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द डा. तारादत्त “निर्विरोध”
सूरज की किरणें तो
पहले से उजली थीं,
भीतर के कोहरे का
मैलापन छंटा नहीं।
सोते में साथ रहे कुछ गंधाते सपने,
जब आंख खुली पाया, हम रहे नहीं अपने।
संबंधों की बेलें
दीवारें लांघ गयीं,
आंगन के पौधे का
पीलापन मिटा नहीं।
आंखों पर टंगे रहे, अवचेतन के परदे,
यह सोच कि कोई फिर आकर चेतन कर दे।
छोटी सी दृष्टि मगर
पर्वत तक पहुंच गयी;
दुनिया की आंखों से
अपनापन हटा नहीं।
भावुकता से ज्यादा भोलापन छला गया,
लेकिन ऐसा होना अनुभव दे गया नया।
सौ बार गिरे संभले,
भीड़ से बच निकले;
आपस की गुपचुप का
कड़ुवापन घटा नहीं।
देवभूमि का एक शोधपरक विहंगम अवलोकन
प्राचीन भारतीय साहित्य एवं पुराणों में हिमालय के पांच खंडों (नेपाल खंड, कूर्मांचल खंड, केदारखंड, जलंधर खंड और कश्मीर खंड) का वर्णन मिलता है। इनमें से एक- केदारखंड अपनी नैसर्गिक सुंदरता और आध्यात्मिक महत्व के लिए विशेष महत्व रखता है। वर्तमान समय में यह स्थान उत्तराखंड राज्य के गढ़वाल मण्डल के नाम से जाना जाता है। इस क्षेत्र की अनेक धार्मिक, सांस्कृतिक, वास्तुशिल्पीय और पर्यटकीय विशेषताओं का शोधपरक विहंगम अवलोकन हाल में ही प्रकाशित हुए शोधग्रंथ “केदारखण्ड” में किया गया है। इस शोधपरक दस्तावेज को तैयार करने के लिए लेखिका हेमा उनियाल ने वर्ष 2005 से वर्ष 2010 के बीच 18 बार लंबी शोध यात्राएं कीं। इसी दौरान वर्ष 2007 से 2010 के बीच लेखिका ने सतत् लेखन भी जारी रखा, परिणामस्वरूप यह महत्वपूर्ण शोध ग्रंथ सामने आ सका है।
कुल पंद्रह अध्यायों में विभाजित इस शोध ग्रंथ में केदारखंड के सात जनपदों (हरिद्वार, देहरादून, गढ़वाल, टिहरी, उत्तरकाशी, चमोली और रुद्रप्रयाग) के लोकदेवताओं, वास्तुकला और इसके ऐतिहासिक व सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की विस्तार से चर्चा की गई है। पुस्तक की प्रस्तावना में लेखिका ने इस भूखंड के पौराणिक महत्व को अनेक उद्धरणों से सिद्ध किया है। वे लिखती हैं, “महाकवि कालिदास ने अपने प्रथम महाकाव्य “कुमारसंभवम्” के प्रथम सर्ग के प्रथम श्लोक में हिमालय की प्रशंसा करते हुए इसे देवात्मा कहकर इस क्षेत्र की महत्ता को बढ़ाया है। इसके दूसरे अध्याय “प्रागैतिहासिक तथा आद्यैतिहासिक काल” में ऐतिहासिक प्रमाणों के द्वारा यह वर्णित किया गया है कि उत्तराखंड क्षेत्र का प्राचीन काल में क्या महत्व था। उदाहरण के तौर पर वह लिखती हैं, “महाभारत काल में इस क्षेत्र की राजनीतिक इकाइयों का महत्व स्पष्टत: विदित होता है। इसी तरह स्वामी शंकाराचार्य ने नेपाल से कश्मीर तक का धार्मिक उद्धार किया। यहीं श्री बदरीनाथ मंदिर का उद्धार किया और यहां से 42 किमी.