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हृदयनारायण दीक्षित
ज्ञान सर्वोत्तम आनंद है। सर्वोत्कृष्ट विलास। अध्ययनकर्त्ता का सम्मान प्राचीन परम्परा है। भारतीय सभ्यता और संस्कृति का विकास गहन विद्यार्थी वृत्ति से ही हुआ। लोकजीवन का सत्य, शिव और सौन्दर्य अध्ययन प्रवचन और वांग्मय का ही प्रतिफल है। अध्ययन यशस्वी कर्म है। सर्वोत्तम सुख है और सर्वोत्तम कर्त्तव्य भी। तैत्तिरीय उपनिषद का नवां अनुवाक् पठनीय है। पहला मंत्र है, प्रकृति विधान का पालन करें, अध्ययन करें और सबको बताएं – ऋतं च स्वाध्याय प्रवचने च। यहां प्रकृति विधान का पालन कर्त्तव्य है, लेकिन अध्ययन अनिवार्य है। अध्ययन ज्ञानदाता है इसलिए पढ़ाई से प्राप्त ज्ञान को समाज में प्रवाहित करना भी कर्त्तव्य है। आगे का मंत्र है सत्य का पालन, अध्ययन और प्रवचन। इसी तरह हरेक कर्त्तव्य के साथ अध्ययन जुड़ा हुआ है कठोर परिश्रम करें, अध्ययन प्रवचन करें। इन्द्रिय संयम करें, अतिथि सत्कार करें, लोक व्यवहार करें, कोई भी काम करें, लेकिन पढ़ें और पढ़े हुए को बताएं। स्त्री- पुरुष संतति बढ़ाएं, यह कर्त्तव्य है,लेकिन साथ में ह्यस्वाध्यायह्ण जुड़ा हुआ है। अध्ययन जरूरी है और इसका उपकरण है – पुस्तकें। पुस्तकें अक्षर समृद्घ हैं। लेकिन आधुनिक समाज पुस्तकों को सर्वोपरि महत्व नहीं देता।
पुस्तकें देववाणी हैं। धरती पर देवों की प्रतिनिधि। वैदिक काल और उत्तरवैदिक काल का शब्द सृजन अनूठा है। वेद -मंत्र परमव्योम से उतरी गीत गाती अल्हड़ कविताएं ही हैं। उपनिषद् साहित्य धरती पर आकाश की दिव्य नक्षत्र मालिका है। पूरा वैदिक साहित्य आनंदवर्द्घन है। हर्षवर्द्घन के साथ ज्ञानवर्द्घन भी। पहले यह पुस्तक रूप नहीं था। भारतीय प्रीति के चलते यह लाखों युवा जिज्ञासुओं का कण्ठहार था। स्मृति में रचा बसा, बार-बार गाया और दोहराया जाता रहा। फिर किताब में आया। महात्मा गांधी ने सत्य के प्रयोग किए। सारे प्रयोग किताब बने। किताब बनते ही वे विश्व सम्पदा हो गये। ज्ञान किताबों में न होता तो हम टालस्टाय की ह्यअन्नाकैरिनाह्ण से कैसे परिचित होते। पतंजलि योग विज्ञानी थे, कौटिल्य में अर्थशास्त्र की मौलिक अनुभूति थी, भरतमुनि नाट्य विज्ञान के धुरंधर चिन्तक थे। बादरायण ने समूची सत्ता को एक देखा। सारी अनुभूतियां स्वयं की हैं। अनुभूति सार्वजनिक नहीं होती। बेशक अनुभूति की सामग्री संसार और प्रकृति से ही मिलती है, लेकिन अनुभूति खिलती है हमारे गोपन अन्तस् मंे। यही अनुभूति पुस्तक बनती है तो लाखों करोड़ों को आंतरिक समृद्घि से भर देती है। पतंजलि के ह्ययोग सूत्रह्ण, कौटिल्य का अर्थशास्त्र, बादरायण का ब्रह्मसूत्र और भरतमुनि का रचा ट्यशास्त्र पुस्तक बनने के कारण विश्वप्रतिष्ठ है।
