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तृष्णा गरीयसी घोरा सद्य: प्राणविनाशिनी।तस्माद् देयं तृष्णार्ताय पानीयं प्राणधारणम्।।प्यास बहुत भयंकर व तुरन्त प्राणविनाशिनी होती है। अत: जीवन धारण करने के लिए आवश्यक जल प्यासे को देना चाहिए।-भावप्रकाशपानी के लिए हाहाकारपेयजल हो या खेतों की सिंचाई, दोनों के लिए ही भीषण जल संकट मुंहबाए खड़ा है। जनता में हाहाकार है, यज्ञ-अनुष्ठान किए जा रहे हैं, पानी के लिए झगड़े हो रहे हैं। उधर सरकार बेचैन है कि यही हालत रही और मानसून देरी से आया तो हालात बेकाबू हो जाएंगे। भाखड़ा और रिहंद समेत प्रमुख बांधों का जलस्तर चिंताजनक रूप से घट गया है। भाखड़ा बांध प्रबंधन ने तो पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और राजस्थान को दिए जाने वाले सिंचाई जल में 6000 क्यूसेक की कटौती की योजना बना ली है ताकि जलस्तर को न्यूनतम स्तर तक जाने से रोका जा सके। गंगा का जलस्तर 3.22 मीटर से लेकर 14.77 मीटर तक कम हो गया है, अन्य नदियों की हालत भी कमोबेश अच्छी नहीं है। सबकी आशाएं मानसून पर टिकी हैं। जनता में निराशा की स्थिति यह है कि वह इस संकट से उबरने के लिए परम्परागत प्रयोगों को भी आजमा रही है। प्रयाग में महिलाएं जुए में लगकर हल चलाने को विवश हो गर्इं तो नागपुर के पास एक गांव में लोगों ने मेंढक-मेंढकी की शादी रचा दी कि इंद्रदेव प्रसन्न हों और मेघ बरसें। लेकिन मौसम विज्ञानी अभी आश्वस्त नहीं हैं कि बारिश जल्दी होगी। इसके मद्देनजर देश के कई भागों में सूखे की आशंका बनती दिख रही है और विशेषकर खाद्यान्न उत्पादन वाले उत्तरी राज्यों में मानसून की देरी से उत्पन्न होने वाली स्थितियों का आकलन कर कृषि मंत्रालय के हाथों के तोते उड़ गए हैं। मानसून की ऐसी ही बेरुखी रही तो इसका सीधा असर देश की अर्थव्यवस्था पर भी पड़ेगा और सकल घरेलू उत्पाद के आंकड़े गड़बड़ा जाएंगे। हालातवास्तव में यह बेहद चिंताजनक है कि तमाम तरह की प्रगति के दावों के बावजूद देश में आम नागरिक के लिए शुद्ध और पर्याप्त पेयजल की उपलब्धता नहीं हो पाई है। यदि देश की राजधानी दिल्ली की ही बात करें तो आंकड़े बेहद चौंकाने वाले है, क्योंकि यहां प्रतिदिन 1150 मिलियन गैलन पेयजल की आवश्यकता होने के बावजूद केवल 850 मिलियन गैलन पानी की ही आपूर्ति हो पाती है, जिसमें शुद्धता की कोई गारंटी नहीं है। आए दिन दिल्लीवासी बदबूदार, गंदे और प्रदूषित पेयजल की आपूर्ति की शिकायतें करते नजर आते हैं। जब देश की राजधानी की ऐसी चिंताजनक स्थिति है तो भारत के गांव-कस्बों की हालत पर कौन ध्यान दे पाता होगा। एक आकलन के अनुसार, देश में प्रतिवर्ष करीब 7 लाख 83 हजार लोगों की मौत दूषित पेयजल के कारण होती है। यह भी बेहद दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि भारत के कृषि प्रधान देश होने के बादवजूद यहां सिंचाई मानसून पर आश्रित है। खेतों का कंठ सूखा है, किसान भूखा है तो देश की प्रगति एक छलावा मात्र है, महज एक “राजनीतिक स्टंट”। लाखों बेबस किसानों की आत्महत्या के आंकड़े इस प्रगति को मुंह चिढ़ाते हैं। तकनीकी विकास को ही प्रगति का मापदण्ड मान लिया गया। भाखड़ा जैसे विशाल बांध विकास के मंदिर तो बन गए, लेकिन खेत सूखते चले गए क्योंकि भारत जैसे विशाल देश में प्राचीन काल से खुशहाली का आधार रही कृषि के परंपरागत संसाधन-तालाब, बैल आदि गोवंश, गोबर की खाद व स्वनिर्मित बीज हरित क्रांति की साजिश के तहत खत्म कर दिए गए। कैसा विरोधाभास है कि ऊंची आर्थिक विकास दर प्राप्त करने के लिए सरकारें कृषि क्षेत्र से ज्यादा उम्मीद तो करती हैं, जबकि कृषि चौपट हो रही है, उसकी परवाह उन्हें बिल्कुल नहीं।4
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