भारत सरकार पिछले काफी समय से विपक्ष की आलोचना और विरोध का सामना कर रही है। पहले राष्ट्रमंडल खेल घोटाला, तो बाद में 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला और अब कोयला घोटाला। और अभी न जाने कितने घोटाले उजागर होने बाकी हैं, कोई नहीं जानता। देश में विकास दर घटती जा रही है। पिछले साल यह लगभग 6.5 प्रतिशत आंकी गई थी, चालू वर्ष में यह और भी घट सकती है। देश की कमान अर्थशास्त्रियों के हाथों में होने के बावजूद आर्थिक व्यवस्था चरमरा रही है। लगातार बढ़ती महंगाई और उसके चलते ऊंची ब्याज दरें और उससे घटते निवेश, गिरती घरेलू मांग और इस सब के फलस्वरूप घटता औद्योगिक उत्पादन, बढ़ता व्यापार घाटा और उससे लगातार कमजोर होता रुपया, सतत बढ़ता राजकोषीय घाटा और राजकोष की बिगड़ती व्यवस्था; ये सब बिगड़ते अर्थतंत्र की ओर इशारा करते हैं।
लेकिन पिछले कुछ महीनों से भारत सरकार और उसके प्रमुख प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह को कुछ दूसरे कारणों से अमरीकी अखबारों और राजनेताओं की आलोचना और दबावों का सामना भी करना पड़ रहा था। गत जून माह में अंतरराष्ट्रीय पत्रिका 'द इकोनॉमिस्ट' ने प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह के बारे में टिप्पणी की थी। उसके बाद जुलाई में 'टाइम' पत्रिका ने अपनी टिप्पणी में कहा कि प्रधानमंत्री 'अंडरअचीवर' यानी उम्मीद से कम साबित हुए हैं। 'टाइम' पत्रिका का कहना था कि प्रधानमंत्री में आगे बढ़कर देश को पुन: आर्थिक संवृद्धि के रास्ते पर लाने के प्रति इच्छाशक्ति का अभाव है। आर्थिक संवृद्धि में धीमापन, भारी-भरकम राजकोषीय घाटा और रुपये के अवमूल्यन जैसी भयंकर चुनौतियों के समक्ष संप्रग की गठबंधन सरकार आर्थिक दिशाहीनता का प्रदर्शन कर रही है। घरेलू हो या विदेशी, निवेशक नरम पड़ गये हैं। पिछले 3 वर्षों की अपनी द्वितीय पारी में प्रधानमंत्री का आत्म-विश्वास डगमगाता हुआ दिखाई दे रहा है और उनका अपने मंत्रियों पर भी कोई नियंत्रण नहीं रहा। 'टाइम' पत्रिका का यह भी कहना था कि लोक-लुभावन कार्यक्रमों के प्रति रुझान के कारण सरकार देश को आगे बढ़ाने सम्बंधी विधेयकों को पारित करवाने की दिशा में नहीं बढ़ रही। अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भी डा. मनमोहन सिंह पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि मनमोहन सिंह के नेतृत्व में चल रही सरकार के अंतर्गत निवेश का वातावरण खराब हुआ है और विदेशी निवेश के लिए अड़चनें लगाई जा रही हैं। हालांकि अगली ही सांस में बराक ओबामा प्रधानमंत्री को अपना परम मित्र और सहयोगी बताने से भी नहीं चूके। फिर अमरीकी अखबार 'वाशिंगटन पोस्ट' ने पिछले दिनों में प्रकाशित अपने लेख में प्रधानमंत्री पर निशाना साधा और उनकी 'दुर्भाग्यपूर्ण छवि' की बात की। 'वाशिंगटन पोस्ट' का कहना था कि प्रधानमंत्री ने अपनी दूसरी पारी में गरिमा खोई है। अपनी सम्मानित, समझदार और बुद्धिजीवी की छवि से अलग अब वे अक्षम, दुविधाग्रस्त और एक ऐसे अफसरशाह की छवि बन गये हैं, जो अत्यंत भ्रष्ट सरकार का प्रतिनिधित्व कर रहा है।
अमरीकीखीझकामतलब
पिछले लगभग दो दशकों से अमरीकी अखबार और राजनेता लगातार डा. मनमोहन सिंह के प्रशंसक रहे थे। लेकिन पिछले कुछ महीनों से उनके द्वारा की जा रही तीखी टिप्पणियों से हैरानी जरूर हो रही थी। भारत में आर्थिक कुप्रबंधन का यह कोई पहला मामला नहीं था। इससे पहले भी देश में राजनेता भ्रष्टाचार में लिप्त रहे हैं। मजेदार बात यह है कि 'वाशिंगटन पोस्ट' ने प्रधानमंत्री के पूर्व मीडिया सलाहकार संजय बारू और इतिहासकार रामचन्द्र गुहा नाम के जिन दो लोगों के हवाले से उनकी टिप्पणियों को प्रकाशित किया था, वे टिप्पणियां आज की नहीं हैं। उसने अपने मूल लेख में 'कैरेवन' नाम की पत्रिका, जिसमें ये टिप्पणियां 2011 में छपी थीं, का नाम भी प्रकाशित नहीं किया था। बाद में 'वाशिंगटन पोस्ट' ने अपनी भूल को स्वीकार करते हुए लेख का पुनर्लेखन करके उसे छापा। क्या कारण है कि 'वाशिंगटन पोस्ट' को प्रधानमंत्री पर 2011 में की गईं टिप्पणियां तब नजर नहीं आईं और तब उन्होंने यह लेख नहीं लिखा? उन टिप्पणियों को चुनकर अपने लेख में पिरोने की कवायद अब क्यों हुई, इसका अब खुलासा हो रहा है।
