मंथन
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रामलीला मैदान अब पूरी तरह शांत है। 18 से 28 अगस्त तक पूरे भारत ही नहीं, पूरे विश्व की दृष्टि उस पर केन्द्रित थी। देश के कोने-कोने से युवाओं की टोलियां वहां उमड़ी चली आ रही थीं। टेलीविजन चैनलों के कैमरे रामलीला मैदान पर डटे थे। न्यूज चैनलों और समाचार पत्रों पर केवल रामलीला मैदान के दृश्य छाये हुए थे। मैं भी अण्णा-तू भी अण्णा, भारत माता की जय, वंदेमारतरम्, अण्णा तुम संघर्ष करो- हम तुम्हारे साथ हैं, जैसे नारे पूरे वायुमण्डल में गूंज रहे थे। करोड़ों-करोड़ों अन्त:करण अण्णा का अनशन टूटने की कामना कर रहे थे, भगवान से राजनेताओं को सद्बुद्धि देने की प्रार्थना कर रहे थे। अण्णा का अनशन अब टूट चुका है। 28 अगस्त की प्रात:10 बजे खचाखच भरे विशाल रामलीला मैदान में सिमरन नाम की एक वंचित और इकरा नाम की एक मुस्लिम बालिका के हाथों जूस और शहद का पान कर उन्होंने अपना अनशन तोड़ दिया, राष्ट्र को चिंता मुक्त कर दिया। तीन दिन गुड़गांव के एक अस्पताल में स्वास्थ्य लाभ कर वे इस समय अपने ग्राम रालेगण सिद्धि में गणेश चतुर्थी का पावन पर्व मना रहे हैं। न्यूज चैनलों पर फिर पुराने कार्यक्रम वापस आ गये हैं। समाचार पत्रों में फिर हत्या, बलात्कार और राजनीतिक उठा-पटक के वही पुराने समाचार छा गये हैं।
नवचेतना का संचार
क्या सचमुच सब कुछ शांत हो गया? क्या अण्णा आंदोलन अपने लक्ष्य पर पहुंच कर इतिहास की गोद में समा गया? यह तूफान के बाद की शांति है या अगले तूफान से पहले की? इन प्रश्नों का उत्तर पाने के लिए 16 अगस्त की प्रात: अण्णा की गिरफ्तारी के क्षण से अण्णा के अनशन टूटने तक के अनेक परिदृश्यों और लहरों के घात-प्रतिघात को मन:चक्षुओं के सामने लाना बहुत आवश्यक था। एक ओर अकेले नियति पुरुष अण्णा और 5-7 अनजाने चेहरों की उनकी टीम और दूसरी ओर सर्वशक्तिमान सरकार, संसद की सर्वोपरिता की दुहाई देता स्वयं को भारत की 121 करोड़ जनता का निर्वाचित प्रतिनिधि कहने का दंभ पाले पूरा राजनेता वर्ग। दोनों के बीच 13 दिन तक खूब रस्साकसी चली। अंतत: दोनों पक्षों को विजयी घोषित किया गया। राजनेता पक्ष ने अपनी पीठ ठोंकी कि हमने संसद की सर्वोच्चता के सिद्धांत को पुन: स्थापित कर दिया, संविधान की मर्यादाओं को टूटने नहीं दिया। अब स्थायी संसदीय समिति तय करेगी कि लोकपाल के अधिकार क्या हों, उसकी चयन विधि क्या हो? अब बाजी हमारे हाथ में है। उधर जनमन और मीडिया ने इसे सत्ता पर लोकतंत्र की विजय के रूप में देखा। उसका विश्वास बना कि जनमत ने संसद को झुकने के लिए बाध्य किया। अण्णा जैसे अल्प शिक्षित, ग्रामीण परिवेश के, गरीब किसान परिवार में जन्मे व्यक्ति के रूप में भारतीय राष्ट्रवाद की नैतिक और लोकतांत्रिक चेतना मूर्तिमंत होकर अवतरित हुई और उनके आह्वान पर भारतीय राष्ट्रवाद तूफान बनकर उमड़ पड़ा, अपने विराट रूप में प्रगट हो गया। इस अण्णा आंदोलन ने प्रमाणित कर दिया कि स्वाधीन भारत के 64 वर्ष लम्बे भटकाव के बाद भी राष्ट्रवाद की प्राणधारा सूखी नहीं है, वह भारत के अचेतन मानस में प्रवाहमान