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देवेन्द्र स्वरूप16 मई को पन्द्रहवीं लोकसभा के चुनाव-परिणामों ने सब भविष्यवाणियों को गलत सिद्ध कर दिया। मीडिया, सट्टे बाजों, राजनीतिक विश्लेषकों किसी ने अनुमान नहीं लगाया था कि सोनिया कांग्रेस 142 से 206 पर पहुंच जाएगी और भाजपा 137 से खिसककर 116 पर रह जाएगी। कोई नहीं सोच सकता था कि अपने को भारतीय राजनीति का नियंता समझने वाला वाममोर्चा 61 से गिरकर 23 पर सिमट जाएगा। उसका तीसरा मोर्चा पूरी तरह फुस्स हो जाएगा। चौथे मोर्चे के पहलवान रामविलास पासवान गायब हो जाएंगे, लालू यादव केवल 4 और मुलायम सिंह 39 से घटकर 23 पर रह जाएंगे। इस परिदृश्य को जातिवादी क्षेत्रीय दलों के क्षरण और द्विदलीय प्रणाली के पुन: बलवती होने का लक्षण माना जा रहा है। यदि भारतीय गणतंत्र को ब्रिटिश संसदीय प्रणाली के नक्शे कदम पर ही अपनी यात्रा जारी रखना है तो इसे शुभ संकेत कहा जा सकता है।पर, पता नहीं क्यों चुनाव परिणामों के सामने आते ही भाजपा की 21 सीटों की हानि राजनीतिक गलियारों और मीडिया में बहस का मुख्य मुद्दा बन गयी है। तब से अब तक इस विषय परभाजपा की विशेषतावस्तुत: सभी तर्कों में कुछ न कुछ वजन है, क्योंकि पराजय किसी एक कारण से नहीं, अनेक कारणों को मिलाकर होती है। भाजपा की असफलता की कारण-मीमांसा करने के पूर्व भारतीय राजनीति में भाजपा की विशेषता को समझना आवश्यक है। भारत के वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में भाजपा और वाम मोर्चे की पार्टियों को छोड़ दें तो कश्मीर से तमिलनाडु तक सभी राजनीतिक दल व्यक्ति या वंश केन्द्रित हैं। उनका जन्म व्यक्तिगत सत्ताकांक्षा में से हुआ है। सत्ता प्राप्ति ही उनकी एकमात्र विचारधारा है।भाजपा के इस लोकतांत्रिक चरित्र को समझने के लिए उसके जन्म और विकास के इतिहास में प्रवेश करना होगा। यह सर्वविदित है कि भारतीय जनता पार्टी 1980 में भारतीय जनसंघ के पुनर्जन्म में से अस्तित्व में आयी। उसकी विचारधारा, उसकी संगठनात्मक रचना जनसंघ से भिन्न नहीं है। भारतीय जनसंघ का जन्म 1951 में किसी एक नेता के आह्वान पर न होकर भारतीय राष्ट्रवाद के वैचारिक अधिष्ठान पर नीचे से ऊपर की ओर हुआ था। बहुत कम लोगों को पता है कि जनसंघ कीविचारधारा की पकड़कुछ समय तक यह भी स्पष्ट नहीं था कि नये दल का अखिल भारतीय अध्यक्ष कौन होगा। सरदार पटेल के समर्थकों ने मध्य प्रदेश के द्वारका प्रसाद मिश्र के नेतृत्व में नेहरू जी की कांग्रेस से संबंध विच्छेद कर लिया। उन्होंने उत्तर प्रदेश का दौरा किया। वे प्रयाग आये। वहां पुरुषोत्तम दास टंडन पार्क के नाम से विख्यात तिकोने पार्क में उनकी सभा का आयोजन हमने किया। नेहरू जी के कम्युनिस्ट समर्थकों ने उस सभा को भंग करने के लिए वहां मारपीट की। द्वारिका प्रसाद मिश्र चाहते थे कि उन्हें नये राजनीतिक दल का अध्यक्ष बनाया जाए। श्यामा प्रसाद मुखर्जी और द्वारिका प्रसाद मिश्र दो नाम हवा में तैर रहे थे। आखिर 21 अक्तूबर, 1951 को दिल्ली में सभी प्रांतीय पर की ओर हुआ, ऊपर से