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संसद में न्यायमूर्ति सौमित्र सेन पर महाभियोग की कार्यवाही से बाहर से केवल यह नजर आ रहा है कि भ्रष्टाचार के आरोपी एक न्यायाधीश को हटाये जाने की कार्यवाही चल रही है। राज्यसभा ने उसे भारी बहुत से पारित कर दिया है। बताया यह भी जा रहा है कि यह पहला मौका है जब राज्यसभा ने महाभियोग के किसी प्रस्ताव को पारित किया हो। किन्तु यह घटनाक्रम यहीं तक सीमित नहीं है। भ्रष्टाचार के विरुद्ध चल रही मौजूदा सामाजिक लड़ाई की पृष्ठभूमि में यह कार्यवाही अब और भी अधिक महत्वपूर्ण हो गयी है।
राज्यसभा के सामने अपना बचाव करते हुए कोलकाता उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति सौमित्र सेन ने कहा कि मुझे बलि का बकरा बनाया जा रहा है। सर्वोच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश के.जी. बालाकृष्णन पर आरोप लगाते हुए उन्होंने कहा कि उन्होंने उन्हें (सौमित्र सेन को) त्यागपत्र देने के बदले किसी सार्वजनिक उपक्रम में सम्मानजनक पद देने का प्रस्ताव किया था। उन्होंने इस बात पर भी नाराजगी व्यक्त की कि गाजियाबाद के भविष्य निधि (पी.एफ.) घोटाले से जुड़े न्यायाधीशों का कुछ भी नहीं हुआ। न्यायाधीश निर्मल यादव तथा दिनकरन जैसे प्रकरणों की ओर इशारा करते हुए उन्होंने यह भी शिकायत की कि उनके साथ भेदभाव किया जा रहा है और तमाम लोगों को छोड़ा जा रहा है। उल्लेखनीय है कि महाभियोग की कार्यवाही के समय सदन एक अदालत के रूप में बैठता है। आरोप के पक्ष में या उसके खिलाफ दलीलें दी जाती हैं। इसी क्रम में विपक्ष के नेता अरुण जेटली ने न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार पर चिन्ता व्यक्त की। न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया को कठघरे में खड़ा किया और न्यायाधीशों की जवाबदेही तय करने तथा तमाम उन कार्यवाहियों को पारदर्शी बनाने पर जोर दिया जो आम जनता के सामने नहीं आ पातीं। सोमनाथ चटर्जी ने भी सदन से बाहर अपने एक वक्तव्य में अरुण जेटली द्वारा उठाये गये बिन्दुओं से सहमति व्यक्त की। मौजूदा घटनाओं की पृष्ठभूमि में तीन प्रश्न अत्यन्त महत्वपूर्ण हो जाते हैं। पहला यह कि इसका न्यायपालिका के ऊपर क्या असर पड़ेगा? दूसरा, न्यायपालिका में पारदर्शिता तथा न्यायाधीशों की जवाबदेही तय करने के लिए क्या किया जाना चाहिए? और तीसरा यह कि मौजूदा व्यवस्था में सुधार की क्या सम्भावनाएं हैं?
