ऊंची आवाज में तीखी तकरीरें देते मौलाना और दबी जुबान में मुस्लिम वोट बैंक को फुसलाते राजनेता, दोनों ही अपनी शैली के अभ्यस्त और अपनी ही समझ के मुरीद! बदलाव की बात भर से भड़क उठने वाले ये दोनों व्यक्ति यह नहीं देखना चाहते कि उनके आसपास की दुनिया किस तरह बदल रही है और मुसलमान कैसे इस्लाम से नाता तोड़ रहे हैं। लेकिन ऐसा हो रहा है। इस्लाम छोड़ने वालों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है और यह चलन न केवल पश्चिमी देशों में पले-बढ़े लोगों में देखने को मिल रहा है, बल्कि मुस्लिम और यहां तक कि इस्लामी देशों में भी। आखिर बात क्या है? चंद जमातों के कट्टरपंथी आचार-विचार के कारण जिस इस्लाम को मानने वालों के प्रति पूरी दुनिया के मन में संदेह ने घर बना लिया हो, उन मुसलमानों के मन में इस्लाम को लेकर संदेह क्यों गहरा रहा है?
‘एक्स-मुस्लिम आंदोलन’ एक लहर है जिसका आकार धीरे-धीरे बड़ा होता जा रहा है। इसमें दुनिया के कोने-कोने से लोग शामिल होते जा रहे हैं। यह आंदोलन पश्चिम के कथित आधुनिक समाजों के साथ-साथ मुस्लिम देशों में भी फैल रहा है और इस्लाम से तौबा करने वाले सार्वजनिक रूप से अपने मजहब को छोड़ रहे हैं और अक्सर इससे जुड़े जोखिमों के बाद भी। यह आंदोलन खास तौर पर उन समाजों के नजरिए से अहम हो जाता है जहां आस्था को बदलने का कोई रास्ता नहीं है और ऐसा करने वालों को सामाजिक बहिष्कार के साथ कानूनी नतीजे भुगतने पड़ते हैं, और यहां तक कि जान जोखिम में पड़ने का खतरा भी उठाना पड़ता है। यहां दो महत्वपूर्ण प्रश्न खड़े होते हैं- पहला, मुसलमानों का इस्लाम छोड़ने का यह आंदोलन कितना बड़ा है और दूसरा, आखिर यह हो क्यों रहा है।
घटता विश्वास, बढ़ता संदेह
जनसांख्यिक रुझान देने वाले ‘प्यू रिसर्च सेंटर’ का कहना है कि हर साल कितने लोग इस्लाम छोड़ रहे हैं, इसकी सटीक संख्या बताना काफी मुश्किल है, क्योंकि मत-पंथ छोड़ने के कई कारण होते हैं, जिनके बारे में जानकारी सामने नहीं आती। फिर भी, प्यू ने कुछ अनुमान और आंकड़े प्रस्तुत किए हैं। प्यू की 2020 की रिपोर्ट के अनुसार इस्लाम छोड़ने वालों में ऊपर के तीन देश थे- फ्रांस (18 प्रतिशत), अमेरिका (15 प्रतिशत) और ब्रिटेन (12 प्रतिशत)। रिपोर्ट के अनुसार 55 प्रतिशत लोगों ने इस्लाम छोड़ने का कारण आस्था का खत्म हो जाना और 21 प्रतिशत ने मजहबी संस्थाओं से मोहभंग होना बताया तो 15 प्रतिशत ने इसके लिए व्यक्तिगत कारणों का हवाला दिया।
इसी की 2019 की रिपोर्ट में बताया गया कि अमेरिका में लगभग 13 लाख मुसलमानों ने इस्लाम छोड़ दिया है। प्यू की 2017 की रिपोर्ट के अनुसार तब अमेरिका में हर साल इस्लाम छोड़ने वालों की संख्या लगभग एक लाख थी जबकि फ्रांस में ऐसे लोगों की संख्या 15 हजार थी। वहीं, गैलप की 2019 की रिपोर्ट के अनुसार 23 प्रतिशत अमेरिकी मुसलमानों ने बताया कि उन्हें इस्लाम को लेकर संदेह है, जबकि 12 प्रतिशत ने अपने आप को एक्स-मुस्लिम कहा। इस्लाम छोड़ने वालों में से 44 प्रतिशत ने कहा कि उनका इस्लाम में भरोसा नहीं रहा, जबकि 26 प्रतिशत ने मजहबी संस्थाओं के प्रति मोहभंग होने को कारण बताया और 21 प्रतिशत ने व्यक्तिगत कारणों का हवाला दिया।
इस्लाम छोड़ने वालों में ज्यादातर पढ़े-लिखे युवा थे जिनका जन्म अमेरिका में हुआ। 2020 में अमेरिका में हुई पांथिक जनगणना के अनुसार वहां मुस्लिम आबादी 1.34 प्रतिशत थी जिसका मतलब है करीब 44 लाख। अब आबादी के इस आकार को ध्यान में रखते हुए सोचें कि वहां कितनी तेजी से इस्लाम छोड़ने वाले लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है।
