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सबको धारण करता है इसलिए धर्म कहा जाता है। धर्म ने ही सारी प्रजा को धारण कर रखा है। अत: जो धारण से युक्त हो, वही धर्म है।
-वेदव्यास (महाभारत, शांतिपर्व, 109/11)
गंगा किनारे मुस्लिम वोट राजनीति
हर धार्मिक समाज के अपने नियम, मर्यादाएं और परंपराएं होती हैं जो हजारों वर्षों से चली आती हैं। उनके सम्मान या असम्मान के प्रश्न पर विश्व में अनेक भीषण युद्ध हुए हैं। इसलिए इन विषयों की संवेदनशीलता ध्यान में रहनी चाहिए।
जहां एक दूसरे की आस्था का सम्मान करते हुए अपनी-अपनी परंपराओं के निर्वाह का प्रश्न है तो उसमें किसी को दिक्कत नहीं है, बल्कि आनंद है। अनेक हिन्दू हैं जो मस्जिद या चर्च जाकर इस्लाम और ईसाइयत के प्रति सम्मान का भाव रखने में कोई हर्ज नहीं मानते, ऐसा करते भी हैं। ऐसे मुस्लिम भी हैं जो होली, दीवाली पर हिन्दुओं के साथ त्यौहार मनाने में शामिल होते हैं। पर राजनीतिक उद्देश्य और अपनी मजहबी परम्परा के लिए हिन्दू तीर्थस्थानों का इस्तेमाल उतना ही गर्हित, नाजायज और प्रतिकार योग्य है जितना किसी भी अन्य आस्था के पुण्य स्थान का ऐसा इस्तेमाल। क्योंकि यह साम्प्रदायिक सौहार्द या आपस में सम्मान के लिए किया जाने वाला कोई ऐसा काम नहीं है जो परस्पर सहमति और समझ के बाद किया गया हो। हरिद्वार में जो हुआ वह तो सत्ता के बल पर हिन्दुओं को स्तब्ध करने वाला काम था जिससे कटुता और आक्रोश ही पैदा हुआ, सद्भावना या समन्वय नहीं। ऐसे मुस्लिम संतों, शायरों की लम्बी श्रृंखला है जिन्होंने काशी, गंगा और श्रीराम के सन्दर्भ में बहुत श्रद्धा से लिखा है। प्रसिद्ध समकालीन शायर मुनव्वर राणा की पंक्तियां हैं-
तेरे आगे मां भी मौसी जैसी लगती है
तेरी गोद में गंगा मैया अच्छा लगता है।
ऐसी भावना के प्रति भला किसका सर न झुकेगा और कौन हिन्दू होगा जो उन्हें ईद मुबारक कहने से पीछे हटे। लेकिन गंगा मैया पर राजनीतिक गंदलेपन के साथ जो दृष्टि डाले, उसके प्रति जिस मन में क्षोभ न उमड़े उसे क्या कहेंगे?
जिन सेकुलर दलों ने दीवाली की रात शंकराचार्य जी की गिरफ्तारी का जश्न मनाया था उन्होंने उत्तर प्रदेश चुनावों से पहले मुसलमानों की चापलूसी के लिए सदियों पुरानी मर्यादा े ठोकर मारते हुए हरिद्वार में गंगा घाट पर रोजा इफ्तार की दावत और कुछ समाचार पत्रों के अनुसार वहां मांस परोसे जाने से पैदा सुगबुगाहट पर चुप्पी ओढ़े रही। यह कोई धार्मिक कार्य नहीं था। एक राजनीतिक पार्टी सपा की बैठक थी और उसमें मुस्लिम बड़ी संख्या में बुलाए गए थे। यह बैठक गंगा किनारे ठीक हर की पैड़ी के सामने उस घाट पर की गई, जहां महत्वपूर्ण हिन्दुओं के पूजा पाठ, गंगा पूजन और स्नान की विशेष व्यवस्था है। जैसा कि इस घाट का नाम है, राजनीतिक, सामाजिक क्षेत्र के विशिष्ट हिन्दू नेता (वी.आई.पी.) भीड़ और तीर्थयात्रियों के लिए कठिनाई न पैदा करते हुए अपने धार्मिक विधिविधान पूर्ण कर सकें इसलिए इसका निर्माण किया गया था। यहां एक राजनीतिक बैठक के आयोजन के पीछे क्या नीयत हो सकती है? और इसकी अनुमति क्यों दी गई, इसका जवाब स्थानीय उत्तरांचल शासन को ही देना होगा। वी.आई.