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मजहबी आधार पर देश के बाकी राज्यों के मुकाबले एक पृथक दर्जा रखने वाले जम्मू-कश्मीर में अलगाववादी सोच ने जीवन के कई पक्षों को बुरी तरह प्रभावित करने के पश्चात अब देश की संवैधानिक न्याय प्रणाली तक को भी अपनी चपेट में लेने की कोशिश शुरू कर दी है। इस संदर्भ में देश में लोकतंत्र की प्रतीक संसद पर आक्रमण करने के दोषी जिहादी अफजल को फांसी देने के निर्णय पर भी प्रश्नचिन्ह लगाने आरम्भ कर दिए गए हैं। विचित्र बात यह है कि ऐसा करने वालों में स्वयं मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला शामिल हैं। उनका वह वक्तव्य पूरे देश में भर्त्सना का निशाना बना है जिसमें उन्होंने राजीव गांधी के हत्यारों तथा अफजल जैसे अपराधियों की फांसी निरस्त करने की पैरवी करते हुए कश्मीर में शांति प्रक्रिया तक के प्रभावित होने की एक प्रकार से चेतावनी दी है।
उमर अब्दुल्ला की यह साम्प्रदायिक तथा अलगाववादी सोच कोई नई बात नहीं है। अफजल का मामला देश की न्याय प्रणाली के साथ सीधा जुड़ा है। किन्तु इस संबंध में कई लोगों की विचित्र सोच सामने आ रही है। उमर के पिता तथा केन्द्रीय मंत्री डा. फारुख अब्दुल्ला को अपने मुख्यमंत्री बेटे के अफजल की फांसी निरस्त कराने के वक्तव्य में कुछ भी गलत नहीं लगता। लगेगा भी कैसे, क्योंकि वह स्वयं भी समय-समय पर मजहबी असर के चलते रंग बदलते रहे हैं। वे कई मौकों पर भारत विरोधी गतिविधियों का समर्थन करते दिखाई दिए हैं तथा कई विवादित वक्तव्य देते रहे हैं। सत्ता में आने से पहले वे अलगाववादी- उग्रवादी संगठन जे.के.एल.एफ. के समर्थक माने जाते थे और कुछ वर्षों तक तो वह अपने पिता शेख मोहम्मद अब्दुल्ला के समर्थन से 1975 तक जनमत संग्रह मोर्चा के युवा नेताओं के एक प्रकार से प्रमुख भी थे। किन्तु उनका समय-समय पर रंग बदलना तथा समय तथा स्थान को देखकर बयान देना एक आदत बन गई है।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि शेख के पश्चात फारुख और अब उमर ने भी वही अलगाववादी डगर अपना ली है। कभी वह कश्मीर के भारत में विलय के अंतिम होने को चुनौती देते हैं, तो कभी कश्मीर को विवादित बताने के साथ ही कश्मीरियों और पाकिस्तान को भी उस विवाद का एक पक्ष मानते हैं। कभी वे कश्मीर के 'एक राजनीतिक समस्या' होने की बात करके इसके 'भविष्य का निर्णय' करने का राग अलापने लगते हैं। अपने ताजा पैंतरे में खुलेआम अफजल जैसे जिहादियों की फांसी निरस्त करने की पैरवी करके वे मजहबी उन्मादियों को शह देते मालूम होते हैं।