है। उसको ऊपर लाने के लिए किसी शुद्धात्मा के नैतिक स्पर्श की प्रतीक्षा मात्र है। अन्ना के माध्यम से वह चमत्कार घटित हुआ। भारत के मूर्छित प्राणों में नवचेतना का संचार हुआ, भारत के भविष्य के बारे में आशावाद जाग्रत हुआ, स्वामी विवेकानंद की इस भविष्यवाणी में विश्वास पुनरुज्जीवित हो गया कि भारत के पास एक अमृतकुंभ है, जिसे विश्व को देने के लिए वह पराधीनता की सहरुाों वर्ष लम्बी काल- रात्रियों से जूझकर भी जीवित रहा है।
मुस्लिम कट्टरवाद अलग-थलग
किन्तु भविष्य के प्रति आशावाद और विश्वास के इस पुनर्जागरण की उमंग में विखण्डन और असहमति के उन स्वरों को अनदेखा करना उचित नहीं होगा जो इस राष्ट्रीय जागरण के इस महानिनाद के बीच सुनायी पड़े। जो मुस्लिम पृथकतावाद हमारे लम्बे स्वाधीनता संघर्ष के सामने यक्ष प्रश्न बनकर खड़ा रहा और जिसने मातृभूमि के विभाजन की दारुण स्थिति उत्पन्न की, जो खंडित भारत की वोट राजनीति को अपनी उंगलियों पर नचा रहा है, वही कट्टरवाद भ्रष्टाचार जैसे पंथनिरपेक्ष प्रश्न पर अपनी अलग ढपली बजाने लगा। इमाम बुखारी और दारुल उलूम ने भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से अलग रहने की अपने अनुयायियों को सलाह दी और इस आंदोलन को मुस्लिम हितों का विरोधी बताया। यह सच है कि स्वाधीनता आंदोलन के समान इस समय कुछ राष्ट्रवादी प्रगतिशाली मुस्लिम युवा इस आंदोलन के साथ खुलकर खड़े हुए। उन्होंने रामलीला मैदान में मंच पर खड़े होकर इफ्तार तोड़ने का प्रतीकात्मक दृश्य खड़ा किया। शाजिया इल्मी जैसी साहसी महिला ने टेलीविजन चैनलों पर आकर आंदोलन का पुरजोर समर्थन किया। किन्तु यह भी उतना ही सत्य है कि कुलदीप नैयर और राम जेठमलानी जैसे वरिष्ठ चिन्तकों को मुस्लिम समाज से अपील करनी पड़ी कि वे भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में पूरे मन से सम्मिलित हों (गार्जियन, 28 अगस्त)। अरविन्द केजरीवाल और किरण बेदी को अब्दुल्ला बुखारी को मनाने जाना पड़ा।
वंचित वर्ग के अलगाववादी चेहरे
मुस्लिम कट्टरवादियों से भी अधिक चिंता का कारण उन बुद्धिजीवियों और राजनेताओं का आचरण रहा जो भले ही वंचित वर्ग में जन्मे हों, पर जो शिक्षा, जीवनशैली, पद और प्रतिष्ठा की दृष्टि से व्दलित ब्रााहृणव् कहे जा सकते हैं, जो विभिन्न विश्वविद्यालयों एवं अन्य प्रतिष्ठानों में मोटा वेतन लेकर सुख-सुविधा की जिंदगी भोग रहे हैं, और जो गरीबी और अशिक्षा में डूबे अपने जाति-बंधुओं की उन्नति के लिए घड़ियाली आंसू बहाने से अधिक कुछ नहीं करते। इनमें हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय में प्रोफेसर और व्मैं हिन्दू क्यों नहीं?व् और व्हिन्दू उत्तर भारतव् जैसी जहरीली पुस्तकों के लेखक कांचा इलियाह, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के अध्यक्ष रहे जेएनयू के प्रोफेसर थोराट, जेएनयू के ही प्रो.