प्रधानमंत्रीकीमजबूरीखलरहीथीअमरीकाको
यदि ध्यान से देखें तो 'द इकॉनोमिस्ट', 'टाइम' और अब 'वाशिंगटन पोस्ट', तीनों द्वारा की गईं टिप्पणियां जरूर अलग-अलग थीं, लेकिन उन सब लेखों में मूल रूप से समानता यह थी कि तीनों लेख भारत में उनकी कंपनियों के हितों के लिये प्रस्तावित नीतियां आगे न बढ़ पाने की खीझ के कारण छापे गए थे। इन तीनों लेखों और अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के बयान, सभी में यह कहा गया था कि भारत में नीतियां आगे नहीं बढ़ पा रहीं। कहा गया कि भारत में नीतिगत लकवा दिख रहा है। गौरतलब है कि मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी ही नहीं, सरकार में शामिल तृणमूल कांग्रेस समेत कई राजनीतिक दलों के विरोध के चलते बहुराष्ट्रीय कंपनियों को खुदरा क्षेत्र में आने से रुकना पड़ा।
14 सितम्बर 2012 को भारत सरकार ने यह जानते हुए भी कि उसके सहयोगी दल इन नीतियों के पक्ष में नहीं हैं, 'मल्टी ब्रांड' खुदरा क्षेत्र में 51 प्रतिशत विदेशी निवेश को अनुमति दे दी। एक बार फिर से देश में इस मुद्दे पर बवाल मच गया। 20 सितम्बर को कांग्रेस और उसके कुछ सहयोगी दलों को छोड़कर वाम दलों, तृणमूल कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, भारतीय जनता पार्टी सहित लगभग सभी गैर कांग्रेसी दलों एवं व्यापारी, किसान और मजदूर संगठनों ने भारत बंद की घोषणा कर दी थी। तृणमूल कांग्रेस ने सरकार से अपना समर्थन भी वापस ले लिया था।
2009 कोदोहरानेकीतैयारी
गौरतलब है कि वर्ष 2009 में अमरीकी दबाव में आणविक ऊर्जा के संबंध में सीमित दायित्व विधेयक लाया गया था। इस विधेयक के अनुसार, विदेशी कम्पनियां जो संयंत्र आणविक ऊर्जा के लिए यहां लायेंगी, उसमें कोई खराबी होने पर उन विदेशी कंपनियों का दायित्व सीमित रहेगा। सरकार ने अमरीका से हुई आणविक ऊर्जा संधि को संसद से पारित करवाना था और इस मुद्दे पर उसके सहयोगी दल उसका साथ छोड़ चुके थे, उसके बावजूद सरकार ने अन्य दलों से साठगांठ करते हुए अपने इस प्रस्ताव को संसद से पारित करवा लिया, तब से सरकार पर सांसदों को खरीदने का आरोप भी लगता रहा है।
खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश के मुद्दे पर हालांकि सरकार अल्पमत में दिखाई देती है, लेकिन वह अपनी जिद पर अड़ी दिखती है। हालांकि तृणमूल कांग्रेस ने सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया है लेकिन अन्य दल, जैसे समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, द्रमुक, बीजू जनता दल सहित कई पार्टियां, जो इस मुद्दे पर सरकार के साथ नहीं हैं, विश्वास मत की स्थिति में सरकार को बचाने की मानसिकता रखती हैं। इसके लिए राजनीतिक सरगर्मियां तेजी पर हैं और तर्क यह दिया जा रहा है कि ऐसे में यदि सरकार को गिरा दिया जाता है तो देश में 'साम्प्रदायिक ताकतें' सिर उठा लेंगी। सवाल है कि वे सब दल, जो खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश को देशहित में नहीं मानते हैं, अगर इस मुद्दे पर गिर रही सरकार को थामने का काम करते हैं तो फिर उन्हें जनता को यह जबाव देना भारी पड़ेगा कि उन्होंने करोड़ों लोगों के रोजगार पर चोट करने वाला (जैसा कि वे स्वयं कहते हैं) फैसला क्यों होने दिया? क्यों उन्होंने देश के खुदरा व्यापार को विदेशियों के हाथ जाने दिया? शायद 'साम्प्रदायिकता' के हौव्वे के सामने ये सब सवाल उनके लिए बेमानी हैं। लेकिन ऐसा लगता है कि अमरीकी दबाव के सामने कांग्रेस नेतृत्व ही नहीं, हमारा अधिकांश राजनीतिक नेतृत्व भी नतमस्तक है। (लेखक पीजीडीएवी कालेज, दिल्ली विश्वविद्यालय के एसोसिएट प्रोफेसर हैं।)
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