चार धाम यात्रा पर विशेष
|
चार धाम यात्रा पर विशेष
उत्तराखण्ड के तीर्थस्थल
प्रेम बड़ाकोटी
अक्षय तृतीया (24 अप्रैल) को गंगोत्री-यमुनोत्री धाम के कपाट खुलने के साथ ही उत्तराखण्ड की पवित्र चार धाम यात्रा का शुभारंभ हो जाएगा। वैसे तो सम्पूर्ण हिमालय एक तीर्थ क्षेत्र है। इसकी घाटी तथा प्रत्येक छोटी-बड़ी नदी के तट पर तीर्थ स्थित हैं। सामान्य रूप से बदरीनाथ,केदारनाथ,गंगोत्री तथा यमुनोत्री ही प्रमुख प्रचलित तीर्थ स्थान हैं, जिनकी दुनियाभर में मान्यता है। किन्तु यहां ऐसे अनेक ज्ञात-अज्ञात आस्था के केन्द्र हैं जो सांस्कृतिक दृष्टि से अपना विशेष महत्व रखते हैं,-पंचप्रयाग,पंचबद्री,पंचकेदार,नन्दादेवी, बैजनाथ, ताड़केश्वर, कण्वाश्रम, कालीकुमाऊं, हनौल, आदिबद्री,पलेठी का सूर्य मन्दिर आदि-आदि। हिमालय में जितनी अधिक संख्या में शिवलिंग या शिवालय स्थापित हैं, उतने कदाचित् ही अन्यत्र होंगे। इसी कारण केदारखण्ड में इसे शिवक्षेत्र कहा गया है।
देश के चारों कोनों पर स्थित चार धामों मे से एक है- बदरीनाथ। इसका सम्बन्ध सतयुग से है, जबकि अन्य धामों का त्रेता,द्वापर तथा कलियुग से । श्री बदरीनाथ के हर युग में नाम भी अलग-अलग हैं। सतयुग में इसे मुक्तिप्रदा, त्रेता में योगसिद्धिदा, द्वापर में विशाला तथा कलियुग में बद्रिकाश्रम के रूप में जाना जाता है। स्कन्धपुराण में इससे सम्बन्धित श्लोक मिलता है-
कृते मुक्तिप्रदा प्रोक्ता,त्रेतायाम् योगसिद्धिदा।
विशाला द्वापरे प्रोक्ता, कलौ बद्रिकाश्रमम्।।
शास्त्रकारों की मान्यता है कि इस धाम का महत्व तप के कारण से है। भगवान नारायण ने सृष्टि की रचना के पश्चात् जगत को कर्म मार्ग में अग्रसर करने की भावना से स्वयं यहां तप किया था। इस स्थल पर गरुड़ ने सहस्त्रों वर्षों तक तप के पश्चात् विष्णु वाहन होने की पदवी प्राप्त की थी। नारद को काम जीतने की शक्ति यहीं प्राप्त हुई। राम, कृष्ण आदि अवतारी पुरुषों के भी तप हेतु यहां आने के प्रमाण मिलते हैं। इसी मार्ग से पाण्डवों का स्वर्गारोहण सर्वविदित है।
मन्दाकिनी के पावन तट पर स्थित है, केदारनाथ। द्वादश ज्योतिर्लिंगों में 'हिमालये तु केदारम्' ऐसा उल्लेख है। यहां भगवान आशुतोष शिवशंकर सदा वास करते हैं। मन्दिर के गर्भगृह में भगवान शंकर ज्योतिर्लिंग स्वरूप शिला के रूप में स्थित हैं। सभामण्डप में पाण्डवों के विग्रह भक्त के रूप में प्रतिष्ठित हैं। इसके अग्रभाग में जगत्जननी पार्वती की सुशोभित प्रतिमा सहित अनेक मूर्तियां हैं तथा समीपवर्ती क्षेत्र में हंसकुण्ड, भैरवनाथ तथा नवदुर्गा आदि। यहीं कुछ दूरी पर बुराड़ीताल, वासुकीताल, भृगुपन्त तथा ब्रह्मकुण्ड