वैसे ही, 2020 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार ब्रिटेन में हर साल करीब एक लाख मुस्लिम इस्लाम छोड़ रहे हैं। 2019 की जनगणना में इंग्लैंड और वेल्स के 61,000 लोगों ने अपनी पहचान ‘एक्स-मुस्लिम’ बताई और इस्लाम छोड़ने के लिए 43 प्रतिशत ने इस्लाम के प्रति ‘विश्वास की कमी’, 24 प्रतिशत ने ‘मजहबी संस्थाओं से मोहभंग’ और 21 प्रतिशत ने ‘व्यक्तिगत कारण’ का हवाला दिया। इसी तरह हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के जर्नल आफ कंटेम्पररी रिलिजन (2018) ने इस्लाम छोड़ने वालों को जगह देने वाले आनलाइन मंचों का अध्ययन कर वही निष्कर्ष निकाला- लोगों ने इस्लाम में विश्वास की कमी, मजहबी संस्थाओं से मोहभंग और व्यक्तिगत कारण को इसके लिए जिम्मेदार बताया।
आस्ट्रेलिया की नेशनल यूनिवर्सिटी ने 2019 में 55 पूर्व मुसलमानों का साक्षात्कार लिया, जिसमें उनसे इस्लाम छोड़ने का कारण पूछा गया तो उन्होंने विश्वास की कमी, मजहबी संस्थाओं से मोहभंग और व्यक्तिगत कारण का हवाला दिया। इसमें कई ने बताया कि उन्हें इस्लाम छोड़ देने के कारण सामाजिक बहिष्कार झेलना पड़ रहा है।
भारत के बारे में प्यू की 2021 की रिपोर्ट कहती है कि यहां के छह प्रतिशत मुसलमान ‘अल्लाह’ को नहीं मानते। इसकी व्याख्या एक्स मुस्लिम साहिल इस तरह करते हैं कि चूंकि देश में मुसलमानों की आबादी लगभग 20 करोड़ है, तो यहां लगभग 1.2 करोड़ एक्स-मुस्लिम हैं।
आसम विदाउट अल्लाह अभियान
वह ट्विटर का दौर था। 2019 का। अचानक ट्विटर पर #AwesomeWithoutAllah ट्रेंड करने लगता है और फिर वह बात होंठों पर आ जाती है, जो कितने ही लोगों ने दिल में छुपा रखी थी- ‘हमें इस्लाम कबूल नहीं।’ देखते-देखते दुनिया के कोने-कोने से लोग इससे जुड़ जाते हैं और ऐलान करते हैं कि वे इस्लाम से तौबा कर चुके हैं। फिर लोग अपने अनुभव साझा करने लगते हैं कि किसके साथ क्या हुआ और क्यों उन्होंने इस्लाम को छोड़ दिया।
यह एक आंदोलन है जिसे उत्तरी अमेरिका के एक्स मुस्लिम चला रहे हैं। इसके माध्यम से इस्लाम छोड़ चुके लोगों को मंच दिया जाता है कि वे अपने अनुभव साझा करें। इसके साथ ही इस आंदोलन का उद्देश्य इस विचार को बढ़ावा देना है कि इस्लाम के बिना भी एक मुस्लिम पूर्ण और खुशहाल जीवन जी सकता है। यह अभियान मुख्य रूप से सोशल मीडिया के माध्यम से हैशटैग #AwesomeWithoutAllah का उपयोग करके चलाया जाता है। इसमें लोग अपने अनुभव साझा करते हैं जिसमें काफी मामले इससे जुड़े होते हैं कि उन्हें इस्लाम छोड़ने के बाद किस तरह की चुनौतियों या उत्पीड़न का सामना करना पड़ा। यह अभियान एक्स मुस्लिम्स आफ नॉर्थ अमेरिका (एक्सएमएनए) नामक गैरसरकारी संगठन चलाता है और इसका कहना है, ‘‘अमेरिका में पले-बढ़े हर चौथे मुसलमान ने इस्लाम छोड़ दिया है।’’ इस अभियान का एक उद्देश्य यह भी है इस्लाम छोड़ने वालों के साथ भेदभाव कम हो। इस पहल की शुरुआत 2012 में मानवाधिकार कार्यकर्ता मोहम्मद सईद ने की थी।
मुस्लिम देशों में भी हो रहा मोहभंग
दो वर्ष पहले ईरान में इतना बड़ा आंदोलन हुआ कि न केवल ईरान जल उठा, बल्कि इसकी तपिश दुनिया के कई देशों ने महसूस की। आखिर ऐसा क्यों हुआ? ईरान का एक घरेलू मामला सरहदों को पारकर दूसरे देशों तक क्यों पहुंच गया? आखिर उन देशों की मुस्लिम आबादी को इसमें ऐसा क्या दिखा कि वे स्वयं को इससे जोड़कर देखने लगे?