बनता-टूटता विश्वास
पिछले दो दशकों में न्यायपालिका की प्रतिष्ठा में अत्यंत वृ#ृद्धि हुई है और साख को बट्टा भी लगा है। एक तरफ लोग उसे भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई के अभियान का व्सेनापतिव् मानने लगे हैं। समाज के तमाम दोषों के परिष्कार का सबसे महत्वपूर्ण माध्यम मानने लगे हैं, और इसकी ठोस वजहें भी थीं। भ्रष्टाचार में लिप्त लोगों को जेल भेजने का मामला हो या गंगा नदी को प्रदूषण से मुक्त करना, वनों की अंधाधुंध कटाई रोकना हो या राजनीतिक आन्दोलनों से जनता को होने वाली असुविधा से निजात दिलाना, इस तरह के तमाम मामलों में न्यायपालिका के सकारात्मक दखल से आम आदमी को प्रत्यक्ष लाभ मिला। ऐसे में जब न्यायपालिका की प्रतिष्ठा आसमान छू रही थी, तभी एक-एक करके न्यायाधीशों द्वारा भ्रष्टाचार के कई प्रकरण उजागर हो गए। बी. रामास्वामी, शमित मुखर्जी तथा दिनकरन ने त्यागपत्र देकर अपने को पृष्ठभूमि में छिपा लिया, किन्तु मौजूदा मामले में ऐसा नहीं हुआ। सौमित्र सेन ने महाभियोग की कार्यवाही से लड़ने का मन बनाया। अभी लोकसभा के सामने भी इस पर बहस होगी, और यदि लोकसभा भी इसे पारित कर देती है और राष्ट्रपति सौमित्र सेन को पदमुक्त कर देते हैं तो सम्भव है कि वे सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा भी खटखटाएं। इस पूरे घटनाक्रम से न्यायपालिका के वे वास्तविक दोष आम आदमी तक पहुंचेंगे जिनसे वह अब तक वाकिफ नहीं था।
पारदर्शी होना आवश्यक
राज्यसभा में महाभियोग पर चर्चा के दौरान वरिष्ठ अधिवक्ता और सदन में भाजपा संसदीय दल के नेता अरुण जेटली ने न्यायाधीशों के नियुक्ति की मौजूदा व्यवस्था को अपारदर्शी और अव्यावहारिक बताया। उन्होंने कहा कि सन् 1993 तक न्यायाधीशों की नियुक्ति में कार्यपालिका की भूमिका अहम होती थी। उसके बाद सर्वोच्च न्यायालय ने उसे अपने हाथ में ले लिया। अब न्यायपालिका ऐसी संस्था है जिसमें खुद वे अपनी नियुक्ति करते हैं तथा उसकी पूरी प्रक्रिया गोपनीय रखी जाती है। नियुक्ति के मामले में आमतौर पर कार्यपालिका को मुख्य न्यायाधीश की राय माननी होती है। यह महज संयोग भी हो सकता है, किन्तु इसमें कोई संदेह नहीं कि सन् 1993 के बाद न्यायाधीशों द्वारा भ्रष्टाचार के मामलों में बहुत तेजी आयी है। नियुक्ति के मामले में भाई-भतीजावाद के आरोपों में भी वृद्धि हुई है तथा अधिकारों के दुरुपयोग के मामले उजागर हुए हैं। आम लोगों को यह भी लगने लगा है कि भ्रष्टाचार के जिन आरोपों के कारण राजनेताओं को पद छोड़ना पड़ता है या उसे जेल जाना पड़ता है, वैसे ही मामलों में न्यायाधीशों का कुछ नहीं बिगड़ता। अगर बात आगे बढ़ी तो वे त्यागपत्र देकर सभी आरोपों से मुक्त हो जाते हैं। भ्रष्टाचार के मामले में उनके ऊपर मुकदमा दर्ज नहीं होता।
अन्ना हजारे की भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम ने इस सोच को और भी अधिक धारदार बना दिया है। अदालतों/न्यायाधीशों पर भ्रष्टाचार के आरोप अब सामान्य सी बात हो गयी है। देश के लगभग हर हिस्से में इसे लेकर छोटे-मोटे आन्दोलन भी होते रहे हैं, किन्तु बात आगे नहीं बढ़ पायी। अब तक जो बात गुपचुप तरीके से कही जाती रही है, वह अब सार्वजनिक रूप से कही जा रही है। संविधान और कानूनी ढांचे का मौजूदा ताना-बना ऐसा है कि उसमें किसी न्यायाधीश के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की कोई गुंजाइश नहीं है। उनके विरुद्ध एकमात्र कार्रवाई यही हो सकती है कि उन्हें महाभियोग लगाकर हटा दिया जाए। बीते दो दशकों में न्यायपालिका की प्रतिष्ठा को गंभीर क्षति पहुंची है। हालांकि न्यायमूर्ति रामास्वामी के ऊपर दर्ज किया गया महाभियोग अंजाम तक नहीं पहुंचा, लेकिन उससे यह भी भेद खुला कि न्यायपालिका में भी सभी लोग दूध के धुले नहीं हैं। उसके बाद तो जैसे आरोपों का अंतहीन सिलसिला चल पड़ा। न्यायमूर्ति सौमित्र सेन, न्यायमूर्ति दिनकरन, गाजियाबाद का पीएफ घोटाला और पंजाब व हरियाणा उच्च न्यायालय के मामले सामने आए।
कैसे मिले प्रतिष्ठा?
