यह क्या कर रहे हैं काटजू?
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राजनाथ सिंह 'सूर्य'
प्रेस काउंसिल को अधिक अधिकार देने की मांग का प्रस्ताव संसद की स्वीकृति के लिए प्रस्तुत ही नहीं किया गया, यह एक तरह से अच्छा ही हुआ, अन्यथा इसके वर्तमान अध्यक्ष मार्कंडेय काटजू अब तक कई लोगों को 'मृत्युदंड' की सजा सुना चुका होते। (स्व.) कैलाशनाथ काटजू के पौत्र और न्यायमूर्ति शंभूनाथ काटजू के पुत्र अपने परिवार की शालीनता और सौम्यता की ख्याति को अपनी सतही अभिव्यक्तियों से पहले ही बहुत पीछे छोड़ चुके थे। लेकिन अब समाचार पत्रों तथा पत्रकारों को लक्ष्मण रेखा में रखने की निगरानी करने वाली संस्था के अध्यक्ष होकर उन्होंने अपनी लक्ष्मण रेखा का ही संज्ञान लेने से भी इंकार कर दिया है। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को न्यायालय द्वारा दोषी करार न दिए जाने के बावजूद उन्हें दंगों के लिए जिम्मेदार ठहराने वाली तथा मर्यादाहीन आचरण करने वाली तीस्ता जावेद शीतलवाड़ के पीछे खड़े होने का उन्होंने जो काम किया है, उस संदर्भ में मैं उनकी आलोचना नहीं कह रहा हूं। बल्कि यह बात मैं कह रहा हूं फैजाबाद में गणेश मूर्ति विसर्जन के पूर्व कतिपय मूर्तियों को क्षतिग्रस्त किए जाने के बाद वहां हुए दंगे की प्रेस काउंसिल द्वारा जांच के संदर्भ में। साम्प्रदायिक दंगे की जांच का काम क्या 'प्रेस काउंसिल' की सीमा में आता है? यदि आता है तो उत्तर प्रदेश में अब तक एक दर्जन से अधिक स्थानों पर हुई इसी प्रकार की घटनाओं की जांच प्रेस काउंसिल ने क्यों नहीं की? इसके साथ ही काटजू ने जिसे अयोध्या में 'जांचकर्ता' बनाया, उसका चरित्र इस विषय की गंभीरता कहीं अधिक बढ़ा देता है। जांचकर्ता ने अपनी रपट में एक भाजपा विधायक सहित 'हिन्दू शक्तियों' को इस दंगे के लिए दोषी ठहराया, जो वस्तुत: प्रशासनिक व्यवस्था की कमियों के चलते हुआ था।
अयोध्या-फैजाबाद में गणेश प्रतिमा विसर्जन का जलूस निकला, जिसकी कुछ प्रतिमाओं को चौक के पास विसर्जन के लिए प्रशासन द्वारा जबरन रुकवा दिया गया। उत्तेजना स्वाभाविक थी, उपद्रव हुआ और कुछ दुकानें जला दी गईं। फैजाबाद शहर से आठ दस किलोमीटर दूरी पर मदरसा कस्बे में, जहां अस्सी प्रतिशत आबादी मुसलमानों की है, वहां भी बड़े पैमाने पर आगजनी हुई। इस सबके लिए रूदौली से भाजपा विधायक रामचंद्र पाल को आरोपी बनाने की कोशिश की गई। यद्यपि उनका इस कस्बे से कोई सम्बन्ध नहीं है।
मार्कंडेय काटजू ने प्रेस परिषद द्वारा इसकी जांच कराई और जांचकर्ता ने अपना प्रतिवेदन काउंसिल को सौंपने के साथ ही समाचार पत्रों में भी प्रकाशित करा दिया। 'जांच समिति' के एकमात्र सदस्य फैजाबाद से ही प्रकाशित होने वाले दैनिक जनमोर्चा के मुद्रक प्रकाशक, सम्पादक शीतला सिंह थे। जनमोर्चा को वामपंथी पत्र माना जाता है। सहकारिता पर आधारित यह समाचार पत्र अब शीतला सिंह की सम्पत्ति है, जो अयोध्या में रामजन्मभूमि पर बने ढ़ांचे के संदर्भ में रायबरेली की सीबीआई अदालत में श्री लालकृष्ण आडवाणी आदि के दोषी होने की गवाही भी दे चुके हैं। 'सहमत' द्वारा अर्जुन सिंह के सौजन्य से राम-सीता के सम्बन्धों को कुत्सित रूप में दिखाने वाली प्रदर्शनी लगाने में शीतला सिंह सहायक थे। इस प्रदर्शनी को कांग्रेसियों ने ही ध्वस्त कर दिया था, जिसके कारण उत्तर प्रदेश वर्तमान कांग्रेस अध्यक्ष निर्मल खत्री से अर्जुन सिंह जीवन भर खफा रहे। निर्मल खत्री उस समय फैजाबाद से लोकसभा सदस्य थे और आज भी हैं।