आदि उपांग स्थित हैं, जो अध्यात्म तथा देशाटन की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। वासुकीताल में दुर्लभ पुष्प ब्रह्मकमल पाया जाता है। ये सभी स्थान केदारनाथ से 8 से 10 किलोमीटर की परिधि में हैं। मन्दिर के पार्श्व भाग में आद्यशंकराचार्य की समाधि है। इसे दण्डस्थल भी कहते हैं, जो सनातन धर्म की जीवन्तता का प्रतीक है।
कपाट खुलने के दिन का मुख्य आकर्षण उस दीपज्योति का दर्शन होता है, जो शीतकाल के लगभग छ: महीने पूजागृह में अनवरत जलती रहती है। बदरीनाथ तथा केदारनाथ मन्दिर के कपाट(द्वार) खुलने का लोकमान्य विधान आदिकाल से चला आ रहा है। यह मान्यता बनी हुई है कि छ: महीने देवपूजा के लिये कपाट बन्द रहते हैं तथा छ: महीने मानव पूजा के लिये मन्दिर के द्वार खुले रहते हैं। वृहद्नारदपुराण में इसका उल्लेख है-
लभन्ते दर्शनं पुण्यं, पापकर्म विवर्जिता
शण्मासे देवते: पूज्या, शण्मासेमानवेस्तथा
लम्बे कालखण्ड तक इस क्षेत्र के चारों तीर्थ-बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री एवं यमुनोत्री के मन्दिरों की व्यवस्था संरक्षक के रूप में टिहरी नरेश देखते हैं।
पौराणिक काल से तीर्थाटन के लिये पैदल यात्रा की परम्परा विकसित थी। यातायात के प्रचलन से यात्रा की यह विधा धीरे-धीरे लुप्त होती गई। पैदल यात्रा को आधार मानकर ही वर्तमान परिवहन मार्गों का निर्माण हुआ है। इस सम्पूर्ण मार्ग में चट्टी व्यवस्थायें थीं। हरिद्वार से जहां एक ओर देवप्रयाग होकर केदारनाथ व बदरीनाथ तक चट्टियों की श्रृंखला थी, वहीं दूसरी ओर हरिद्वार, देहरादून, मसूरी होकर धरासू तथा यमुनोत्री व गंगोत्री तक फैले ये पड़ावस्थल यात्रियों को पैदल मार्ग पर सब प्रकार की सुविधायें प्रदान करते थे। बदरीनाथ से कर्णप्रयाग लौटकर वहां से रामनगर की ओर मार्ग जाता था, इसमें आदिबद्री, भिकियासैण, कोट आदि प्रमुख चट्टियां थीं। इस प्रकार सैकड़ों चट्टियां सम्पूर्ण पर्वतीय क्षेत्र के लोगों को पर्यटन उद्योग से भी जोड़ती थीं। विषम धरातल के इस सुदूरवर्ती क्षेत्र की आर्थिकी का यह एक बड़ा आधार था। तीर्थयात्रा का पारम्परिक क्रम यमुनोत्री से प्रारम्भ होकर गंगोत्री, केदारनाथ तथा अन्त में बदरीनाथ है। यमुनोत्री तथा केदारनाथ मोटर मार्ग से दूर होने के कारण पैदल यात्रा ही करनी होती है, इससे यात्रा का वास्तविक आनन्द प्राप्त होता है तथा यहां के नैसर्गिक सौन्दर्य को निकट से देखने व अनुभव करने का अवसर प्राप्त होता है। यात्रा के समय वर्षाकाल में कच्चे पहाड़ के दरकने के कारण कुछ व्यवधान भी आता है। सीमा सड़क संगठन तथा राष्ट्रीय राजमार्ग विभाग के द्वारा कुशल रखरखाव की व्यवस्था की जाती है।