अमरीका और ब्रिाटेन जैसे देशों के समाज का ताना-बाना ऐसा है कि व्यक्तिगत सम्बन्ध वहां के लोगों के व्प्रोफेशनलव् समर्पण के दायरे में आसानी से प्रवेश नहीं कर पाते। दूसरा यह कि उनकी अदालतों में न्यायाधीशों की नियुक्ति और उनकी जवाबदेही भारत की तुलना में कई गुना अधिक पारदर्शी है। तीसरा यह कि उन देशों में न्यायालय अवमानना कानून का आतंक बिल्कुल नहीं है, जिससे छोटे-मोटे दोषों का परिष्करण लगातार होता रहता है। अमरीकी लोगों की शुरू से ही मान्यता रही कि अवमानना कानून जैसे माध्यमों से अदालतों को प्रतिष्ठा नहीं दिलायी जा सकती बल्कि उनकी प्रतिष्ठा तो न्यायाधीशों की सत्यनिष्ठा और ईमानदारी से बढ़ती है। व्यावहारिक तौर पर ब्रिाटेन की अदालतों ने भी यही सिद्धान्त अपना लिया है। उनकी अदालतों ने पिछली आधी शताब्दी में अवमानना के लिए किसी को दण्डित नहीं किया। हमने इसका ठीक उल्टा किया, व्यक्तिगत हितों के लिए अवमानना के अधिकार के दुरुपयोग के कई प्रकरण सामने आए हैं। इससे मानवगत कमजोरियों को बचाने की ढाल मिल गयी, जो निरंकुश होने के कारण आगे बढ़कर कुछ लोगों के लिए हथियार बन गया। परिणाम यह हुआ कि उन कमियों को उजागर करने वाला तबका सहम कर चुप हो गया। यह सहमी हुई चुप्पी ही तथाकथित सड़ांध को बढ़ाने के लिए जिम्मेदार बनी।
हमारी न्यायपालिका के पास असीमित अधिकार हैं। दूसरे किसी भी मुल्क में न्यायपालिका को इतना अधिकार हासिल नहीं है। संसद की सर्वानुमति से पारित कानून पर भी एक न्यायाधीश रोक लगा सकता है। इन असीमित अधिकारों को पाकर कोई भी लौकिक प्राणी निरंकुश हो जाए तो आश्चर्य नहीं। आश्चर्य तो यह है कि इस अधिकार के दुरुपयोग के बहुत कम मामले सामने आते हैं। किन्तु अब समय आ गया है कि न्यायाधीशों को देवतुल्य मानकर उन पर तमाम मानवेत्तर अपेक्षाओं का बोझ न डाला जाय। उन्हें लौकिक मानकर उनसे लौकिक मानवों जैसी अपेक्षा करना ही समाज के हित में है। हमारी इस चूक के कारण न्यायाधीशों के अधिकारों का पलड़ा बहुत भारी हो गया है और जवाबदेही की अपेक्षा करीब-करीब तिरोहित हो चुकी है। इसके लिए जरूरी है कि उनकी नियुक्ति प्रक्रिया पारदर्शी बनाई जाए तथा उनकी जवाबदेही सुनिश्चित की जाए।
विशेषाधिकार क्यों?
