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28 अक्तूबर, 2012 के अंक में ही पाञ्चजन्य ने लिखा था कि कार-मोटरसाइकिल-फैशन और फिटनेश के शौकीन 'सरकारी दामाद को तंग मत करो- वे व्यापार कर रहे हैं।' पर विपक्ष है कि मानता ही नहीं। अब 5 महीने बाद 12-13 मार्च को भारतीय जनता पार्टी के सदस्यों ने फिर संसद की कार्यवाही ठप करा दी। राबर्ट वाढरा के गोरखधंधे का काला चिठ्ठा हवा में लहराते हुए उनकी सासू मां और कांग्रेसियों की नजर में 'मदर टेरेसा के बाद त्याग की दूसरी प्रतिमूर्ति' सोनिया जी के सामने ही नारे लग रहे थे- 'वित्तमंत्री, दामादजी का फार्मूला अपनाइये, घर बैठे कमाइये, घाटा बढ़ाइये।' अजब तमाशा है, अगर दामाद सरकारी हैं तो क्या सरकारें उनके धंधे में मदद भी नहीं कर सकतीं? पर कांग्रेस सरकार ही यह मानने को तैयार ही नहीं है। वह कह रही है कि यह व्यक्तिगत मामला है, दो व्यक्तियों के बीच व्यावसायिक संबंधों का मामला है, सरकार का इससे कुछ लेना-देना नहीं इसलिए इस विषय को संसद में नहीं उठाना चाहिए। कुछ गलत है तो कानून अपना काम करेगा। क्यों भई, राबर्ट वाढरा यदि इतने विशिष्ट हैं कि गृह मंत्रालय ने विशेष निर्देश जारी कर अन्तरदेशीय हवाई अड्डों पर उन्हें उस जांच से छूट दिलवा दी है जो अधिकार सिर्फ और सिर्फ राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और एसपीजी सुरक्षा प्राप्त पूर्व प्रधानमंत्रियों और उनके परिजनों को प्राप्त है, तो उन विशिष्ट महोदय के व्यापार करने के 'विशिष्ट तरीके' की चर्चा देश की संसद में क्यों नहीं होनी चाहिए? आखिर देशवासियों को भी तो हक है ऐसे तौर-तरीके जानने का जिससे कौड़ियों के मोल खरीदी जमीन की कीमत अचानक करोड़ों तक हो जाती है।
वैसे भी राबर्ट वाढरा की सबसे बड़ी खासियत यही है कि वे भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान के सबसे शक्तिशाली कहे जाने वाले परिवार के एकमात्र
दामाद हैं। उससे भी खास है उनके रहन-सहन और 'व्यापार' करने का अंदाज। महिलाओं के नकली आभूषण (आर्टीफीशियल ज्वलैरी) और हथकरघा (हैण्डीक्राफ्ट) का निर्यात करने वाले रार्बट की किस्मत एकाएक यूं ही नहीं चमक गई। उनके जमीन के धंधे की जमीनी हकीकत यह है कि कांग्रेस शासित राज्य सरकारें और सत्ता केन्द्र से प्रभावित एक बड़ा घराना उनकी किस्मत चमकाने में जी-जान से जुटा है। पहले रियल इस्टेट की सुप्रसिद्ध कम्पनी डीएलएफ पर आरोप लगा कि उसने वाढरा की कम्पनी को ब्याज मुक्त और असुरक्षित 65 करोड़ रुपया ऋण दिया, जिससे वाढरा ने दिल्ली से सटे हरियाणा के अमीपुर गांव, शिकारपुर और सोहना में जमीनें खरीदी। मजे की बात यह कि इस बीच हरवंश लाल पाहवा से वाढरा की कम्पनी ने 2005-06 में 46 एकड़ जमीन खरीदी, उन्हीं पाहवा ने 2008 में वाढरा की कम्पनी से वापस जमीन खरीद ली। तो इसमें धंधा क्या हुआ, गलत क्या हुआ? हुआ यह कि हरवंश लाल पाहवा की कम्पनी ने कार्निवाल इन्टरकांटिनेंटल प्रा. लि. ने वाढरा की कम्पनी स्काइलाइट हास्पीटेलिटी