दूर ज्योतिर्मठ की स्थापना की। 5 वर्ष तक वे इसी क्षेत्र में रहे और इस दौरान वेदों पर 16 भाष्य भी लिखे।” पुस्तक के अगले अध्याय केदारखंड की सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में लेखिका स्पष्ट करती हैं कि यद्यपि इस क्षेत्र का क्रमबद्ध इतिहास उपलब्ध नहीं है लेकिन वेद-पुराण में उपलब्ध विवरण इस स्थान के सांस्कृतिक तारतम्य को जोड़ने में सक्षम हैं। इसी अध्याय में बहुत संक्षेप में मध्यकालीन भारत और आधुनिक भारत में हुए राजनीतिक बदलावों के इस केदार खंड पर पड़ने वाले प्रभाव की चर्चा की गई है। स्वतंत्रता के बाद किस तरह जनपदों का बंटवारा किया गया, इसका भी विवरण इस अध्याय में दिया गया है।
इसके बाद के 7 अध्यायों में क्रमश: सातों जनपदों के प्रमुख धार्मिक व पर्यटक स्थलों का विस्तार से वर्णन किया गया है। प्रत्येक जनपद के बारे में अधिक से अधिक ऐतिहासिक व भौगोलिक जानकारी के साथ ही प्रसिद्ध व चर्चित धार्मिक स्थलों का सचित्र वर्णन किया गया है। इसके साथ उस स्थल पर पहुंचने के साधन और उसके आसपास के प्रमुख स्थलों का भी विवरण इस शोध ग्रंथ में सुनियोजित तरीके से दिया गया है। इस शोध ग्रंथ का महत्व केवल पर्यटकों या तीर्थयात्रियों के लिए ही नहीं है बल्कि इस भूभाग में संबंधित ऐतिहासिक व भौगोलिक शोधार्थियों के लिए भी बहुत मूल्यवान है। पुस्तक के ग्यारहवें अध्याय “लोकदेवता” में लेखिका ने अपने गहन शोध के आधार पर यह सिद्ध किया है कि केदारखंड के जनमानस में वैदिक और पौराणिक देवी-देवताओं की अपेक्षा स्थानीय देवी-देवताओं के प्रति अधिक श्रद्धा है। क्योंकि पौराणिक देवकुल के प्रमुख देवताओं के यहां न तो मंदिर हैं और न ही उनमें संबंधित पूजा-परंपराओं के प्रमाण मिलते हैं। इससे प्रमाणित होता है कि इस क्षेत्र में रहने वालों की प्राचीन काल से अपनी अलग धार्मिक मान्यताएं और संस्कृति है। कुछ देवी-देवताओं के जो प्राचीन मंदिर यहां स्थित हैं वह भी मध्ययुगीन या आधुनिक काल की ही देन हैं। इस अध्याय में केदराखंड के अनेक मान्य कुल देवताओं के बारे में संक्षिप्त जानकारी दी गई है।
वास्तुकला की दृष्टि से केदारखंड के भवनों, मंदिरों और स्मारकों में अतीत से लेकर आधुनिक काल तक क्या-क्या परिवर्तन हुए, किस तरह की वास्तुशैली का विकास किस युग में सर्वाधिक हुआ और इस खंड में वास्तुशिल्प की क्या विशेषताएं रही हैं, इन सभी सवालों के विस्तृत उत्तर ग्रंथ के अध्याय “वास्तुकला-एक विवेचन” में दिए गए हैं। केदारखंड के मंदिरों में मौजूद देव प्रतिमाओं की संरचनात्मक विवेचना लेखिका ने “प्रतिमा विज्ञान” अध्याय में की है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि किसी एक देवता की प्रतिमाओं में क्या भेद है। कहा जा सकता है कि यह शोध ग्रंथ केदारखंड को समग्रता से समझने के साथ ही, विशेष रूप से धार्मिक व पर्यटकीय दृष्टि से बहुत उपयोगी है। इस ग्रंथ के द्वारा लेखिका ने एक खाली स्थान की पूर्ति की है। निश्चित रूप से उनका यह प्रयत्न दूसरे लेखकों को भी शोधपरक लेखन के लिए प्रेरित करेगा। द
