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श्रीराम की कथा मानव जीवन की कहानी है, जो रात-दिन हमारे जीवन में चलती रहती है। दुनिया की ऐसी कौन सी प्रमुख भाषा है, जिसमें रामकथा न हो। यह भाषा, देश, जाति, धर्म और काल की सीमाओं को तोड़ कर, युग-युग के असंख्य नर-नारियों के मन में स्थान बनाती चली गयी है। मनुष्य जाति के पूरे इतिहास में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं दिखाई देता, जो किसी भी क्षेत्र में श्रीराम से श्रेष्ठ हो।
उनके राज्याभिषेक की तैयारी है, सारी अयोध्या आनन्द से थिरक रही है। सहसा श्रीराम को वन में जाने की आज्ञा मिलती है। कहां राज्य, कहां वन गमन? इतनी कम उम्र में वनवास। वनवास के बाद लौटने पर ऐसा अर्थहीन राज्य सुख, वन-वन फिरना, विवश हो जाना। इतना ही नहीं अपनी पत्नी के हरण के रूप में सारी धार्मिक व्यवस्था को चूर-चूर होते देखना। वे कठिनाइयों से घबराते नहीं, बल्कि उसका डट कर सामना करते हैं। वे पहले समन्वय की कोशिश करते हैं। समन्वय के विफल होने पर दुष्टता का बलपूर्वक मुकाबला करते हैं। समुद्र के द्वारा विनय-निवेदन का तिरस्कार श्रीराम को वाण चलाने पर विवश करता है। इसी प्रकार पहले उन्होंने हनुमान और अंगद को भेजा, सुलह की संभावना न देख, रावण का सैन्य सहित वध किया। वे अपने शौर्य और पराक्रम पर न तो गर्व करते हैं न उसका बखान ही करते हैं। धर्म के नाश को कैसे और किस तरीके से समाज हित में रोका जाय यही उनकी मूल चिन्ता थी।
श्रीराम का चरित्र धर्ममय था। उन्होंने धर्म का उपदेश नहीं किया, धर्म को जिया। उनकी कथनी और करनी में भेद नहीं था। वे जानते थे कि आचरण से ही धर्म पैदा होता है-
आचार प्रभवो धर्म:
राम का सबसे प्रिय वह मनुष्य है जिसने अपने मन को वश में कर, इन्द्रियों को संयत रखा है। यही कारण है कि हनुमान जी भगवान को अत्यन्त प्रिय हैं।
इतना ही नहीं राम, राज्य के भूखे नहीं थे, वे न तो गृह कलह चाहते थे, न राज्य क्रांति। आज के नेताओं की भांति यह नहीं कहते कि 'मैं ही शासन करने योग्य हूं, मेरे सत्ता में पहुंचने पर ही तुम्हारा कल्याण होगा।' वास्तव में राम की सेना शत्रु-विजय की अपेक्षा चरित्र बल पर आधारित थी। तभी तो राम की तेजस्विता के सामने विश्व विजयी सिकन्दर, सीजर, नेपोलियन आदि बौने प्रतीत होते हैं। भौतिकतावादी आसुरी सभ्यता के उत्कर्ष को देख राम ने निश्चय किया कि शक्ति अहिंसा में नहीं, अन्याय के प्रतिकार में है।
अहिंसा परमो धर्म:
अहिंसा परम धर्म है परन्तु अन्याय का प्रतिकार उससे भी बड़ा धर्म है। यदि अहिंसा और अन्याय के प्रतिकार में विरोध आ जाए तो पहले को छोड़ कर दूसरे का अनुपालन हितकारी है। इस सत्य को ध्यान में रखते हुए उन्होंने धर्म युद्ध में समाज के कोल, भील, निषाद, बानर आदि जनजातियों सहित सभी वर्गों को शामिल किया। वनवास के दौरान पत्नी और छोटे भाई के साथ जन सम्पर्क बढ़ाते हुए गांव-गांव, जंगल-जंगल अधर्म के विरुद्ध शक्ति को एकजुट कर 'धर्म का रथ' तैयार किया,
सखा धर्ममय अस रथ जाके,
रिपु रण जीत सकहिं नहीं ताके।
जो धर्ममय रथ रामचरितमानस में तुलसीदास ने बताया है वह रथ यदि आज नहीं सार्थक है तो कब सार्थक होगा।
