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छोटे राज्य शिव और सुन्दरपर कब?देवेन्द्र स्वरूपयदि भारतीय राजनीतिज्ञों के मन में अपने व्यक्तिगत और दलीय स्वार्थ से ऊ‚पर उठकर राष्ट्र के दूरगामी हितों की चिन्ता होती तो स्वाधीनता प्राप्ति से लेकर अब तक भारत के राज्य पुनर्गठन की प्रक्रिया कोकिन्तु इतिहास बोध और आत्मबोध-शून्य नेतृत्व ने स्वाधीनता का अर्थ केवलस्वार्थ की राजनीतिनये राज्यों के निर्माण की प्रक्रिया निरंतर आगे बढ़ी किन्तु प्रत्येक नया कदम किसी हिंसक आंदोलन के दबाव में ही उठाया गया। महाराष्ट्र में हिंसा की ज्वाला सुलगी तो 1960 में गुजरात को महाराष्ट्र से पृथक किया गया। हिंसक नगा आन्दोलन के दबाव में 1964 में नागालैंड का निर्माण हुआ। पंजाब में अकाली आंदोलन के फलस्वरूप 1966 में हरियाणा और हिमाचल प्रदेश को अलग राज्यों का दर्जा मिला। लम्बे समय से चली आ रही पृथक झारखण्ड, पृथक उत्तरांचल व पृथक छत्तीसगढ़ राज्यों के निर्माण की मांग का आदर करते हुए 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राजग सरकार ने उत्तर प्रदेश से उत्तराखंड, बिहार से झारखंड और मध्य प्रदेश से छत्तीसगढ़ राज्यों को अलग राज्य का दर्जा दिया।पर छोटे राज्यों के निर्माण की मांग का यह अंत नहीं है। अनेक क्षेत्रों मेंे पृथक राज्य के निर्माण की मांग आंदोलक रूप धारण कर रही है। आन्ध्र प्रदेश का तेलंगाना क्षेत्र पृथक राज्य बनने के लिए लम्बे समय से कसमसा रहा है। महाराष्ट्र में पृथक विदर्भ राज्य की मांग भी बहुत पुरानी है। उत्तर प्रदेश में चौधरी चरणसिंह के बेटे अजीत सिंह, पश्चिमी उत्तर प्रदेश को अलग करके हरित प्रदेश बनाने की मांग की पूर्ति से ही अपना राजनीतिक भविष्य खोज रहे हैं। बंगाल में गोरखालैंड की मांग लम्बे समय से चली आ रही है। असम में बोडोलैंड का स्वर उठ रहा है। जम्मू-कश्मीर राज्य में जम्मू और लद्दाख अलग होने के लिए छटपटा रहे हैं। उधर नागालैंड, मणिपुर और मेघालय के कुछ क्षेत्रों को हड़प कर नगालिम बनाने के सपने देख रहा है, तो दिल्ली की राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की सीमाओं के अन्तर्गत पश्चिम उत्तर प्रदेश के 18 जिलों को जोड़कर एक नयाइस समय जो राज्य पुनर्गठन की, दूसरे राज्य पुनर्गठन आयोग की स्थापना की जो गर्म चर्चा चल रही है, उसके पीछे यही क्षुद्र सत्ता-राजनीति काम कर रही है। सोनिया पार्टी ने आन्ध्र प्रदेश में पिछला विधानसभा चुनाव जीतने के लिए पृथक तेलंगाना राज्य के गठन का वचन देकर इस वचन को अपने चुनाव घोषणापत्र में सम्मिलित करके तेलंगाना राष्ट्र समिति का सहयोग प्राप्त कर लिया, उसके साथ गठबंधन कर लिया, उन्हें केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में भी सम्मिलित कर लिया। किन्तु पृथक तेलंगाना की मांग के पीछे पर आ गया है। अगले वर्ष