विशेषज्ञों का मानना है कि घाटी के अनेक नेता सत्ता में आने से पहले कुछ और सोच दर्शाते हैं तो सत्ता में आने के पश्चात कुछ अलग ही चाल चलते दिखते हैं। ये ही नेता प्रदेश सरकार की असफलताओं से कश्मीरी जनता का ध्यान हटाने के लिए विवादित वक्तव्य उछालने लग जाते हैं। यह कोई नई बात नहीं है कि सत्ता में आने के कुछ ही समय पश्चात उमर अब्दुल्ला ने कई विवादित वक्तव्य ही नहीं दिए, अपितु कई ऐसे निर्णय भी लिए हैं कि जिनकी भारत के संविधान में आस्था रखने वाले व्यक्ति से आशा नहीं की जा सकती। इनमें उस पार उग्रवाद का प्रशिक्षण लेकर घाटी लौटने वाले जिहादियों की वापसी तथा पुनर्वास की सरकारी नीति के अलावा सुरक्षा बलों पर पत्थर बरसाने वालों को आम माफी दिया जाना और सुरक्षाबलों के विशेष अधिकारों को समाप्त करने जैसे विषय शामिल हैं।
उल्लेखनीय है कि जम्मू-कश्मीर की गठबंधन सरकार में कांग्रेस कहने को तो बराबर की भागीदार है, इसके मंत्रियों की संख्या भी नेशनल कान्फ्रेंस के लगभग बराबर ही है, किन्तु विपक्षी दलों, विशेषकर भाजपा का आरोप है कि कांग्रेस जम्मू-कश्मीर में सत्ता से चिपके रहने के लिए नेशनल कांफ्रेंस की बी-टीम के रूप में काम कर रही है। इस संबंध में उल्लेखनीय यह भी है कि कई विषयों पर कांग्रेस ने नेशनल कान्फ्रेंस के साथ अपने सैद्धान्तिक मतभेद जताए हैं। विधानसभा के अंदर कई बड़े कांग्रेसी नेताओं ने अपने इन मतभेदों का उल्लेख भी किया। जिहादी प्रशिक्षण लेने उस पार गए जिहादियों की वापसी तथा उनके पुनर्वास के प्रस्तावों का उन्होंने शुरू में कड़ा विरोध किया, किन्तु शायद आलाकमान से दबाव आने पर स्थानीय कांग्रेसियों को चुप्पी साधने को विवश होना पड़ा।
इतिहास पलटकर देखें तो शेख मोहम्मद अब्दुल्ला की नेहरू के साथ मित्रता थी। इसी मित्रता का परिणाम था कि संविधान निर्माण के अंतिम चरणों में शेख को खुश करने के लिए संविधान में धारा-370 जोड़ दी गई। इसके अंतर्गत इस राज्य को एक अलग ही दर्जा दिया गया। यद्यपि यह धारा 'अस्थाई' है किन्तु 60 से अधिक वर्ष बीत जाने के बाद भी यह धारा संविधान में बनी हुई है। अलगाववादी तत्व आए दिन इस धारा को स्थायी बनाने और राज्य को और अधिक स्वायत्तता देने की मांग उछाल देते हैं। धारा-370 इस राज्य की जनता के अधिकारों को बुरी तरह प्रभावित कर रही है। देश की संसद द्वारा पारित कोई भी कानून इस राज्य में उस समय तक लागू नहीं होता जब तक राज्य सरकार और विधानसभा से स्वीकृति नहीं मिलती।
अफजल को फांसी दिए जाने का विरोध करने वालों ने कांग्रेस के लिए एक विचित्र सी परिस्थिति उत्पन्न कर दी है। सत्ताधारी नेशनल कान्फ्रेंस ने यद्यपि इस पर संगठनात्मक रूप से अभी कोई निर्णय नहीं लिया है, किन्तु मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के विवादित वक्तव्य से शह पाकर कई अलगाववादी नेताओं ने अलग-अलग बयान देने आरम्भ कर दिए हैं। विधानसभा के एक सदस्य इंजीनियर अब्दुल रशीद ने तो आगामी सत्र में एक नियमित प्रस्ताव लाने की घोषणा तक कर डाली है कि अफजल का मृत्युदण्ड माफ कर दिया जाए।