इस सत्य की याद जनमानस में ताजा करने हर वर्ष दशहरा पर्व आता है। सामान्यतया नवरात्र और रामलीला एक साथ सम्पन्न होते हैं। अत: इस पुण्य काल में सात्विक भोजन, सात्विक चिन्तन तथा भजन-पूजन द्वारा अपनी सात्विक शक्तियों का विकास जरूरी है। इस शुभ कार्य में रामलीला सदियों से अनुकूल वातावरण बनाने एवं प्रेरणा देने का काम करती रही हैं।
लोकनायक राम का मर्यादावादी चरित्र एवं रावण का दुराचारी-अहंकारी चरित्र दो विपरीत ध्रुव हैं जिनके मध्य मानवता पनप रही है। किसको धारण करने में व्यक्ति एवं समाज का हित है इसे विवेकपूर्वक सोचने की आवश्यकता है। यूं तो तुलसीदास ने रामचरित मानस के द्वारा मनुष्य मात्र के हृदय में राम की उपस्थिति कर दी है। उसे अपने हृदय में, अपने व्यवहार, आचार-विचार में रामचरित्र को उतारना है। हम समझें या न समझें हमें तो बस राम का हो जाना है, उनकी निकटता को श्वास-श्वास में अनुभव करना है। हमें बाहर की यात्रा पर नहीं जाना भीतर की यात्रा पर जाना है। स्वयं की खोज जब भीतर चलने लगे तब 'राम' के मर्म का संधान शुरू होता है। राम दशरथ पुत्र अयोध्यावासी हैं किन्तु मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में वे मनुष्य मात्र के आदर्श हैं। कैसे जीना है, कैसे व्यवहार करना है- इन प्रश्नों का समाधान राम का चिन्तन है, राम का आदर्श है। राम परम ऊर्जा हैं, वे हमारे भीतर छिपे हैं, वे ही जीवन का उत्कर्ष हैं। राम के स्वरूप को समझने के लिए जिस मार्ग से गुजरना होगा, वह मार्ग हममें छिपे देवत्व को निखारेगा, हमारे अहम को जलाएगा, हमारी सोच को तपायेगा- इस प्रक्रिया से ही हमारा विकास होगा। यह पीड़ा अनिवार्य है। इस पीड़ा से गुजरे बिना 'राम' के सत्य को समझना संभव नहीं।
राम के चरित्र के साथ-साथ रावण के चरित्र का अवलोकन भी जरूरी है। रावण किसी भी काल के अत्याचारी शासक से अधिक शक्ति संपन्न था। कोई भी दुष्कर्म उसकी क्रियाशीलता से परे नहीं था। फिर भी वह अपने ही चरित्र दोष से नष्ट हो गया। उसी के कारण समस्त कला, संस्कृति और समृद्धि सहित सोने की लंका भी नष्ट हो गई। अन्याय की शक्ति कभी शाश्वत, अटल और अजेय नहीं होती।
रामलीलाएं जहां एक ओर लोकनायक राम के चरित्र को, 'राम राज्य' को उजागर करती हैं, वहां दूसरी ओर रावण कुल के द्वारा आसुरी जीवन शैली को भी प्रकट करती हैं। किन्तु आज आडम्बर और मनोरंजन की अपसंस्कृति के कारण भड़काऊ संगीत, नृत्य और सजावट के सामने संस्कारों का संदेश धीमा होता जा रहा है। चौपाइयों के साथ-साथ फिल्मी लटके-झटके, श्रीराम के नाम पर आदर्शहीन चरित्रों की बढ़ती भीड़ रामलीलाओं की मर्यादा के अनुरूप नहीं है। इस ओर आत्ममंथन करना होगा।
श्रीराम आत्मबल के प्रतीक हैं। राम का भाव विशालता का भाव है- वह भाव ही वर्तमान भारत को सही दिशा दे सकता है। कर्म की पूर्णता और शुद्धता के लिए राम ही एकमात्र आदर्श हैं। उनका नाम अन्त:करण में होने वाले देवासुर संग्राम को शान्त कर मनुष्यत्व को जगा देता है –
राम नाम कर अमित प्रभावा,
संत पुरान उपनिषद् गावा।
राम का नाम लेने से भवसागर का विषम ज्वर स्वत: शान्त हो जाता है-
नामु लेत भवसिंधु सुखाहीं,
करहु विचारु सुजन मन माहीं।
इस विश्वास को दृढ़ करना है कि राम के साथ होने पर अकल्याण हो ही नहीं सकता। बुराइयां अनन्त हैं। यदि एक-एक कर काटना चाहेंगे तो उन्हें कभी नहीं काट पायेंगे। उसे तो जड़ से ही समाप्त करना होगा।
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