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-डा. अशुम गुप्ता
विभागाध्यक्ष, मनोविज्ञान विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय
लगता है कि गुस्सा करना लोग अपनी दिनचर्या का ही हिस्सा मानने लगे हैं। पहले ऐसा नहीं होता था। घर-द्वार में कोई गुस्सा करता भी था तो बड़े-बुजुर्ग कहते थे गुस्सा करना ठीक नहीं है, और लोग मान भी लेते थे। लेकिन आज के जमाने में मानो गुस्सा करना बुरा नहीं माना जाता है। लोगों को लगता है कि जब तक वह गुस्से में कोई बात नहीं कहेगा तब तक उसकी बात सुनी नहीं जाएगी। यह धारणा ही बनती जा रही है कि गुस्से से ही किसी से कोई बात मनवाई जा सकती है। यह धारणा बहुत ही खतरनाक है। गुस्सैल कोई एकाध दिन में नहीं होता। इसकी शुरुआत बचपन से ही होती है। एक छोटे से बच्चे को क्या पता कि गुस्सा क्या होता है। किन्तु जब वह कोई वस्तु मांगता है और उसे नहीं मिलती है, तो वह रोता है, मचलता है। तब मां-बाप सोचते हैं कि उसकी मांग पूरी कर देने से वह चुप हो जाएगा। मांग पूरी होते ही बच्चा चुप तो हो जाता है किन्तु वह यह भी सोचने लगता है कि आसानी से कोई चीज मिलने वाली नहीं है। इसके बाद वह बात-बात पर जिद्द करता है, गुस्सा करता है। बचपन का यही गुस्सा उम्र के साथ बढ़ने लगता है और व्यक्ति गुस्सैल हो जाता है। इसलिए बच्चों के साथ बहुत सावधानी से व्यवहार करना चाहिए। बच्चे के गुस्से को समझ कर उसका निदान करना चाहिए।
वर्तमान समय में गुस्सा करने का यह भी मतलब हो गया है कि मैं जो कुछ भी कह रहा हूं उसे तुम मान लो अन्यथा मैं कुछ कर दूंगा। यह एक तरह से धमकी है। अपनी हीन-भावनाओं से छुटकारा पाने या “मैं भी किसी से कम नहीं” के अहं को व्यक्त करने के लिए भी लोग गुस्सा करते हैं। यानी गुस्सा अपनी बातों को व्यक्त करने का भी एक माध्यम बनता जा रहा है।
गुस्सा बढ़ने के कई कारण हैं। सबसे बड़ा कारण है असन्तोष। व्यक्ति बहुत कुछ करना चाहता है, किन्तु हर तरफ तो उसे सफलता मिलती नहीं है। जो अपनी सोच एवं योजनानुसार सफल नहीं होता है, उसमें कुंठा जन्म लेती है। इसके बाद वह अपने आपको लाचार, बेबस और तनावग्रस्त महसूस करता है। यही तनाव गुस्सा में बदलता है और फिर वह हर किसी से ऊंची आवाज में बात करता है, राह चलते किसी से लड़ बैठता है। घर-परिवार में कभी पत्नी से उलझता है तो कभी बच्चों को मारता है। वह अपनी कुंठा को शान्त करने का जरिया मारपीट या गुस्सा को मान लेता है। यहीं से घरेलू हिंसा की शुरुआत होती है।
अक्सर हम लोग देखते हैं कि लोग सड़क पर बहुत गुस्सा करते हैं। एक गाड़ी वाला यदि किसी गाड़ी से आगे निकल गया या मामूली खरोंच भी लग गई तो लोग मार-पीट पर उतर आते हैं। इस तरह की घटनाएं बताती हैं कि लोगों में सहनशक्ति खत्म होती जा रही है, संवेदनशीलता गायब हो रही है, लोग एक-दूसरे को समझने के लिए तैयार नहीं हैं।
