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चांद का अपना कोई प्रकाश नहीं होता। सूर्य की परिक्रमा करते हुए उसकी रोशनी को परावर्तित करते हुए ही वह बढ़ता-घटता दीखता है। पूर्णिमा से अमावस्या, यही उसकी परिणति है।
वैसे, खुर्शीद का मतलब भी चांद ही है और संयोग से देश के मौजूदा विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद की स्थिति भी कुछ ऐसी ही है। अपने प्रकाश से शून्य। ऐसे कितने ही चंद्रमा, कांग्रेस में कुनबे के जिस आभापुंज को सूर्य मान प्रदक्षिणा करते रहे, सत्ता की उस रोशनी के बुझ जाने का ख्याल भी इन सबके लिए डरावना है। दिन से रात तो ठीक है। शुक्लपक्ष से कृष्णपक्ष का सफर भी जैसे-तैसे काट लें, मगर रोशनी का बुझ जाना…? क्या कांग्रेस मिट जाएगी? सारे चंद्रमा हताशा और बौखलाहट की स्थिति में हैं।
विवादास्पद विकलांग सहायता घोटाले के दाग के बावजूद साफ-शिष्ट कहलाते विदेश मंत्री के नरेन्द्र मोदी के प्रति ओछे बयानों में कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों के भीतर की पूरी कसमसाहट उजागर हो जाती है तो सिर्फ इसलिए कि भारतीय लोकतांत्रिक सत्ता में भारी बदलाव की आहट दिल्ली ही नहीं पूरी दुनिया सुन रही है।
सैनिकों के सिर कटवाने वालों को न्योता भेजकर बुलाने और बिरयानी खिलाने की कांग्रेसी कूटनीति कितनी सही है, यह तो खुर्शीद या मनमोहन (या राहुल) ही बता सकते हैं मगर एक बात साफ है कि कूटनीति के खिलाडि़यों ने भविष्य की रूप रेखा पढ़ने-समझने और परिस्थिति के साथ तालमेल बैठाने के लिए कदम बढ़ा दिए हैं।
किसी भी सरकार के लिए इससे बड़ी हेठी क्या होगी कि उसके नेतृत्व को नजरंदाज करने वाले ह्यअन्तरराष्ट्रीय चौधरीह्ण मुख्य विपक्षी दल के उभार पर आगे आकर मुहर लगाने लगें। अमरीकी विदेश मंत्रालय की ओर से नैंसी पावेल और नरेन्द्र मोदी की मुलाकात अगर छोड़ भी दी जाए तो चीन के स्पष्टीकरण का जिक्र तो करना ही होगा। पड़ोसी देश के जिस अहंकारी, विस्तारवादी रुख के आगे मनमोहन सरकार लस्त-पस्त नजर आती थी यदि वही चीन अपने विस्तारवादी ना होने और भारत के साथ रिश्ते ना बिगड़ने की सफाई दे तो मानना चाहिए कि सत्ता धुरी का बदलाव अब किसी के लिए छिपी बात नहीं है।
लोकसभा चुनाव से पहले भारतीय जनता पार्टी के फैलते दायरे का यह नया चरण है। ज्यों-ज्यों यह व्याप बढ़ेगा राजनीतिक ताप और सेकुलर संताप बढ़ता जाएगा। देश की जनता के लिए यह विवादास्पद वक्तव्यों और विसंगतियों का मेल देखने का समय है। नेताओं की नियति, परिस्थिति और गति की लाजवाब झांकी।
चारा घोटाले में दोषी लालू प्रसाद यादव ह्यदागी निरोधक अध्यादेशह्ण पर राहुल गांधी की आक्रामक मुद्रा का दंश झेलने के बावजूद उनकी ओर उंगली नहीं उठा सकते, यह उनकी नियति है। लंबे समय विरोधी धाराओं में अठखेलियां करने के बाद रामविलास पासवान फिर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में आ मिले हैं, यह राजनीतिक परिस्थिति है। और…प्रकाश करात की अगुआई में तमाम वामपंथी प्रयासों के बाद भी तीसरा मोर्चा कोई स्पष्ट आकार नहीं ले पा रहा, यह उसकी शाश्वत गति है।
इस लोकसभा चुनाव की तैयारियों में दो खास बातें हैं। पहली यह कि भाजपा ने विकास के तार्किक और समझ में आने वाले रूप को देश के सामने रखा है जिसके बाद से हर बहस को सेकुलर सुर देने वालों से लोग विकास की कार्यसूची और घपलों का हिसाब मांग रहे हैं। दूसरी बात यह कि भारतीय जनता पार्टी प्रधानमंत्री पद के लिए घोषित अपने उम्मीदवार का जितना ख्याल करे उससे ज्यादा वह विरोधियों द्वारा उद्ध़ृत और प्रचारित किए जा रहे हैं। इन दोनों ही बातों ने सत्ता को भ्रष्टाचार की खिड़की बना डालने वालों का बौनापन और बौखलाहट सामने ला दी है। जिस वक्त सलमान खुर्शीद अपने विवादास्पद बयान में शब्दों के सही होने की बेशर्म सफाई दे रहे थे उस वक्त नरेन्द्र मोदी दिल्ली में भारतीय वित्त सलाहकार समिति के मंच से वित्त पेशेवरों की चिंताओं का साफ-सुलझा विश्लेषणात्मक जवाब दे रहे थे।
संभवत यही यह फर्क है जिसे भाजपा के आलोचकों और समीक्षकों को देखना चाहिए। कांग्रेसी रणनीति का यह कृष्णपक्ष सत्ता का सूर्य डूबने की हताशा से उपजा है। कमल को निशाना बनाने वालों को कीचड़ में पत्थर मारने से आगे कुछ सोचना होगा।
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