पुस्तक का कोई विकल्प नहीं है। अलबत्ता दुनिया में अन्य तमाम ज्ञान स्रोत भी हैं। लेकिन सर्वोत्तम का विकल्प पुस्तकें ही हैं। मेरे पिता सवा बीघे की खेती के मालिक किसान थे। हमारे गांव से तीन-चार कि.मी. दूर भवरेश्वर मंदिर में प्रति सोमवार बड़ा मेला लगता है। पिता जी और हम पैदल जाते थे। वे मेले में मिठाई खिलाने का आग्रह करते, मैं उतने ही पैसे की किताब खरीदने की मांग करता था। वे कहते, दूध की बर्फी में जो ताकत है वो किताब में नहीं। मैं बिफर जाता था। वे एक आना या दो आने की किताब खरीदते, मैं खुशी से नाच उठता था। वे रामचरित मानस पढ़ते थे। मैंने उनसे कहा रामचरित मानस में जो ताकत है, क्या वैसी दूध की बर्फी में है? वे डांट देते थे कि रामचरितमानस किताब नहीं है, वह और भी बहुत कुछ है। पुस्तकंे मेरे लिए बहुत कुछ हैं, अम्मा, बहन, आचार्य, गुरु, मित्र, प्रीति, रीति, नीति आदि -आदि। हमारा पौत्र पतंजलि अभी कक्षा एक में है, स्वाभाविक ही खिलौनांे से खेलता है। मुझे लगातार पढ़ते देखकर किताबों में उसका रस बढ़ा है। खूब लिखता है, खूब पढ़ता है। पौत्र सात्विक मुझसे या अपने पिता से पाए पैसे किताबों पर लगाता है। उसके मित्र का जन्मदिवस था। वह उसे कोई भेंट देने के लिए कुछ खरीदने जा रहा था। मैंने कहा, किताब ही भेंट करना। बाकी सब बेकार है।
भारत में समृद्घि बढ़ी है। खानपान और रहन- सहन पर प्रतिव्यक्ति व्यय बढ़ा है। सामान्य मध्यवर्गीय व्यक्ति भी चाय या कोल्ड ड्रिंक पर दो तीन मित्रों के साथ सौ दो सौ रुपया उड़ा देता है, लेकिन डेढ़ दो सौ रुपये की किताब नहीं खरीदता। चाहतंे अजीब हैं। हमारे पास मोबाइल महंगा होना चाहिए। हमारे कुछेक मित्र हर दूसरे तीसरे माह मोबाइल बदलते हैं। उन्हें दाढ़ी बनाने की मशीन, टूथपेस्ट या साबुन भी हाईफाई चाहिए। ऐसे मित्रों को सामान्य उपभोक्ता वस्तुओं की महंगाई से कोई शिकायत नहीं,लेकिन पुस्तकों की महंगाई का रोना है। पुस्तकें उन्हें महंगी लगती हैं, बाकी उपभोक्ता वस्तुएं सस्ती। वैसे पुस्तकें भी घर की शोभा और सुन्दरता हैं, वे जीवन का सत्य हैं। वे उड़ने के पंख देती हैं। जमीन पर ठीक से पांव जमाने की युक्ति भी देती हैं। पुस्तकों में जीवन के सभी रंग मिलते हैं। प्रकृति के सारे रूप, रस, गंध, गीत और छन्द। पुस्तकें प्रकृति सृष्टि की पुनर्सृष्टि हंै। प्रत्यक्ष लोक का पुनर्सृजन। उदात्त ब्रह्म कर्म। बोध -पुनर्बोध का शब्द आख्यान। अव्याख्येय की भी व्याख्या का सार्थक प्रयत्न पुस्तकों में मिलता है।