'श्रीबदरीनाथ, केदारनाथ मन्दिर समिति' तीर्थाटन की गतिविधियों का संचालन करने वाली एक प्रभुत्व सम्पन्न संस्था है। समिति के मुख्य कार्याधिकारी बताते हैं कि- मन्दिर के कपाट खुलने की तैयारी, व्यवस्थाओं की चिन्ता, आवश्यक पूर्तियां पर्याप्त समय पूर्व कर ली जाती हैं, क्योंकि कपाट खुलते ही भक्तों का सैलाब उमड़ता है। गत वर्ष 8 लाख देशी-विदेशी यात्री यहां आये थे। देहरादून सहित यात्रा मार्गों पर 50 से अधिक विश्राम गृह समिति द्वारा स्थापित किये गये हैं। मन्दिर समिति को प्राप्त धन का उपयोग जनसेवा के उपक्रमों में भी किया जाता है, जिनमें संस्कृत विद्यालयों को सहयोग, हिन्दी- भाषी शिक्षण संस्थानों को मदद, नि:शुल्क भोजनालय आदि-आदि। केदारनाथ में मन्दिर समिति का एक औषधालय भी संचालित है।
गंगामैया का स्मरण किये बिना तीर्थों का उल्लेख करना ऐसा ही है जैसा प्राणों के बिना शरीर की स्थिति रहती है।
बदरीनाथ से आने वाली अलकनन्दा तथा गंगोत्री से आ रही भागीरथी दोनों का संगम स्थल है- देवप्रयाग। यहीं से निकली संयुक्त धारा को गंगा नाम मिला है। पंचप्रयागों का प्रवेश द्वार, यह एक प्रमुख संगमतीर्थ है। मर्यादा पुरुषोत्तम के भव्य प्राचीन मन्दिर से सुशोभित यह नगरी बदरीनाथ के तीर्थपुरोहितों का पैतृक स्थान है।
पर्यटन के बढ़ते आयाम के साथ तीर्थाटन की आत्मा भी जीवन्त बनी रहे इस बात की सजगता चाहिये। पर्यटन के साथ पनप रहा पाश्चात्य अन्धानुकरण पहाड़ के वातावरण के लिये घातक सिद्ध होगा। बिगड़ते पर्यावरण तथा विपरीत व्यवहार के कारण ग्लेशियर सिमटते जा रहे हैं, गंगा समेत अनेक नदियों का जल कम हो रहा है। विकास के नाम पर विकार न आये इसका ध्यान रखना भी आवश्यक है।
प्राचीनकाल से अतिथि सत्कार की जो परम्परा अपने देश में रही है, वह आज भी इन तीर्थों में दिखाई देती है। वर्षानुवर्ष से यात्री और पुरोहित का जो नाता विकसित हुआ है, उसका योग्य प्रकार से निर्वहन होता आ रहा है। वर्षों पुराने पत्रव्यवहार इस बात की पुष्टि करते हैं कि यात्री अथवा भक्तों की यहां परिवारजनों के समान चिन्ता होती थी, यह व्यवहार आज भी निरन्तर है। यहां उपलब्ध डेढ़ सौ वर्ष पुराने एक इश्तिहार में पुरोहित समाज द्वारा घोषणा की गई कि देवदर्शन के लिये पधार रहे आप हमारे अतिथि हैं। हम आपकी सेवा के लिये तत्पर हैं। दूर देश से आते समय यदि आप अस्वस्थ हो गए हों तो हम जड़ी-बूटियों द्वारा उपचार देंगे। अपने स्थान पर पहुंचने के लिये यदि पैसा घटे तो हम उसकी भी व्यवस्था देंगे। कल्पना करें, यात्री के साथ इतना आत्मीय भाव अन्यत्र कहां ʨɱÉäMÉÉ?n
टिप्पणियाँ