प्रा. लि. को 1 करोड़ 55 लाख रुपए उधार दिए। उससे वाढरा ने उन्हीं की जमीन लाखों में खरीदी, फिर उन्हें ही करोड़ों में बेची। इस बीच हरियाणा की हुड्डा सरकार ने भूमि अधिग्रहण एवं नियमन कानून-1972 की अनदेखी कर वाढरा को 46 एकड़ तक जमीन खरीदने दी, जबकि नियमत: वे 27.9 एकड़ से अधिक जमीन नहीं खरीद सकते थे। पोल तब खुली जब हरियाणा के वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी और महापंजीयक (पंजीकरण) अशोक खेमका ने मामले की जांच के आदेश दिए, हंगामा मचा, तो कांग्रेसियों सहित पूरी सरकार दामाद बाबू के बचाव में उतर आयी, रातों-रात अशोक खेमका का स्थानांतरण हुआ, प्रधानमंत्री कार्यालय ने भी आनन फानन में 'क्लीन चिट' दे दी, और अभी 7 मार्च को इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खण्डपीठ ने इस संबंध में एक सामाजिक कार्यकर्ता द्वारा दायर याचिका खारिज कर दी, क्योंकि केन्द्र सरकार की ओर से अतिरिक्त महाधिवक्ता ने हलफनामा दिया कि 'यह शुद्ध व्यावसायिक मामला है।'
जब हरियाणा सरकार ने दामाद जी के लिए इतनी दरियादिली दिखाई तो राजस्थान सरकार क्यों पीछे रहती? आखिर अशोक गहलोत को भी तो 10 जनपथ में अपना मुंह दिखाना है। इसलिए उन्होंने बीकानेर के बंजर इलाके की जमीन राबर्ट वाढरा की कम्पनियों को सस्ते में खरीदने की छूट दे दी। वाढरा की कम्पनी की ओर से महेश नागर ने बीकानेर के गजनेर और चौनन आदि गांवों में जमीन खरीदनी शुरू की तो खरीदते चले गए और अधिकतम 175 एकड़ जमीन खरीदने के नियम को भी तोड़ दिया, सितम्बर, 2010 तक 321.08 एकड़ जमीन खरीद डाली। जब दामाद जी ने जमीन खरीदने का कानून भी तोड़ दिया तो मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने सितम्बर, 2010 में 30 साल पुराने कानून को ही भंग कर दिया और 175 एकड़ की पाबंदी ही समाप्त कर दी। चलो इतना हो भी गया तो क्या? पर अचानक उसी इलाके में जवाहर लाल नेहरू सौर ऊर्जा प्रोजेक्ट शुरू हो गया। वहां यह योजना लागू होने वाली है, यह 'गुप्त बात' सिर्फ केन्द्र सरकार और राज्य सरकार को ही पता थी। इसके लिए केन्द्र ने राज्य सरकार से 'लैण्ड बैंक' (भूमि का एकत्रीकरण) करने को कहा था। पर राज्य सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी रही और वाढरा की कम्पनी धड़ा-धड़ सस्ते में जमीन खरीदती रही। स्थानीय लोगों को समझ नहीं आ रहा था कि आखिर दिल्ली से इतनी दूर आकर यह कम्पनी जमीन क्यों खरीद रही है। न तो वहां कोई रिहाइशी कालोनी बस सकती थी और न ही कोई बड़ा उद्योग लग सकता था। अब जिन लोगों से वाढरा की कम्पनी को जमीन खरीदी वे ठगे से हैं कि उनकी जमीन की कीमत 2 साल में 100 गुना तक बढ़ गई। पर यह फायदा बेचारे ग्रामीणों को नहीं मिला, क्योंकि उन्हें तब पता ही नहीं था कि केन्द्र सरकार के जवाहर लाल नेहरू राष्ट्रीय सौर ऊर्जा अभियान का इस प्रदेश में श्रीगणेश यहीं होना है। अब अगर राजस्थान की 'सरकार' ने 'सरकारी दामाद' को 'सरकारी योजना' पहले ही बता दी हो तो इसमें विपक्षी दलों की पेट में दर्द क्यों उठ रहा है? संसद में हंगामा क्यों मचा रहे हैं ये लोग? मामला 'वीवीआईपी व्यापार' का है, इसकी चर्चा संसद में नहीं हो सकती। सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी में सीबीआई से 'निष्पक्ष जांच' की मांग भी बेमानी है। मत करिये यह चर्चा, खामोश रहिए, क्योंकि… सरकारी दामाद व्यापार कर रहे हैं!! दिल्ली ब्यूरो