पी. घाट पर रोजा-इफ्तार हुआ, नमाज हुई तथा मांस परोसा गया, इसके बारे में स्थानीय प्रत्यक्षदर्शी शपथपूर्वक कहते हैं कि ऐसा सब हुआ। परन्तु अब श्री मुलायम सिंह का कहना है कि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ और अगर हमारी बैठक में मुस्लिम आए तो इसमें हर्ज क्या था। सवाल उठता है कि ऐसे हर काम के लिए हिन्दुओं को ही प्रयोगशाला क्यों बनाया जाता है? क्या मुलायम सिंह जामा मस्जिद में शिवरात्रि का व्रत खोलने और वहां शिव आराधना का कार्यक्रम आयोजित कर सकते हैं? और क्या यह कह सकते हैं कि जामा मस्जिद में अगर हिन्दुओं ने पूजा की तो इससे क्या फर्क पड़ता है, इससे तो आपसी साम्प्रदायिक सौहार्द ही मजबूत हुआ? हिन्दू आस्था, धर्म, साधु संत, हिन्दुओं के धार्मिक स्थल, इन सभी पर प्रहार करना निधार्मिक सेकुलर राजतंत्र अपने सुधारवाद का सबसे प्रशंसनीय प्रमाणपत्र मानता है। हिन्दू तीर्थों की आय निधार्मिक और प्राय: अहिन्दू कार्यों के लिए इस्तेमाल की जाती है और इसे हिन्दुओं की उदारता और सहिष्णुता के खूंटे पर उचित और करणीय घोषित कर दिया जाता है। उ.प्र. में हर शहर में कलक्टर शासन की ओर से रोजा इफ्तार पार्टी देते हैं लेकिन कभी दीवाली, दशहरे या होली पर चाय की दावत भी नहीं होती। दिल्ली और अन्य नगरों में भी सेकुलर नेता सिर्फ इफ्तार पार्टियों तक सिमटे रहते हैं। यह है इनका हिन्दू विरोधी सेकुलरवाद।
सवाल उठता है कि ऐसे कामों के लिए क्या मुसलमानों को दोष दिया जाए? हर की पैड़ी के सामने रोजा-इफ्तार के लिए मुस्लिम जबरदस्ती नहीं आए, उन्हें उन नेताओं ने आमंत्रित किया जो अभी भी अपना धर्म हिन्दू बताते हैं। हिन्दू तीर्थों की जो दुर्दशा है उसके लिए हिन्दू ही दोषी हैं। इसलिए समय आ गया है कि हिन्दू एक्य को मजबूत बनाया जाए और केवल जन्म के आधार पर अपने आपको ब्राह्मण कहने वाले पुजारियों के साथ-साथ धर्म योद्धा दलितों और वंचितों को प्रशिक्षित और विधि विधान में दीक्षित कर तीर्थों के मुख्य पुजारी और रक्षक देव-अर्चक बनाया जाए। इसके लिए पूरा हिन्दू समाज एकजुट हो। हमें विश्वास है कि ब्राह्मण भी इस कार्य में आगे आएंगे और वंचितों को अपने साथ प्रतिष्ठित कर एक नया समरस अध्याय रचेंगे जिसके लिए संघ के स्वयंसेवक भी प्रयासरत हैं।
भारत का कथित सेकुलर राज्यतंत्र भी संविधान की दुहाई देते हुए स्वयं को केवल हिन्दू समाज में विभिन्न प्रयोगों और सुधारों के लिए समर्पित किए हुए है। हिन्दू विवाह सम्बंधी कानूनों से लेकर दीवाली और होली कैसे मनाएं जैसे विषयों तक केन्द्र और प्रांतों की सेकुलर सरकारें करोड़ों रुपए खर्च कर विज्ञापन अभियान चलाती हैं कि दीवाली पर पटाखे न छोड़े जाएं, होली पर रंग और गुलाल का इस्तेमाल न किया जाए। देश के किन्हीं कोनों-किनारों में पुरानी चली आ रही परंपरा मानते हुए यदि कहीं कोई पशुबलि देता है तो उसे पूरे हिन्दू समाज पर आरोपित कर इलेक्ट्रानिक चैनलों पर तीखी और प्राय: असंयमित भाषा का उपयोग करते हुए “सुधारवादी” अभियान चलाए जाते हैं जैसे पूरा हिन्दू समाज पतन के गढ्ढे में है, जिसे निकालने के लिए नए “राजा राममोहन राय” और “ईश्वर चंद्र विद्या सागर” पैदा हुए हैं। वर्ष में केवल एक बार पटाखों से विचलित हो उठने वाले ये सेकुलर वर्ष के 365 दिन हर रोज पांच बार मस्जिद के लाउडस्पीकरों की आवाज से परेशान नहीं होते और न ही उनमें यह हिम्मत होती है कि उसे वे ध्वनि प्रदूषण का एक स्रोत घोषित करें। यही नहीं, अगर पटना के एक न्यायाधीश