इन सबके लिए लोगों की अन्दरूनी परेशानियां भी बहुत हद तक जिम्मेवार हैं। घर-परिवार के सदस्यों, आर्थिक एवं सामाजिक समस्याओं आदि को लेकर भी लोग परेशान रहते हैं। लोगों को शायद यह भी लगने लगा है कि इन समस्याओं का कोई हल ही नहीं है, किन्तु ऐसा नहीं है। हर समस्या का निदान है। परेशानियों से जूझ रहे लोगों को पहले अपने बड़े-बुजुर्गों से सलाह लेकर कोई हल निकालना चाहिए। घर में कोई हल न निकले तो किसी अच्छे मनोचिकित्सक से सलाह लेनी चाहिए। किन्तु कुछ लोग अपने मन की बात किसी से कहते नहीं हैं। उनका गुस्सा अन्दर ही रहता है और किसी कमजोर, बेबस या लाचार आदमी पर वे अपना गुस्सा बेवजह उतारते हैं। मनोविज्ञान में इसको “डिस्प्लेसमेन्ट” कहा जाता है। बेवजह किसी के गुस्से को सहना भी उसके गुस्से को बढ़ावा देने के बराबर है। मान लीजिए कोई पति बहुत गुस्सा करता है और उसकी पत्नी यह मानकर पति के गुस्से को सहती चली जाती है कि हमें तो उनके साथ रहना ही है, इसलिए कोई जवाब नहीं देना है। यह सोच दोनों में से किसी के लिए ठीक नहीं है। यदि पत्नी कुछ नहीं बोलेगी तो पति का गुस्सा दिनोंदिन बढ़ता जाएगा और एक दिन ऐसा कुछ होगा जिसकी कल्पना किसी को नहीं होगी।
समाज में अक्सर देखा जाता है कि शादी के 10-15 साल बाद पति-पत्नी तलाक के लिए अदालत पहुंच जाते हैं। हमें सोचना चाहिए कि जो पति-पत्नी 10-15 साल साथ रह चुके हैं, बच्चे स्कूल जाने लगे हैं, अब क्या हो गया कि वे एक साथ रहने को तैयार नहीं हैं। यहां यही कहा जा सकता है कि वर्षों पुराना जो गुस्सा, जो शिकायतें हैं, उनको दूर करने का कोई प्रयास कभी नहीं किया गया। अन्तत: एक ऐसी स्थिति आती है, जब लोग कहने लगते हैं कि अब बहुत हो गया। अब एक साथ रहा नहीं जा सकता। आज संयुक्त परिवार टूट रहे हैं, क्योंकि हर इन्सान अपने ढंग से जीना चाहता है। हर व्यक्ति चाहता है कि उसकी जिन्दगी पर कोई दखल न दे। आज का एक छोटा-सा बच्चा भी मां-बाप से कहता है कि हमें पता है कि क्या करना है। ऐसा आस-पास के माहौल के कारण होता है।
जो बच्चे घर में उपेक्षित होते हैं, जिन्हें असफलता ही असफलता मिलती है, जिन्हें आस-पड़ोस के लोग किन्हीं कारणवश स्वीकार नहीं पाते हैं, वही बच्चे असामाजिक कार्यों की ओर बढ़ते हैं। ऐसे बच्चों के अन्दर किसी न किसी बात को लेकर गुस्सा भरा होता है। यही गुस्सा कहीं न कहीं निकलता रहता है।
गुस्सा कहीं भी और किसी भी रूप में ठीक नहीं है। भले ही गुस्सा करके लोग अपनी भड़ास निकाल लेते हैं। किन्तु गुस्सा एक मीठे जहर के समान है। गुस्सा करने वाले लोग आएदिन अपने आलोचक, अपने दुश्मन तैयार करते हैं, साथ ही अपनी बुद्धि भी नष्ट करते रहते हैं। गुस्सा करने वाले लोगों की सोच भी नकारात्मक होती जाती है। ऐसे लोगों को न तो घर वाले पसन्द करते हैं, न दोस्त पसन्द करते हैं और न ही वे अपने लिए कहीं अनुकूल माहौल बना पाते हैं। यदि आप चाहते हैं कि हमें सफलता मिले, समाज में हमारी स्वीकार्यता बढ़े, हमारा मान-सम्मान बढ़े, तो आप गुस्सा को तुरन्त थूक दें। प्यार और सम्मान के साथ कही गई बात में बहुत दम है। इसे आप अपना कर तो देखें। द वार्ताधारित
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