विवेक कुमार, पायनियर के स्तंभ लेखक चंद्रभान प्रसाद और राजस्व विभाग के पूर्व अधिकारी उदित राज जैसे नाम गिनाये जा सकते हैं। इन सब बुद्धिजीवियों ने अन्ना आंदोलन को दलित और संविधान विरोधी घोषित कर दिया। उदित राज ने तो इंडिया गेट से जंतर मंतर तक अन्ना विरोधी रैली का भी आयोजन किया, जिसमें पैसा देकर लोग जुटाये गये (हिन्दुस्तान टाइम्स, 28 अगस्त)। उदित राज ने बहुजन लोकपाल बिल लाने की भी गर्वोक्ति की, जो अब तक दिखायी नहीं दिया। स्वाभाविक ही, दलित बुद्धिजीवियों के इस शोर- शराबे से उत्साहित होकर उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती, जिनकी अकूत सम्पत्ति और समृद्धि का आकलन संभव नहीं है, ने अपने दलित आधार को बनाये रखने के लिए राष्ट्रीय जागरण की इस लहर को दलित, बाबा भीमराव अम्बेडकर और उनके द्वारा बनाए संविधान का विरोधी घोषित कर दिया। इन्हीं मायावती के निर्देश पर राज्यसभा में उनके पार्टी सदस्यों ने भ्रष्टाचार के आरोपी न्यायमूर्ति सौमित्र सेन के पक्ष में मतदान किया। संभवत: मुस्लिम कट्टरवादियों और दलित बुद्धिजीवियों व सत्तारूढ़ राजनेताओं की ओर से उठे विरोध के इस स्वर का निराकरण करने के लिए ही, अण्णा जी के अनशन को तुड़वाने के लिए प्रतीक रूप में एक मुस्लिम और एक दलित बालिका को खोजकर लाया गया। शायद इसीलिए पहले अरविन्द केजरीवाल ने अपने धन्यवाद ज्ञापन भाषण में संविधान निर्माता के रूप में बाबा साहेब अम्बेडकर का स्तवन किया और कहा कि हम संविधान विरोधी नहीं है, हम संविधान की मर्यादाओं में रहकर ही अपना आंदोलन चलाएंगे। अंत में अण्णा ने व्यवस्था परिवर्तन के कार्यक्रम की पूरी रूपरेखा प्रस्तुत करते हुए बाबा साहेब अम्बेडकर का विशेष रूप से नामोल्लेख करना आवश्यक समझा। बाबा साहेब अम्बेडकर की महानता को पूरी तरह शिरोधार्य करते हुए भी यह धारणा कि वे ही स्वाधीन भारत के संविधान के अकेले निर्माता हैं, संविधान निर्माण प्रक्रिया के अज्ञान और व्यक्तिपूजा की प्रवृत्ति में से पैदा हुई है। पर, आज हमारा सार्वजनिक जीवन जिस तरह कोरी भावुकता और नारों का बंदी हो गया है, उसे दूर करने के लिए गहन अध्ययन और लोकशिक्षण नितांत आवश्यक है।
शनिवार (27 अगस्त) को संसद में बहस के समय दिखाई दिया कि सभी आरक्षणवादी भारतीय राष्ट्रवाद के इस महाजागरण से असहज हो उठे हैं और उसके लिए संविधान व संसद की सर्वोपरिता की आड़ ले रहे हैं। यह भी प्रकाशित हुआ है कि क्षेत्रीय दलों की झिझक के कारण प्रस्ताव के ध्वनिमत से पारित कराने की घोषणा को अंतिम समय पर त्यागना पड़ा क्योंकि ऐसे संवेदनशील विषय पर निर्वाचित प्रतिनिधियों की लोकसभा में सर्वानुमति के अभाव को जगजाहिर करना बुद्धिमानी न होता। मीडिया ने संसद की उस दिन की सफलता का श्रेय सत्तारूढ़ और विपक्ष के दो बड़े राष्ट्रीय दलों को दिया है। इसे राष्ट्रवाद की विजय ही कहा जा सकता है।
सोनिया मंडली का षड्यंत्र