ने इन लाउडस्पीकरों के हर रोज इस्तेमाल पर विज्ञान सम्मत नजरिए से कोई फैसला दिया तो उन न्यायाधीश महोदय का ही तबादला कर दिया गया। उस फैसले को लागू करने की तो बात ही दूर, उस पर किसी चर्चा तक की अनुमति नहीं दी गई। हर मुस्लिम त्योहार पर देश में लाखों पशुओं का उत्सवी वध किया जाता है जिनमें बड़ी संख्या में गाएं भी होती हैं। परन्तु इस बारे में वे बहादुर सेकुलर सुधारवादी चुप रहते हैं। ऊंटों, भैसों, गायों तथा बकरों के वध को जो मुस्लिमों का सम्माननीय मजहबी अधिकार मानते हैं वे कामाख्या में साल में एक बार भैंसे की बलि को पूरे पृष्ठ के विश्लेषण और धिक्कार का विषय बनाने में आगे रहते हैं। रोज अंडे खाने या चिकन और मीट के विज्ञापन देने में जिन्हें शाकाहारियों की संवेदना का ख्याल नहीं, वे हिन्दुओं को पशु प्रेम का उपदेश देना अपना अधिकार मानते हैं। यही दृष्टिकोण हिन्दू तीर्थ यात्राओं को दिए जाने वाले अनुदान के बारे में अपनाया जाता है। हिन्दुओं से कहा जाता है कि आपकी तीर्थयात्रा को अनुदान देने का अर्थ है धार्मिक विधान को तोड़ना क्योंकि तीर्थ यात्रा बिना किसी बाहरी अनुदान के पूरी की जाए तभी सफल होती है। लेकिन हज अनुदान के बारे में यह तर्क नहीं दिया जाता। हिन्दू धर्म सदैव मुक्त विचारों और सुधारों का पक्षधर रहा है। लेकिन सुधार की बात करने वाले वे हों, जिनकी साख निष्पक्ष मानी जाए तो बात समझी जा सकती है। आर्यसमाज, स्वामिनारायण सम्प्रदाय, गायत्री परिवार ऐसे ही आदरणीय सुधारवादी आन्दोलन हैं। पर सेकुलर तालिबान तो गजनवी बन कर हम पर तेजाबी आघात करते हैं- उनका प्रतिकार ही एकमेव मार्ग है।
वास्तव में स्थिति यह बनती जा रही है कि भारत में हिन्दू के नाते जीने का आग्रह रखने वाले ही वास्तविक अल्पसंख्यक दबाव में ला दिए गए हैं। हिन्दू आग्रहों एवं चिंताओं के बारे में आलेख या समाचार प्रकाशित करने तक से सेकुलर समाचार पत्र कतराते हैं। पूरे देश में एक आध दो ही ऐसे अंग्रेजी के अखबार होंगे जहां यदा कदा इस प्रकार के वैचारिक पक्ष को थोड़ा स्थान मिलता हो, अन्यथा दिन प्रति दिन, सप्ताह प्रति सप्ताह पत्र-पत्रिकाओं में केवल एक ही विचार, एक ही हिन्दू आलोचक प्रतिघाती रवैया दिखता है तो दूसरी ओर एक ही अफजल-वर्ग के संरक्षण और संवद्र्धन की चिंता छाई रहती है। यह एक अखबारी फैशन हो गया है कि हिन्दू आग्रहों का तिरस्कार और उनकी उपेक्षा की जाए तथा अहिन्दू संवेदनाओं के प्रति बढ़-चढ़ कर लिखा जाए।
इसके लिए हिन्दू विस्मृति, गौरव बिन्दुओं के प्रति सम्मान के भाव का लोप और असंगठित हिन्दू ही दोषी हैं, और कोई नहीं। जैसे कि भारत की गुलामी के लिए अंग्रेजों को दोष देना आत्मवंचना है, क्योंकि असली दोष तो उन भारतीयों का था जो अंग्रेजों के सिपहसालार और बाबू बने तथा आपस में लड़ते रहे, उसी प्रकार आज का हिन्दू समाज भी आपसी वैमनस्य, विद्वेष, ईष्र्या और एक दूसरे के प्रति कटुता रखने के कारण विदेशी एवं विधर्मी आघात का सहज शिकार बन रहा है। यदि हिन्दू बहुल देश का समाज ऐसा हो जहां हिन्दुओं पर आघात करने से वोट और सत्ता प्राप्ति सम्भव दिखे तो फिर हर की पैड़ी के पास इफ्तार पार्टी या शंकराचार्य की गिरफ्तारी और इमाम की खुशामद जैसे दृश्यों पर आश्चर्य क्यों होना चाहिए। द
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