फागुन एक, रंग अनेक
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फागुन एक, रंग अनेक
समाज में साल के बारह महीने की भिन्न-भिन्न पहचान है। उस माह के मौसम का मानव मन के ऊपर गहरा प्रभाव पड़ता
है। एक लोकोक्ति है-'सबहिं नचावत राम गोसाईं।' मौसम परिवर्तन के साथ मानव शरीर और मन में परिवर्तन आता है, देख जिह्वा पर तिरता है- 'सबहिं नचावत मौसम भाई।'
हां तो बसंत के मौसम में मन बौराया-बौराया (मस्त-मस्त) ही रहता है। न अधिक ठंड, न अधिक गर्मी। आम, जामुन, लीची, नीम, अनेकों पेड़ों पर सुगंधित फूल। पुरवैया बयार। खेतों में गेहूं, मटर, सरसों के साथ अन्यान्य फसलों के फूल और दानों की महक। मन मस्त न हो तो कैसे? बूढ़ा, जवान और बच्चे- सबके मन में उमंग होती है। और इसी बसंत ऋतु के प्रस्थान और ग्रीष्म ऋतु के आगमन के मोड़ पर होली मनाई जाती है। होली को वसंतोत्सव भी कहा जाता है।
फागुन के महीने में जहां हम अपने बौराए मन से पौराणिक कथाओं को स्मरण करते हैं, वहीं देवी-देवताओं को भी अपने समान मानकर उन्हें मस्ती के रंग में रंग देते हैं। होलिका दहन करते हुए गांव-गांव मुहल्ले-मुहल्ले में भक्त प्रह्लाद को स्मरण किया जाता है। अपनी ईश भक्ति के कारण वह अग्नि में भी नहीं जलता। दूसरी ओर भगवान शिव, राम, कृष्ण और हनुमान भी हमारे साथ होली खेलते हैं –
'राम खेले होली, लखन खेले होली
वृन्दावन में कान्हा खेले होली।'
सभी भगवान हमारे साथ होली खेलते हैं। होली के हुड़दंग में भी ईश्वर को साथ रखने वाला समाज। होलिका दहन करके उसके चारों ओर परिक्रमा करते हुए ढोल, झाल और ढपली पर प्रथम स्वर सुनाई पड़ता था-
'तू त लंका जाइछा हो हनुमान
मोरो प्रणाम राम जी से कहिहा।'
भोर में ही होलिका दहन का रिवाज रहा है। गांवों के किसी चौक-चौराहे पर होलिका दहन करते समय उस अग्नि में गेहूं, जौ, चना और अरहर की पुष्ट बालियों को भूनकर खाने का रिवाज रहा है। एक प्रकार से रबी फसल का भी उत्सव। खेतों में रबी की फसल पकने लगती है। किसान मस्त है। फसल की बालियों को भूनकर भोग लगाता है। होलिका दहन के बाद झुंड बनाकर पुरुष दरवाजे-दरवाजे जाते हैं। रामचरित मानस की चौपाइयां, भजन और होली के विशेष गीत गाते हैं। इन गीतों के भी विभिन्न रंग होते हैं। चूंकि मस्ती का आलम है इसलिए तो महिलाओं से छेड़छाड़ और रंग रस के भी गीत। 'बुरा न मानो होली है-' सब कुछ चलता है होली के नाम पर।
बिहार में गाए जाने वाले होली गीत की एक प्रमुख पंक्ति है-
'भर फागुन बुढ़वा देवर लागे।'
फागुन के महीने की एक यह भी विशेष पहचान है। इस महीने में नाते-रिश्ते के बीच स्थापित अनुशासन और व्यवहारिक वर्जनाओं को खंडित करना वर्जित नहीं होता। देवर-भाभी, जीजा-साली, ननद-भाभी में तो हंसी-ठिठोली होती ही है, अन्य रिश्तों के बीच की वर्जनाएं भी टूट जाती हैं। वर्जनाओं की संस्कृति वाले समाज में एक महीना वर्जनाओं को तोड़ने का भी।
अन्य पर्व-त्योहारों की तरह इस उत्सव में किसी भगवान की विशेष पूजा-अर्चना नहीं होती। खानपान के लिए विभिन्न पकवान बनते हैं। पुआ-खीर, गुझिया, पूरी- कचौड़ी, दहीबाड़ा और भी पकवान। लेकिन भगवान पर चढ़ाने के लिए अछूता नहीं रखा जाता। कड़ाही से पकवान छनाता जाए, लोग खाते जाते हैं। भांग भी घुटती है। शिव को 'भंगिया' कहा गया है। अर्थात वे भांग का गोला खाते थे-
'सब देवतन को पूरी जलेबी
मोर शिव भंगवे ल बेहाल।'
अर्थात शिव औघड़दानी हैं। सर्वहारा के देव हैं। उनकी कृपा से भक्तों को सुस्वाद भोजन मिलता है, लेकिन उन्हें तो भांग ही चाहिए।