अप्रैल से प्रारंभ हुए इस लोकपाल प्रकरण ने भारतीय लोकतंत्र के विरुद्ध वंशवाद के षड्यंत्रों पर भी देश का ध्यान आकर्षित किया है। जरा स्मरण कीजिए, अण्णा के अप्रैल अनशन के समय सोनिया के परामर्शदाता हर्ष मंदर के व्मैं जंतर मंतर क्यों नहीं गया?व् (हिन्दुस्तान टाइम्स, 14 अप्रैल) लेख का। लोकपाल बिल की संयुक्त प्रारूप समिति में कपिल सिब्बल और चिदम्बरम की कुटिल भूमिका के कारण ही अण्णा को 16 अगस्त को अनशन पर बैठना पड़ा। अनशन प्रारंभ होने के पहले ही दिग्विजय सिंह और मनीष तिवारी ने अण्णा और उनके साथियों पर अशिष्ट भाषा में भ्रष्टाचार के आरोप लगा दिये। अनशन के प्रारंभिक चरण में अण्णा की गिरफ्तारी से लेकर रामलीला मैदान तक पहुंचने तक ये दोनों भारत सरकार की अण्णा नीति पर हावी रहे। जब उनकी नकारात्मक भूमिका भारत सरकार के लिए बहुत महंगी सिद्ध होने लगी तब उन्हें किनारे करके अन्य मध्यस्थों को मैदान में उतारा गया।
सोनिया की सलाहकार परिषद के सदस्यों अरुणा राय और हर्ष मंदर द्वारा निर्मित एक नये प्रारूप को अण्णा के जन लोकपाल बिल के प्रतिस्पर्धी रूप में प्रस्तुत किया गया। अरुणा राय ने स्वैच्छिक समाजसेवी के रूप में अपनी प्रतिष्ठा को दांव पर लगाकर अण्णा की खुली आलोचना की। टीवी चैनलों पर उन्होंने और उनके साथियों ने अण्णा के प्रारूप की कटु आलोचना की, जिससे क्षुब्ध होकर व्टाइम्स नाऊव् चैनल ने उन्हें सरकार का आदमी घोषित कर दिया। वंशवादी टोली ने इससे भी खतरनाक खेल यह खेला कि अग्निवेश के रूप में अपना एक जासूस अण्णा टोली में घुसा दिया, जो अण्णा शिविर की अंतरंग गतिविधियों और विचार मंथन की जानकारी सोनिया टीम को पहुंचाता रहा। इस टीम की ओर से अण्णा पर दबाव डाला गया कि अग्निवेश को सरकार से संवाद करने वाली टीम में अवश्य रखा जाए। और अब तो अग्निवेश की किसी व्कपिलव् (सिब्बल) से बातचीत की सीडी प्रकाशन में आ जाने से वह बिल्कुल बेनकाब हो चुका है।
वंशवाद को चुनौती
अण्णा के पीछे जैसे-जैसे देशव्यापी जनज्वार उमड़ने लगा, वंशवादी टीम के हाथ-पैर फूलने लगे। समाचार आने लगे कि यदि सोनिया जी भारत में होतीं तो सरकार की ऐसी दुर्गति न होती, जबकि सोनिया जी लगातार सम्पर्क में थीं। उनके सम्पर्क का ही परिणाम रहा होगा कि शुक्रवार (26 अगस्त) को शून्यकाल में सदन के स्थापित नियमों का उल्लंघन कर राहुल गांधी खड़े हुए और उन्होंने एक पांच पृष्ठ लम्बा लिखित वक्तव्य पढ़ना प्रारंभ कर दिया, जबकि शून्यकाल में किसी भी सांसद को 2 या 3 मिनट से अधिक हस्तक्षेप करने का समय नहीं दिया जाता और उस समय लिखित वक्तव्य पढ़ने का प्रावधान तो है ही नहीं। पर राहुल का यह वक्तव्य वाचन पूर्व नियोजित था। विपक्ष उसके बारे में असावधान था, पर सोनिया पार्टी के सभी सांसदों को मोबाइल संदेश (एसएमएस) द्वारा उसके लिए तैयार कर दिया गया था। इसीलिए उन्होंने बार-बार अकारण ही मेजें थपथपाकर यह आभास पैदा करने की कोशिश की कि राहुल कोई बड़ा युगान्तरकारी उपाय प्रस्तुत कर रहे हैं। अपने उस भाषण के बाद राहुल ने पत्रकारों के सामने गर्वोक्ति की कि मेरा यह सुझाव खेल की बाजी को पलट देगा, व्गेम चेंजरव् सिद्ध होगा। जब पत्रकारों ने पूछा कि ऐसा व्गेम चेंजरव् वक्तव्य देने में आपने 11 दिन की देर क्यों की, तो राहुल का हास्यास्पद उत्तर था, व्मैं पहले सोचता हूं फिर बोलता हूं।