पुस्तक – केदारखंड(धर्म, संस्कृति, वास्तुशिल्प एवं पर्यटन)
लेखक – हेमा उनियाल
प्रकाशक – तक्षशिला प्रकाशन
98ए, हिंदी पार्क, दरियागंज, नई दिल्ली-2
सम्पर्क- (011) 23258802, 43528469 ध्र्ध्र्ध्र्.द्यठ्ठन्ण्त्थ्ठ्ठडदृदृत्त्द्म.त्द
मूल्य – 750 रुपये पृष्ठ – 540
वर्तमान की कसौटी पर मिथकीय नायक
आज भी कुछ रचनाकार कविता के माध्यम से न केवल प्राचीन मिथकीय कृतियों को पुनर्सृजित कर रहे हैं बल्कि उन्हें आज के संदर्भों और प्रश्नों की कसौटी पर मूल्यांकित करने का साहसिक कार्य भी कर रहे हैं। उद्भ्रांत ऐसे ही एक वरिष्ठ और गंभीर रचनाकार हैं। “त्रेता” और “रुद्रावतार” जैसे प्रसिद्ध महाकाव्य और खंडकाव्य को रचने के बाद कुछ समय पूर्व उनका एक और महाकाव्य “अभिनव पांडव” प्रकाशित होकर आया है। यह महाकाव्य जहां एक ओर महाभारत के धर्मनायक युधिष्ठिर की भूमिका और उनके चरित्र को नए रूप में गढ़ता है वहीं वर्तमान दौर के सवालों से भी उनकी मुठभेड़ कराता है।
मूल महाभारत कथा का भंजन करते हुए कवि ने कथानायक को उसकी दुर्बलताओं से मुक्त कराते हुए एक नया आयाम उजागर किया है। इसमें युधिष्ठिर धर्मराज होने से पहले स्वयं को एक साधारण मनुष्य के रूप में देखते हैं। उन्हें अतीत में घटित उचित-अनुचित घटनाएं याद आती हैं और कहीं न कहीं उन सबके लिए स्वयं को दोषी भी मानते हैं। सात सर्गों में विभाजित इस महाकाव्य के अंतिम दो सर्ग कवि ने नए स्वरूप में लिखे हैं। इसमें धर्मराज और चित्रगुप्त के तीखे सवाल युधिष्ठिर को पूरी तरह अनुत्तरित कर देते हैं। यहीं पर इस महाकाव्य की कथा आज के संदर्भों से जुड़ जाती है। उन सभी अन्यायपूर्ण और अधार्मिक कृत्यों के प्रति युधिष्ठिर के मन में जन्मने वाला प्रायश्चित का भाव एक नई कथा का प्रस्थानबिन्दु बन जाता है। कह सकते हैं कि यह महाकाव्य दरअसल आज के संदर्भों में मिथकीय कथा का मूल्यांकन करने की मांग करता है। साथ ही यह भी सिद्ध होता है कि समय कोई भी हो, मनुष्य से जुड़े सवालों का स्वरूप भले ही बदल गया हो, लेकिन उनके मूल में उपस्थित तत्व चिर पुरातन है।द
पुस्तक – अभिनव पांडव (महाकाव्य)
रचनाकार – उद्भ्रांत
प्रकाशक – नेशनल पब्लिशिंग हाउस,
2/35 अंसारी रोड, दरियागंज, दिल्ली-2
सम्पर्क- (011)23254407
दठ्ठद्यत्दृदथ्ट्ठद्रद्वडथ्त्द्मण्त्दढ़ऋठ्ठत्द्धद्यड्ढथ्थ्र्ठ्ठत्थ्.त्द
मूल्य -300 रुपए, पृष्ठ -170
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