हुरवैयों ( होली गाने वाले) की टोली जब दरवाजे-दरवाजे गाते हुए जाती है तो उनका पकवान, शर्बत और भांग से स्वागत होता है। 'धुर्खेल' खेलते हैं। धुर्खेल का अर्थ धूल-मिट्टी से होली खेलना। उस दिन किसी के शरीर पर गोबर भी डाल दिया तो चलता है। महिलाओं के हाथों में पुआ का घोल, चावल का धोवन, गोबर-मिट्टी आदि जो रहता है वे अपने देवर, ननद, ननदोई या अन्य रिश्तेदारों के ऊपर डालती हैं, कोई बुरा नहीं मानता।
हुरवैये गाने भी जमकर गाते हैं। एक प्रसिद्ध गीत की पंक्ति है-
'नकबेसर कागा ले भागा,
सैंया अभागा ना जागा।
उड़ि–उड़ि कागा कदम चढ़ी बैठे,
यौवन के रस ले भगा।'
इन पंक्तियों का आशय यही है कि पक्षी भी महिलाओं से हंसी-ठिठोली और छेड़छाड़ करते हैं। अर्थात 'आत्मवत् सर्व भुतेषू' का आदर्श यहां भी पूर्ण होता है। पति को पत्नी का रक्षक माना गया है। पत्नी शिकायत करती है कि कागा उसकी नाक की बेसर लेकर भाग गया, उसका पति नहीं जागा। वह पति के लिए अपशब्द 'अभागा' भी निकालती है। तात्पर्य यह कि पति ने अपना कर्त्तव्य पूरा नहीं किया।
होली के उत्सव में गीतों का विशेष महत्त्व होता है। देश के सामयिक, राजनैतिक, सामाजिक परिस्थितियों की समस्याओं को भी उन गीतों का भाग बनाया जाता रहा है।
'खादी की चुनरी रंगा दे मोर पियवा
अब हिंद आयल स्वराज।'
महिला अपने पति से कहती है-'इस होली में उसके लिए खादी की चुनरी रंगवा दे। अब हिन्दुस्थान में स्वराज आ गया।'
होली गीतों में दो-चार पंक्तियां ही होती हैं। उन्हें ही बार-बार दुहराया जाता है। ढोल, झाल और ढपली पर झूम-झूम कर गाते हैं हुरवैए। सुस्त लोगों के नसों में भी मस्ती भर देने की शक्ति रखने वाले गीत। स्त्री-पुरुष के बीच आकर्षण और मर्यादाओं को तोड़कर उनके संबंध का भी वर्णन है गीतों में। हुरवैए खुलकर गाते हैं। उनके मन में कोई गांठ नहीं रह जाती। किसी भी दरवाजे पर रुककर, घरवालों के द्वारा बिछाई आसनी (चटाई) पर बैठकर होली (गाली) भी गाई और चलते-चलते आशीष दे गए-
'सदा आनंद रहे यही द्वारे
मोहन खेले होली हो।'
कैसा विचित्र समाज है। कहां तो मस्ती का आलम, बौराया मन और उस बीच भी मानव जीवन का लक्ष्य 'आनंद' को स्मरण रखना। यह 'आनंद' वह नहीं जो होली खेलने से प्राप्त होता है। इसका अभिप्राय जीवन के आनंद से है। छोटे-छोटे आनंद से परमानन्द तक। शुभकामनाएं देना-'सदा आनंद रहे यही द्वारे।' फिर वहां से दूसरे दरवाजे जाना। भगवान की स्तुति, गालियां और अंत में शुभकामनाएं। होली के हुड़दंग में भी अपनी संस्कृति के सूत्रों का स्मरण रखना।
सारे मनोमालिन्य मिटाकर होली खेलते हैं। एक-दूसरे को गुलाल लगाते, रंग डालते और गले मिलते हैं। सामाजिक सौहार्द का प्रतीक है होली। गांवों से पलायन हुआ है, देश से भी। होली के रंग फीके नहीं पड़े हैं। रूप बदल गए हैं। लेकिन जो जहां है, होली के दिन समरस होना चाहता है। किसी को रंग लगाने और गले मिलने का मन करता है। होली अकेले नहीं खेली जाती। अकेले-अकेले तो पूजा-अर्चना, अराधना हो सकती है। होली तो समष्टि की साधना है। रस की बौछार। फल वृक्षों के बौर की सुगंध को अपने अंदर धारण करना। कोयल की कूक पर उद्वेलित होना। पुरवैया हवा को छूकर अपने अंदर प्रीत जगाना-
'पुरवैया के मस्त झकोरवा,
रही, रही प्रीत जगावे हो।'
होली के अवसर पर इतनी प्रीत इकट्ठी कर लें कि अगले ग्यारह महीने में खर्च न हो। फिर आएगी होली। फिर चढ़ेगी मस्ती। मृदुला सिन्हा
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