दस राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं उनमें आन्ध्र प्रदेश और महाराष्ट्र का भी नम्बर है। सोनिया पार्टी ने स्वयं को “सांप-छछूंदर गत भई” जैसी स्थितियों में फंसा पाया। तेलंगाना में भाजपा प्रारंभ से तेलंगाना राष्ट्र समिति के साथ खड़ी है, तो विदर्भ में भाजपा-शिवसेना गठबंधन की चुनौती बहुत विकट है। इस स्थिति से बाहर निकलने के लिए सोनिया पार्टी ने नया दांव खेला। पार्टी के एक महासचिव वीरप्पा मोइली, जो आन्ध्र प्रदेश के प्रभारी हैं, ने 9 जनवरी को हैदराबाद में सोनिया पार्टी के मुख्यालय में पत्रकारों के सामने घोषणा की कि सरकार इस समस्या को हल करने के लिए द्वितीय राज्य पुनर्गठन आयोग की स्थापना करने वाली है।भ्रष्टाचार का अखाड़ाद्वितीय राज्य पुनर्गठन आयोग की स्थापना का अर्थ होगा निर्णय को कई वर्षों के लिए ठंडे बस्ते में डालना। इस झांसेबाजी को देखकर तेलंगाना की जन भावनाओं में उबाल आ गया। इस उबाल से घबरा कर तेलंगाना के सोनिया पार्टी के सांसद, विधायक एवं सभी शिखर नेता खुली बगावत पर उतर आये। उन्होंने सार्वजनिक वक्तव्य देना प्रारंभ कर दिया। सब पदों से त्यागपत्र देने की धमकी दे डाली। तब मुख्यमंत्री चन्द्रशेखर रेड्डी के समर्थकों ने अपने ही दल के नेताओं पर खुले हमले शुरू कर दिये। इस समय आन्ध्र में सोनिया पार्टी के नेताओं के बीच गाली-गलौच का यह दौरा अपने यौवन पर है। मोइली ने बड़ी गंभीरता के साथ यह भी कहा कि अगर बुंदेलखण्ड जैसे पृथक राज्यों की मांग के लिए आयोग के सामने प्रतिवेदन प्रस्तुत किये जाते हैं तो आयोग उन पर भी विचार करेगा। पता नहीं सोनिया पार्टी को यह कैसे लग गया कि पृथक बुंदेलखण्ड की मांग पर सवार होकर वह उत्तर प्रदेश में मुर्दे से जिन्दा हो जाएगी। किन्तु सपने पालने में जाता ही क्या है।दूसरे राज्य पुनर्गठन आयोग की चर्चा सुनकर वाममोर्चे के कान खड़े हो गए। उसे लगा कि यह बात सिरे चढ़ी तो पृथक गोरखालैण्ड का भूत उन्हें खा जाएगा। इसलिए वाममोर्चे ने दबाव डाला कि यह आयेाग नहीं बनना चाहिए। और उनका दबाव काम आया। सोनिया पार्टी का इस समय एक सूत्री कार्यक्रम केन्द्र में सत्ता में बने रहना है और वह वाममोर्चे के समर्थन के बिना संभव नहीं है।यहां सवाल खड़ा होता है कि जनमानस की जनपदीय चेतना को सत्ता-राजनीति की फुटबाल बनने दिया जाए या पिछले साठ वर्ष की दल और वोट राजनीति के परिणामों के आलोक में केवल राज्यों की नहीं, पूरे राष्ट्र जीवन के पुनर्गठन पर नए सिरे से विचार किया जाए। इसके लिए देश के प्राचीन जनपदीय मानचित्र को वापस लाने के पहले ब्रिटिश संसदीय प्रणाली पर आधारित संविधान का पुनर्लेखन करना होगा। इसके बिना प्रत्येक छोटा राज्य राजनीतिज्ञों की सत्ता-लिप्सा और भ्रष्टाचार का अखाड़ा बन जाएगा। (24-1-2008)24
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