शीतला सिंह की पृष्ठभूमि की सांकेतिक रूप से ही व्याख्या उनकी वैचारिक मानसिकता और आचरण को समझाने के लिए आवश्यक थी। लेकिन मूल प्रश्न यह नहीं है कि शीतला सिंह ने ऐसी रपट क्यों दी? मूल प्रश्न यह है कि क्या प्रेस काउंसिल के कार्य-क्षेत्र में 'दंगों की जांच' भी शामिल है? प्रेस काउंसिल का अध्यक्ष पद एक संवैधानिक दायित्व है, जिस पर उच्च न्यायालय के अवकाश प्राप्त न्यायाधीश की ही नियुक्ति की जाती है, ताकि वह 'प्रेस' को सुरक्षा प्रदान कर सके और प्रेस के के द्वारा उत्पीड़ित लोगों को राहत दे। पर मार्कंडेय काटजू ने फैजाबाद दंगे की जांच कराकर जो कुछ किया है वह संवैधानिक दायित्व के दायरे का उल्लंघन करने वाली घटना है। लेकिन पिछले आठ-दस महीनों में उत्तर प्रदेश के विभिन्न जनपदों तथा बंगाल में पत्रकारों का जो उत्पीड़न हुआ है, उसकी जांच कराने के लिए उन्होंने टीम क्यों नहीं गठित की? जबकि यही प्रेस काउंसिल का काम है। उन्होंने 'पेड न्यूज' पर गहरी चिंता व्यक्त की, लेकिन किस आधार पर पत्रकारों को 'मान्यता' दी जा रही है और समाचार संकलन और प्रेषण की बजाय वे क्या कर रहे हैं और सरकारें किस तरह उनको उपकृत कर रही हैं, क्या इसकी जांच करना प्रेस काउंसिल का काम नहीं है?
स्पष्ट है कि प्रेस काउंसिल के वर्तमान अध्यक्ष मार्कण्डेय काटजू पत्रकारों, पत्रकार संगठनों, समाचारों की गिरती साख, सरकारों द्वारा पत्रकारों को उपकृत किया जाना या उत्पीड़ित किए जाने आदि के दायित्व के निर्वाहन करने की बजाय जो कुछ भी कर रहे हैं, वह बहुत खतरनाक है। एक तरफ सरकार सीवीसी के संवैधानिक दायित्व निर्वहन पर प्रश्नचिन्ह लगा रही है, दूसरी तरफ प्रेस काउंसिल के अध्यक्ष के गैरसंवैधानिक तरीके को समर्थन प्रदान कर खतरनाक खेल खेल रही है।
सत्य का आदर्श और व्यवहार
हृदयनारायण दीक्षित
भारतीय चिन्तन में सत्य और नित्य पर्यायवाची हैं। उपनिषदों में सत्य ही ब्रह्म है, ब्रह्म ही सत्य है। वेदान्त में ब्रह्म सत्य है, जगत् मिथ्या है। सत्यमेव जयते भी ऐसा ही सूत्र है। लोक आस्था है कि अन्त में सत्य ही जीतता है। लेकिन 'अंत में सत्य की जीत' की कोई परिभाषा नहीं है। अंत किस बात का? लम्बी संघर्ष के बाद सत्य की जीत की बात शायद धीरज बनाए रखने के लिए कही गयी है। सामान्य जीवन में सत्य जीतता नहीं दिखाई पड़ता। जनतंत्र में बहुमत जीतता है। कोर्ट -कचहरी में अच्छा पैरोकार और महंगा वकील जीतता है, सत्यनिष्ठ हार जाता है। लड़ाई-झगड़े में बलवान और शस्त्रधारी जीतता है। राजनीतिक क्षेत्र में सत्यनिष्ठ, विचारनिष्ठ की पराजय पक्की। सभ्यताओं के संघर्ष में भी सत्यनिष्ठ सभ्यजन हारते रहे हैं, बर्बर और असभ्य ही जीतते रहे हैं। यही इतिहास है।
सत्य की पराजय के तमाम सत्य हैं। क्या सत्यनिष्ठ व्यवसायी व्यापार चला सकता है? क्या सत्यनिष्ठ प्रशासक अपना काम सफलतापूर्वक चला सकता है? आदि आदि। होशियार लोग सत्य को आदर्श बताते हैं और झूठ को व्यावहारिकता। सम्प्रति व्यावहारिकता ही सत्य है। 'व्यावहारिकता' बड़ा मजेदार जीवनमूल्य है। आधुनिक सभ्यता में इसे 'प्रैक्टिकल' होना कहा जाता है। लेकिन व्यावहारिकता भी सुख नहीं देती। सत्य दु:खदायी है ही, झूठ से लदी-फदी व्यावहारिकता भी पीड़ा ही देती है। सत्यनिष्ठा शाश्वत धर्म है और व्यावहारिकता अल्पकालिक धर्म। पुराणों में इसे आपद् धर्म कहा गया। आपातकाल में झूठ बोलने को अधर्म नहीं कहा गया। विद्वान, गाय और स्वयं को खतरे से बचाने के लिए झूठ बोलना उचित बताया गया है। अब विद्वान को खतरे से बचाने की कोई चिन्ता नहीं। कोई मरे, मारे, हमारा घर-परिवार ठीक रहे, यही आधुनिक व्यावहारिकता है। गाय की तो चिन्ता ही नहीं है। सिर्फ अपने सुख की ही चिन्ता है।