वाढरा पर यूं मेहरवान हैं कांग्रेस की राज्य सरकारें
हरियाणा
थ् हरियाणा भू-अधिग्रहण एवं नियमन कानून-1972 के अन्तर्गत अधिकतम 27 एकड़ कृषि भूमि ही खरीदी जा सकती थी
थ् वाढरा की कम्पनी ने खरीदी 46 एकड़
थ् रातों-रात भू-उपयोग परिवर्तन (लैण्ड यूज चेंज), कीमत बढ़ी
थ् महापंजीयक (पंजीकरण) अशोक खेमका ने उठाए सवाल,
दिए जांच के आदेश
थ् खेमका का किया तबादला, उन पर बढ़ाया दबाव
थ् प्रधानमंत्री कार्यालय ने बिना जांच किए दी 'क्लीन चिट'
थ् विधानसभा में वाढ़रा का मामला उठाने की इजाजत नहीं, ओमप्रकाश चौटाला के भ्रष्टाचार पर चर्चा में रुचि
राजस्थान
थ् बीकानेर में सौर ऊर्जा केन्द्र बनाने की योजना सिर्फ राज्य सरकार और केन्द्र सरकार को पता थी
थ् केन्द्र ने राज्य से भूमि एकत्र करने को कहा, पर सरकार कुछ नहीं किया
थ् सरकार के बदले वाढरा की कम्पनियां खरीदती रहीं जमीन
थ् राजस्थान इंपोजीशन आफ सीलिंग आन एग्रीकल्चर होल्डिंगस एक्ट-1973 के अनुसार रेगिस्तानी और अर्द्ध-रेगिस्तानी इलाकों में 125 से 175 एकड़ तक भूमि रखने की इजाजत है।
थ् वाढरा की कम्पनियों ने खरीदी 321 एकड़ जमीन।
थ् सितम्बर, 2010 में राज्य सरकार ने तीन दशक पुराने अधिनियम को बदला और नए प्रावधान जोड़े, जिससे वाढरा की जमीन कानूनी हो जाए, जबकि वे संशोधन से पहले ही जमीन खरीद चुके थे।
थ् बीकानेर में सौर ऊर्जा केन्द्र वहीं बना जिसके आस-पास वाढरा ने जमीन खरीदी थी।
यूं पहुंचे 50 लाख से 500 करोड़ तक
सन् 2005 तक 50 लाख रु. की पूंजी वाले वाढरा अनेक कम्पनियां बनाकर अब 500 करोड़ रुपए से अधिक का साम्राज्य जुटा चुके हैं। इस दौरान अपने वार्षिक लेने-देने में भी उन्होंने झूठ बोला कि जमीन खरीदने के लिए कारपोरेशन बैंक ने उन्हें करोड़ों रु. का 'ओवर ड्राफ्ट' दिया। डीएलएफ के पैसों से भी रचा खेल और पाहवा की जमीन खरीदी और उन्हें ही बेच दी। अब बीकानेर में बंजर जमीन खरीदी, वहां सौर केन्द्र आया तो ऊर्जा भले न बनी, पर वाढरा पर धन की वर्षा ऐसे हो गई-
थ् गजनेर में 24 मार्च, 2010 को खरीदी 81.3 एकड़ जमीन, कीमत 28 लाख
थ् फोनरॉक सारस को 23 मई, 2012 को बेची, कीमत 1.99 करोड़
थ् लाभ – 1.71 करोड़
थ् गजनेर में ही 4 जून 2009 को खरीदी 37.3 एकड़, कीमत 8.7
लाख रु.
थ् फोनराक सारस इनर्जी प्राइवेट लि. को 23 मई 2012 को बेची, कीमत, 1 करोड रुपए
थ् लाभ – 92 लाख रु.
थ् गजनेर में 4 जून, 2009 को खरीदी 27.5 एकड़ जमीन, कीमत 13.2 लाख रु.
थ् 23 मई, 2012 को फोनरॉक राजहंस को बेची, कीमत-75
लाख रु. थ् लाभ- 62 लाख रु.
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