्र प्राधिकरण चुनाव में ‘बांटो और शासन करो’ की नीति को सफलतापूर्वक लागू किया।
घर-घर अभियान के दौरान भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने 25 अप्रैल, 2017 को नक्सलबाड़ी क्षेत्र के दलित युगल गीता और राजू मेहली के घर भोजन किया था। तृणमूल के गुंडों ने कुछ दिन बाद ही उस दंपत्ती को अगवा कर अज्ञात जगह पर भेज दिया। इधर, 1 मई को पुलिस ने दंपति के एक रिश्तेदार के घर को घेर लिया और भाजपा कार्यकर्ताओं को भी उनसे मिलने नहीं दिया। बाद में दंपत्ती को तृणमूल में शामिल होने के लिए मजबूर किया गया। तृणमूल ने राज्य में हर जगह ऐसा ही किया। खड़गपुर सहित दूसरे जगहों पर नगरपालिका चुनाव में विजयी भाजपा प्रत्याशियों को अगवा किया गया और कहीं-कहीं भाजपा पार्षदों को मोटी रकम देकर खरीदा भी गया। लेकिन अब तृणमूल को अपनी करतूतों की कीमत चुकानी पड़ रही है।
जिस गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट (जीएनएलएफ) के साथ तृणमूल का चुनावी गठबंधन था, वह टूट गया है। पिछले हफ्ते जीएनएलएफ के प्रवक्ता नीरज जिम्बा ने कहा, ‘‘तृणमूल के साथ उनका गठबंधन राजनीतिक या वैचारिक नहीं था। यह सिर्फ चुनावी गठबंधन था। मौजूदा सरकार ने समस्याओं के स्थायी समाधान के लिए कोई कदम नहीं उठाया, बल्कि सत्तारूढ़ पार्टी मुद्दों से ध्यान भटकाने की कोशिश करती रही।’’ वहीं, दार्जिलिंग में बेमियादी हड़ताल के दौरान तृणमूल के पार्षदों ने गोरखालैंड के पक्ष में होने वाले प्रदर्शनों में हिस्सा लिया। पार्टी की सिक्किम इकाई के अध्यक्ष पी.टी. लकसन और महासचिव शेरिंग वांगचुक लेपचा ने तो गोरखालैंड के समर्थन में पार्टी से इस्तीफा ही दे दिया।
दार्जिलिंग में तीन ‘टी’ राजस्व के प्रमुख स्रोत हैं- ‘टी, टिम्बर एंड टूरिज्म’ यानी चाय, इमारती लकड़ी और पर्यटन। लेकिन ममता सरकार ने दार्जिलिंग के विकास पर ध्यान ही नहीं दिया। 5-6 वर्षों में करीब 12 बड़े चाय बागान बंद हो गए। अभी 87 बगान काम कर रहे हैं, जिनका समग्र क्षेत्रफल 49,950 एकड़ है। इनमें करीब 52,000 स्थायी और 20,000 संविदा श्रमिक कार्यरत हैं, जिनकी नौकरी को सुरक्षित रखने के लिए सरकार की ओर से कोई प्रयास नहीं किया गया। आलम यह है कि बेहतर सुविधाओं की तलाश में उद्योग यहां से असम जा रहे हैं। सबसे खराब हालत पर्यटन की है। इसके अलावा, ऊपरी पहाड़ी इलाकों में आज भी 50 साल पुरानी तकनीक से जलापूर्ति होती है। दरअसल, दार्जिलिंग में बुनियादी ढांचा विकसित ही नहीं हुआ। न तो यहां पानी है, न सफाई। ममता सरकार ने दार्जिलिंग के साथ हमेशा ही सौतेला व्यवहार किया। मौजूदा संकट वास्तव में समस्याओं के समाधान के प्रति सरकार की अनदेखी के कारण ही है।
सरकार की दिलचस्पी सूबे में मुस्लिम कट्टरपंथियों को खुश करने में अधिक है। हिन्दू धार्मिक स्थलों की जिम्मेदारी सांप्रदायिक शक्तियों को दी जा रही है। ममता के सबसे भरोसेमंद कैबिनेट मंत्री बॉबी फिरहाद हाकिम ने तो पाकिस्तान की पत्रकार मालेहा हमीद सिद्दिकी को अपने निर्वाचन क्षेत्र में घुमाते हुए कहा, ‘‘आइए, मैं यहां आपको मिनी पाकिस्तान दिखाता हूं।’’ सिद्दिकी की यह रपट 29 अप्रैल, 2016 को पाकिस्तानी अखबार ‘डॉन’ में छपी थी। इसी हाकिम को हिंदू तीर्थस्थलों की जिम्मेदारी सौपी गई है। उन्हें 17 जून को दक्षिणेश्वर विकास बोर्ड का अध्यक्ष नियुक्त कर प्रस्तावित स्काई वॉक की जिम्मेदारी दी गई है। दक्षिणेश्वर काली मंदिर ठाकुर रामकृष्ण परमहंस की स्मृति से जुड़ा हुआ है। हाकिम ने पीढ़ियों से पूजन सामग्री बेच रहे लोगों को बिना किसी क्षतिपूर्ति मंदिर के पास से हटा दिया। साथ ही यह कहा कि कोई इसका विरोध करेगा तो उसके खिलाफ कड़े कदम उठाए जाएंगे।
इन दिनों मुख्यमंत्री की मुस्कुराती तस्वीर के साथ प्रचार किया जा रहा है कि ‘पहाड़ हंसछे’ (पहाड़ मुस्कुरा रहा है)। सच तो यह है कि मीडिया ने पहाड़ी लोगों के दर्द को निर्दयतापूर्वक दबाने वाले झूठे दावों का प्रचार किया। कुछ प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने तो आम लोगों को गुमराह भी किया। यहां के अखबार अपने संपादकीय में केंद्र सरकार के खिलाफ गलत तथ्य और मनगढ़ंत आंकड़े प्रकाशित कर रहे हैं। उन्हें केंद्र सरकार से भरपूर विज्ञापन भी मिल रहे हैं। मीडिया केवल तृणमूल के गुंडों के प्रति वफादार है। इसलिए उसने कालियाचक जैसी चरम राष्ट्र विरोधी घटनाओं को भी दबा दिया। इस दौर को बांग्ला पत्रकारिता के लिए अंधकार युग माना जाएगा। कोलकाता मीडिया ने भी कुछ वर्षों से दार्जिलिंग की वास्तविकता को सामने लाने की जरूरत नहीं समझी। दार्जिलिंग के मौजूदा हालात के लिए मीडिया के रुख को भी एक कारण माना जा सकता है। ल्ल
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