इस संबंध में विधानसभा अध्यक्ष तथा सरकार क्या रुख अपनाती है इसका पता तो 26 सितम्बर को विधानसभा का सत्र शुरू होने के पश्चात ही चलेगा, किन्तु इससे जम्मू के कांग्रेसी खासे चिंतित दिखाई देते हैं। वे अभी तक यह नहीं कह पा रहे हैं कि विधानसभा के अंदर उनके मंत्रियों तथा सदस्यों की क्या रणनीति रहने वाली है। जम्मू के कांग्रेसियों की चिंता स्वाभाविक भी दिखाई देती है क्योंकि भाजपा तथा कई राष्ट्रवादी संगठनों ने अफजल के मामले पर उमर अब्दुल्ला के विवादित वक्तव्य को न केवल एक बड़ा मुद्दा बना लिया है, अपितु मुख्यमंत्री के पुतले जलाकर कांग्रेसियों से अनुरोध किया जा रहा है कि वे इस संबंध अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करें।
इस बीच यह भी चर्चा है कि अगर नेहरू ने अपने दोस्त शेख अब्दुल्ला को प्रसन्न करने के लिए तब संविधान में देश की एकता को प्रभावित करने वाली धारा-370 जुड़वा दी थी तो आज कांग्रेस के 'युवराज' राहुल गांधी भी अपने मित्र उमर अब्दुल्ला को प्रसन्न करने के लिए 'कुछ' कर सकते हैं। कई बड़े कांग्रेसियों के विरोध के बावजूद उमर अब्दुल्ला अगर आज भी निडर होकर मजहबी राजनीति कर रहे हैं तो सोनिया गांधी तथा राहुल की 'कृपा' से ही यह संभव हो पा रहा है।
जब कांग्रेस आलाकमान से इतना समर्थन मिल रहा हो तो भला उमर अपने वोट सुरक्षित रखने के लिए मजहबी राजनीति क्यों नहीं करेंगे, वे अफजल की फांसी माफ करने की वकालत क्यों नहीं करेंगे! उससे फिर चाहे देश की सुरक्षा से खिलवाड़ ही क्यों न हो। सोनिया पार्टी को आखिर देशहित से कहीं अधिक अपनी सत्ता की चिंता है। ऐसा कई वर्षों से होता चला आ रहा है तथा कश्मीर समस्या सुलझने की बजाय प्रतिदिन जटिल होती जा रही है।द
शर्मनाक : रशीद ने
अफजल की तुलना भगत सिंह से की!
उस प्रदेश की विधानसभा के बारे में क्या कहेंगे जिसमें उमर अब्दुल्ला जैसा मुख्यमंत्री और इंजीनियर अब्दुल रशीद जैसे विधायक हों, जो देश का अपमान करने के हर मौके को हाथोंहाथ लेते हैं। प्रदेश की विधानसभा में अफजल की फांसी को निरस्त करने की मांग करने वाला प्रस्ताव लाने वाले अब्दुल रशीद का कहना है कि शहीद भगत सिंह और अफजल में कोई फर्क नहीं है। भारत के लिए जो भगत सिंह हैं, वही कश्मीर के लिए अफजल है। जम्मू-कश्मीर से प्रकाशित अंग्रेजी अखबार स्टेट टाइम्स के अनुसार, जब रशीद से पूछा गया कि क्या आप उस व्यक्ति की मृत्युदण्ड की सजा माफ करने की मांग करेंगे जिसने देश की संसद पर हमला किया हो, तो कुछ समय तक मौन रहने के बाद रशीद ने कहा, 'अगर आप अफजल को भारतीय संसद पर हमला करने की वजह से आतंकवादी ठहरा रहे हैं तो भगत सिंह को क्या कहेंगे, जिन्होंने ब्रिटिश संसद पर बम डाला था?' उनके अनुसार, कश्मीरियों के लिए अफजल 'स्वतंत्रता सेनानी' है और अगर उसे फांसी दी गई तो हिंसा का ऐसा सिलसिला शुरू हो जाएगा जिसे काबू करना बहुत मुश्किल होगा। रशीद का यह वक्तव्य स्टेट टाइम्स के 7 सितम्बर, 2011 अंक में प्रकाशित हुआ है।
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