विश्वविख्यात् विद्वान कार्ल सागन की लिखी वैज्ञानिक किताब है ह्यकासमोसह्ण। उन्होंने बताया है कि लाखों बरस पहले समूची प्रकृति की ऊर्जा और पदार्थ एक बिन्दु में समाहित थे। उन्होंने लिखा है इसे ह्यकासमिक एगह्ण कह सकते हैं। ह्यकासमोसह्ण का हिन्दी अनुवाद होगा – ब्रह्म। बह्म शब्द संस्कृत से आया है। यहां इसका अर्थ है-सतत् विस्तारमान संपूर्णता। ब्रह्म की सारी ऊर्जा और पदार्थ जब एक जगह लघुतम रूप में थे, तब यह अंडे जैसा था – ब्रह्माण्ड। सागन ने इसे ठीक ही ह्यकासमिक एगह्ण कहा है। लेकिन आगे की उनकी बात रोमांचकारी है – यही अंडा फूटा, इसी की सारी ऊर्जा और पदार्थ यह विश्व है – जो अब तक हो गया और जो आगे होगा, वह सब यही कास्मिक एग है। सोचता हूं कार्ल सागन का यह अध्ययन पुस्तक में न होता तो हमारे जैसे साधारण राजनैतिक कार्यकर्ता तक कैसे पहुंचता? ऋग्वेद के एक देवता हैं ह्यअदितिह्ण। अदिति की ऋषि व्याख्या भी कार्ल सागन जैसी है। ऋग्वेद में बताते हैं अदिति पृथ्वी, आकाश सब कुछ हैं। वे हमारे माता -पिता, पितामह, पूर्वज हैं। वे ही हमारे पुत्र-पुत्री भी हैं। अब तक जो हो गया और जो आगे होगा, वह सब ह्यअदितिह्ण हैं। यही बात ऋग्वेद के पुरुष सूक्त में भी है – पुरुष एवेदं सर्वं यत् भूतं भव्यं च। भूत और भविष्य सब पुरुष है। ऋग्वेद पुस्तकाकार न होता तो सागन की वैज्ञानिक प्रतीति और ऋषियों की आत्मिक अनुभूति को हम एक साथ कैसे मिलाते?
विलासिता की निन्दा होती है। संयम बेशक प्रशंसनीय है, लेकिन अध्ययन और पुस्तक प्रीति में संयम नहीं विलासी भाव ही श्रेष्ठ है। पुस्तकों के साथ होना बड़ा विलास है। उनके अंक, अंग, प्रत्यंग से अंगीभूत एकात्म होने का रस, रंग अनिवर्चनीय है। स्टीफेन हाकिंस विश्व मानवता के विरल व्यक्तित्व हैंं, वे बोल नहीं पाते, चल नहीं पाते। सौ प्रतिशत विकलांग हैं। लेकिन गजब के ब्रह्माण्ड विज्ञानी हैं। पुस्तक तकनीकी ने ही उनके विचार और शोध हम सब तक पहुंचाए हैं। ह्यब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइमह्ण उनकी खूबसूरत किताब है। मैं किताब के नाम पर मोहित था। इतिहास समय का ही एक अंग है, लेकिन यहां समय का इतिहास बताया गया है। ऋग्वेद के ऋषियों ने भी बताया है कि सृष्टि के पूर्व समय नहीं है। समय का जन्म गति से होता है। गति नहीं तो समय नहीं। गति पर ध्यान देना जरूरी है, तभी प्रगति या दुर्गति का पता चलता है। लेकिन ऐसे ध्यान और बोध का सहज उपलब्ध उपकरण पुस्तकें ही हैं। मैं उपभोक्ता वस्तुओं के हिसाब से गरीब हूं, लेकिन हजारों पुस्तकों के साथ रहता हूं। तो भी पुस्तक समृद्घि हमारी अशांत भूख है। अभी विश्व पुस्तक मेला सम्पन्न हुआ है। लेकिन क्या मित्रों से पूछ सकता हूं कि आपके पास उपभोक्ता सामग्री की तुलना में किताबों की संख्या कैसी है? छोडि़ए नहीं पूछते। मित्र नाराज होंगे। वे पुस्तकों के लिए समय की कमी बताएंगे और मुझे अवकाश भोगी निठल्ला राजनेता
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