नीचे की ओर नहीं। जनसंघ के लगभग सभी कार्यकत्र्ता राष्ट्रवाद के प्रति निष्ठा लेकर अलग-अलग जनसंघ में आये, किसी एक नेता के आह्वान पर नहीं। इसीलिए जनसंघ में व्यक्ति पूजा का विकास नहीं हो पाया। कोई गुटबाजी नहीं पनपी। उन दिनों मजाक में कहा जाता था कि अपनी वक्तृत्व कला के कारण पूरे देश में लोकप्रिय अटल जी जनसंघ से त्यागपत्र देना चाहें तो उनके साथ चार लोग नहीं जाएंगे,संघ की पृष्ठभूमि होने के कारण नई पार्टी को लेकर भी बहुत विचार मंथन हुआ। हिन्दू शब्द को पार्टी के नाम और विचारधारा के केन्द्र में रखने का आग्रह भी कुछ लोगों ने किया। यह भी प्रश्न उठा कि हिन्दू महासभा के रहते अलग दल बनाने की आवश्यकता ही क्या है। अंतत: भारतीय जनसंघ नाम ही स्वीकार हुआ। लोगों को यह जानकर विचित्र लगेगा कि जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर मुस्लिम विरोधी हिन्दू कट्टरवाद की छवि आरोपित कर दी गयी है उसके नामकरण के बारे में उसके जन्मदाता डा. हेडगेवार ने अक्तूबर 1925 में उसकी स्थापना के बाद अप्रैल 1926 तक छह महीने उसे बिना नाम के चलने दिया और सामूहिक विचार मंथन के बाद उसे हिन्दू स्वयंसेवक संघ न कहकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नाम दिया। संघ ने कभी हिन्दू शब्द को धर्मवाची अर्थ में नहीं देखा। सभी उपासना पद्धतियों का समावेश करने वाले राष्ट्रवाची अर्थ में ही देखा और प्रस्तुत किया।इस प्रकार भारतीय जनसंघ स्वतंत्रता आंदोलन की राष्ट्रीय विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए अवतरित हुआ और एक विशाल संघ परिवार के अंग के रूप में उसकी पहचान बनी। वही पहचान भाजपा को विरासत में मिली है। यही भाजपा की शक्ति का मुख्य आधार है और वही कभी-कभी भाजपा की कमजोरी का कारण भी मान लिया जाता है। इस समय भारत के सार्वजनिक जीवन में संघ परिवार अकेला है जो मजदूरों, किसानों, वनवासियों, पिछड़ी बस्तियों, दलित वर्गों, शिक्षा साहित्य, आदि सभी क्षेत्रों में प्रत्यक्ष रचनात्मक कार्य करता है और जिसका ताना-बाना पूरे भारत में बिखरा है। संघ परिवार का अंग होने के कारण भाजपा को इस विशाल रचनात्मक कर्म साधना का लाभ मिल जाता है। बाकी सभी राजनीतिक दल केवल मंचीय या अखबारी प्रचार के सहारे जिंदा हैं। प्रत्यक्ष रचनात्मक कर्म नहीं करते। वस्तुत: भाजपा और संघ परिवार के बीच गर्भ-नाल संबंध हैं। इस समय भी भाजपा के अधिकांश नेता संघ प्रक्रिया से राजनीति में आये हैं। संघ के अनेक प्रचारक भाजपा में संगठन मंत्री के नाते संघ की विचारधारा और आदर्शवाद के प्रतिनिधि माने जाते हैं। यह संबंध ही भाजपा में वैचारिक निष्ठा और आदर्शवाद का स्रोत है। पर, यही भाजपा के अन्तद्र्वंद्व का कारण भी है। इस अन्तद्र्वंद्व को समझने के लिए सत्ताभिमुखी चुनाव प्रणाली की आवश्यकताओं और बाध्यताओं का अध्ययन करना होगा। पिछले 60 वर्षों में दल और वोट की राजनीति का जो चरित्र विकसित हुआ है उसको ध्यान में रखना होगा। द जारी (23 जून, 2009)10
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