मूलभूत प्रश्न ज्यों का त्यों है- सत्य कब जीतेगा? अंत में? अंत किस चीज का? क्या कैलेण्डर साल का? या सृष्टि में प्रलय वाला अंत ही सत्य को विजयी बनाएगा? सत्य बहुरूपिया है। सत्य दर्द है और झूठ दर्द निवारक तेज प्रभावीकारी दवा। वेदान्त में ब्रह्म सत्य है, राजनीति में चतुराई। सत्य निष्कलुष है, वह चतुर नहीं होता, लेकिन चतुर सत्य होता है। सत्य झूठ नहीं होता लेकिन झूठ सत्य होता है। उसके अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता।
इस बात पर आध्यात्मिक रुचि वाले मित्रों को आपत्ति होगी। वे कहेंगे कि झूठ का भेद खुल जाता है और पर्दाफाश होते ही सत्य प्रकट हो जाता है। तर्क बिल्कुल ठीक है, लेकिन पर्दाफाश होने के पूर्व और होने तक उसका अस्तित्व और प्रभाव काम करता रहता है। झूठी गवाही में सजा हो जाती है। झूठ बोलकर फायदा उठाया जाता है और हानि भी पहुंचाई जा सकती है।
सत्यवादी होना बड़ा कठिन है। सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र बहुत पीडित हुए, लेकिन उनकी सत्यवादिता ने उन्हें अमर बनाया। गांधी जी सत्य-आग्रही थे। बीसवीं सदी के विश्व के सबसे बड़े सत्याग्रही। आधुनिक विश्व उनके आगे नतमस्तक है। सारी दुनिया में उनके दर्शन को नमस्कार किया जा रहा है। उनके जीवन संघर्ष में सत्य की जीत भले हुई हो, सत्याग्रही गांधी ने अनेक मामलों पर अपनी पराजय स्वीकार की। सत्य बेशक जीत गया लेकिन सत्याग्रही को क्या कहेंगे? प्रत्येक मनुष्य का इन्द्रिय बोध भिन्न है। इसलिए सबके अपने सत्य हैं। सब अपने-अपने सत्य पर अटल हैं। वैदिक ऋषियों की बात दूसरी है। उन्होंने अपनी अनुभूतियां बताई और कहा कि अपना सत्य तुम स्वयं खोजो – यह प्रवचन या वेद ज्ञान से नहीं मिलने वाला।
सत्य अभीप्सा सुन्दरतम् कामना है। मेरे जैसे लाखों जिज्ञासुओं में सत्य अभीप्सा है लेकिन जीवन अनुभव बार-बार सत्य से दूर ले जाते हैं। मेरे देखे अनेक सूर्योदय हुए। ऊषा आई। सुप्रभात आया। पक्षी गीत गाते चहके। हेमन्त, शिशिर, पावस, शरद्, बसंत आए। चित्त में अनेक राग गूंजे, रागिनियां फूटीं। लहालोट हुए हम कई बार। लगा कि अब सत्य के निकट हूं। बस थोड़ी दूर। अतिनिकट। लेकिन सत्य का इकतारा नहीं बजा। आचरण का सत्य ऊपरी आवरण है। रूप बदलते हैं। रूप के भीतर अरूप है। जानता हूं कि अरूप देखा नहीं जा सकता। रूप ही दृश्यमान है। अरूप अनुभूति में ही आ सकता है। तो क्या दृश्यमान यह जगत् अर्द्धसत्य है। मिथ्या कहने के लिए बड़ा साहस चाहिए। इसलिए कि दृश्यमान का भी कोई आधार तो होगा ही। कल्पना के लिए भी वास्तविक प्रतीक चाहिए। भारतीय चिन्तन में इसीलिए सत्य के खोज की महत्ता है। लोकसत्य है। वाणी में देखा हुआ ही कहना सार्वजनीन सत्य है। इससे इतर मिथ्या है। गोस्वामी जी ने ठीक ही डाटा है – 'नहि असत्य सम पातक पुंजा।
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