कुछ माह पहले पूर्व कानूनमंत्री शांति भूषण का एक बयान सुर्खियों में था। उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के सामने शपथपूर्वक कहा था कि विगत 16 मुख्य न्यायाधीशों में आठ ऐसे थे जिनके बारे में पूरे विश्वास से कहा जा सकता है कि वे भ्रष्ट थे। उन्होने छ: मुख्य न्यायाधीशों के बारे में कहा कि वे पूर्णत: ईमानदार थे तथा शेष दो के बारे में वे विश्वासपूर्वक कुछ भी नहीं कह सकते। मैं यहां शांतिभूषण के कथन के गुण-दोष के बारे में चर्चा नहीं करूंगा किन्तु इसका निहितार्थ यह अवश्य है कि पानी नाक के ऊपर जा चुका है। शान्ति भूषण जैसे कानून के विशेषज्ञ भी अब अदालती अवमानना की लक्ष्मण रेखा लांघकर उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीशों की ईमानदारी को सार्वजनिक तौर पर कठघरे में खड़ा कर रहे हैं तो इसे नजरंदाज नहीं किया जाना चाहिये।
न्यायपालिका का भ्रष्टाचार इसलिए भी चिन्ता का विषय है क्योंकि न्यायाधीशों की सेवा शर्ते ऐसी हैं कि उनके खिलाफ कोई कार्यवाही करना असम्भव सा होता है। न्यायमूर्ति सौमित्र सेन के खिलाफ पिछले चार वर्षों से कार्यवाही चल रही थी फिर भी वे उच्च न्यायालय के न्यायाधीश हैं और वेतन-भत्ते ले रहे हैं। कई बार जनता को यह देखकर आश्चर्य होता है कि राजनेताओं के ऊपर लगे आरोपों के बाद वह तुरंत पद छोड़ देते हैं। जबकि न्यायाधीशों के खिलाफ ऐसे ही मामलों में कार्यवाही इतनी ढीली क्यों होती है?
खुद ही पहल करें
संसद द्वारा नियुक्ति समिति ने अपनी रपट में एक महत्वपूर्ण तथ्य की ओर इशारा दिया है। उसमें कहा गया है कि न्यायपालिका को अत्यन्त मजबूत सुरक्षा कवच और अत्यन्त विस्तृत अधिकार इसलिए दिया गया है ताकि वे स्वतंत्र और निष्पक्ष होकर काम कर सकें। उन्हें किसी का भय न रहे। रपट में आगे कहा गया है कि न्यायाधीशों को सुरक्षा इसलिए भी दी गयी है ताकि उन्हें अनर्गल आरोपों से बचाया जा सके और वे अपने दायित्वों का निर्वाह पूरी क्षमता से कर सकें। पर यदि बाड़ ही खेत को खाने लगे तो फिर जनता किसके ऊपर भरोसा करेगी? ऐसे में इस विषय पर व्यापक बहस की आवश्यकता है ताकि न्यायिक जवाबदेही सुनिश्चित की जा सके और न्यायपालिका की प्रतिष्ठा के क्षरण को रोका जा सके।
अन्ना हजारे पहले से ही न्यायपालिका को लोकपाल के दायरे में लाने के लिए आन्दोलन कर रहे हैं। व्यापक जन समर्थन भी उनके साथ है। न्यायिक जवाबदेही के लिए कानून बनाने की मंशा सरकार ने कई बार व्यक्त की है पर खोई प्रतिष्ठा को फिर हासिल करने के लिए न्यायपालिका को खुद पहल करनी होगी, अपने कार्यों में पारदर्शिता लानी होगी, सम्पत्ति की घोषणा जैसे मामलों की गोपनीयता के दुराग्रह को छोड़ना होगा, अधिकारों का दुरुपयोग और भ्रष्टाचार करने वाले लोगों को चिन्हित करके कठोर कार्रवाई करने और उनके ऊपर उसी तरह से मुकदमा चलाने का तंत्र विकसित करना होगा जैसा आम लोगों के साथ होता है। इसके लिए संविधान में संशोधन करना पड़ सकता है। बेहतर होगा कि यह सुझाव न्यायपालिका की ओर से आए। अगर ऐसा नहीं होता है तो सौमित्र सेन जैसे प्रकरण बार-बार होते रहेंगे।
इस बीच लोकसभा में 5 सितम्बर को प्रस्तावित महाभियोग से बचने के लिए न्यायमूर्ति सौमित्र सेन ने 1 सितम्बर को अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा देवी पाटिल को भेजे अपने त्यागपत्र में न्यायमूर्ति सेन ने कहा कि राज्यसभा द्वारा पारित प्रस्ताव के बाद अब मैंने लोकसभा में नहीं जाने का फैसला किया है। भले ही न्यायमूर्ति सेन ने महाभियोग की कार्यवाही पूर्ण होने से पहले ही पद से त्यागपत्र दे दिया हो, पर इस प्रकरण से न्यायपालिका की जवाबदेही और पारदर्शिता को लेकर शुरू हुई चर्चा निश्चित रूप से किसी ठोस धरातल पर जाकर रुकेगी।
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