व् राहुल के उत्साहवद्र्धन के लिए उनकी बहन प्रियंका की लोकसभा दीर्घा में उपस्थिति से शंका उत्पन्न हुई कि यदि सोनिया जी की बीमारी इतनी गंभीर है तो राहुल की 14 अगस्त को वापसी और प्रियंका का स्वदेश आगमन और सोनिया जी की जल्दी वापसी के समाचारों का क्या अर्थ है? कुछ पत्रकारों ने प्रश्न उठाया कि यदि सोनिया जी की बीमारी इतनी गंभीर थी कि उनकी अमरीका यात्रा व अस्पताल के नाम को गुप्त रखना जरूरी हो गया तो इतनी गंभीर बीमारी में उनके निजी चिकित्सक के साथ जाने का सामाचार क्यों नहीं दिया गया? राहुल के युगांतरकारी वक्तव्य पाठन की अग्निवेश ने जो भूरि-भूरि प्रशंसा की, इससे भी प्रगट हो गया कि वह किसका आदमी है।
मंजिल अभी दूर है
इसे भारतीय लोकतंत्र का सौभाग्य ही कहना होगा कि प्रणव मुखर्जी और सलमान खुर्शीद जैसे वरिष्ठ मंत्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ पूरी तरह एकजुट रहे और उन्होंने वंशवादी टोली को पूरी तरह निष्प्रभावी कर दिया। अण्णा के साथ खड़े जनज्वार ने दिग्विजय सिंह और मनीष तिवारी के मुंह पर ताला जड़ दिया, सोनिया की चाटुकार मंडली के तीन सदस्य-ए.के.एंटोनी, अहमद पटेल और जनार्दन द्विवेदी नेपथ्य में चले गये, कपिल सिब्बल और चिदम्बरम मुट्ठी बांध कसमसाते रहे। इस अवसर पर भारतीय लोकतंत्र प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ खड़ा हुआ। इस सत्य को रेखांकित करने के लिए ही विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने शनिवार (27 अगस्त) के अपने ऐतिहासिक भाषण में राहुल के व्गेम चेंजर लिखित वक्तव्यव् की धज्जियां उड़ाते हुए और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सराहना करते हुए सदन से कहा कि प्रधानमंत्री बोलते नहीं हैं, पर अब जब वे बोले हैं तो आप उनकी सुनते क्यों नहीं हैं। इस पूरे घटनाक्रम की गहराई में जाने से लगता है कि भारत की लोकतांत्रिक चेतना ने सोनिया पार्टी के भीतर ही वंशवाद का प्रतिरोध खड़ा कर दिया है। पर, पृथकतावाद, विखंडनवाद और वंशवाद के विरुद्ध राष्ट्रवाद की लम्बी लड़ाई के लिए तैयार रहना होगा। अभी पहला पड़ाव पार हुआ है, आखिरी मंजिल बहुत दूर है।
भारतीय राष्ट्रवाद के सामने आन्तरिक विखण्डन के खतरे का अनुमान इसी एक तथ्य से लगाया जा सकता है कि तीन हत्यारे आतंकवादियों को सर्वोच्च न्यायालय के स्पष्ट निर्देश के बाद भी मृत्युदण्ड नहीं दिया जा रहा है। क्योंकि पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारों के बचाव में तमिलनाडु विधानसभा ने सर्व सम्मत प्रस्ताव पारित कर दिया है। भारतीय संसद पर आक्रमण के अपराधी मोहम्मद अफजल को फांसी नहीं दी जा रही है, क्योंकि उसके पीछे कश्मीर घाटी का मुस्लिम पृथकतावाद खड़ा है। सिख आतंकवादी देवेन्द्र सिंह भुल्लर की फांसी टलती जा रही है, क्योंकि उसके समर्थन में सिख भावनाएं भड़काई गई हैं। सिख भावनाओं की नाराजगी का भय प्रत्येक राजनीतिक दल पर सवार है। एक ओर कहा जाता है कि आतंकवाद का कोई मजहब नहीं होता, दूसरी ओर प्रत्येक आतंकवादी के समर्थन में कोई न कोई मजहबी या क्षेत्रवादी समूह खड़ा है। क्या ऐसी मानसिकता के साथ अखिल भारतीय एकात्म राष्ट्रवाद का विकास संभव है?द (01.09.2011)
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