सारा बवाल 13 सितंबर, 2022 को शुरू हुआ। हिजाब नियमों के कथित उल्लंघन के कारण महसा अमिनी को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। उसे बुरी तरह मारा-पीटा गया और 16 सितंबर को अमिनी की मौत हो गई। ईरान के प्रांत कुर्दिस्तान के साकेज में रहने वाली 22 साल की अमिनी पढ़ रही थी। वह अपने भाई के साथ तेहरान गई थी जब पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया। 16 सितंबर को जब महसा की मौत की खबर साकेज पहुंची तो अगले ही दिन वहां के छात्र सड़कों पर उतर आए।
18 सितंबर को तेहरान समेत ईरान के कई हिस्सों में प्रदर्शन शुरू हो गया। शुरू में यह छात्रों का आंदोलन था, लेकिन पुलिस ने जिस तरह जबरदस्ती इसे कुचलने की कोशिश की, उससे जल्दी ही आम लोग भी इसमें शामिल हो गए। आंदोलन को दबाने के लिए पुलिस ने सख्ती की। कई जगहों पर गोलीबारी की गई। अक्तूबर बीतते-बीतते पुलिस की कार्रवाई से मरने वालों की संख्या 200 हो गई और दिसंबर तक यह आंकड़ा 550 तक जा पहुंचा। इस आंदोलन की दो बातों को ध्यान से देखना चाहिए। पहली, तीन माह तक आंदोलन पूरे जोर-शोर से चलता रहा और इस बात के बावजूद कि पुलिस की गोलीबारी में मरने वालों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही थी। और दूसरा, प्रदर्शन में शामिल लोग किस तरह अपने आप को अभिव्यक्त कर रहे थे।
कड़े कानून, परवाह नहीं!
इस्लाम आस्था का ऐसा वन-वे है जिसमें यू-टर्न का कोई प्रावधान नहीं रखा गया है। इसमें लोग आ सकते हैं, जा नहीं सकते और यदि किसी ने इस्लाम छोड़ा तो उसे सजा-ए-मौत तक दी जा सकती है। दुनिया में 49 मुस्लिम-बहुल यानी ऐसे देश हैं, जहां मुसलमानों की आबादी 50 प्रतिशत या इससे ज्यादा है। इनमें से 27 देशों में इस्लाम राज्य मजहब है। सात देशों ने खुद को ‘इस्लामी देश’ घोषित कर रखा है। ये हैं-अफगानिस्तान, ईरान, मौरितानिया (अफ्रीकी महाद्वीप में), पाकिस्तान, सऊदी अरब, सोमालिया और यमन। इस्लामी देश होने का मतलब है कि इन देशों में इस्लाम न केवल राज्य का मजहब है, बल्कि सरकार के कामकाज से लेकर कानून-व्यवस्था भी इस्लामी शिक्षाओं पर आधारित होती है। शरिया कानून में इस्लाम छोड़ने वालों को सजा-ए-मौत तक की सजा सुनाई जा सकती है और इस तरह के उदाहरण कई देशों में मिलते भी हैं।
- सऊदी अरब : 2014 में एक सऊदी अरबी नागरिक को इस्लाम छोड़ने के आरोप में सजा-ए-मौत दी गई।
- ईरान : 2013 में एक ईरानी नागरिक को इस्लाम छोड़ने पर मृत्युदंड दिया गया था।
- सोमालिया : 2017 में एक सोमाली नागरिक को इस्लाम छोड़ने के आरोप में सजा-ए-मौत दी गई थी।
- अफगानिस्तान : 2018 में एक अफगानी नागरिक को इस्लाम छोड़ने के आरोप में मृत्युदंड दिया गया था।
इन उदाहरणों के बाद एक बार फिर ईरान के महसा अमिनी प्रकरण को देखें। वहां मामला इस्लाम छोड़ने का नहीं था, बल्कि सख्त शरिया कानूनों के प्रति लोगों में गुस्से का था। यह इस्लाम से मोहभंग होने का शुरुआती चरण है और दुनिया भर में मुसलमानों के इस्लाम छोड़ने की व्याख्या करने के क्रम में ईरान में महसा अमिनी की हिरासत में मौत के बाद लोगों में आए उबाल को गंभीरता से देखने-समझने की जरूरत है।
- ईरान में हिजाब कानून, जिसे ‘इस्लामी ड्रेस कोड’ के रूप में भी जाना जाता है, के तहत महिलाओं को सार्वजनिक स्थानों पर हिजाब और ढीले-ढाले कपड़े पहनने होते हैं। ईरान में यह कानून 1979 की क्रांति के बाद लागू किया गया और यह इस्लामी कानून (शरिया) की व्याख्या पर आधारित है।
क्या है इस्लामी ड्रेस कोड
- सिर पर हिजाब : महिलाओं को सिर पर ऐसा दुपट्टा पहनना चाहिए जो उनके बालों, गर्दन और कानों को ढके।
- ढीले-ढाले कपड़े : महिलाओं को ऐसे ढीले-ढाले कपड़े पहनने चाहिए जो उनके शरीर को ढकें, जिसमें उनके हाथ और पैर भी शामिल हैं।
- शालीन पोशाक : कपड़े शालीन होने चाहिए और शरीर का आकार नहीं दिखना चाहिए। तंग या पारदर्शी कपड़े पहनने की मनाही। जींस या स्कर्ट जैसे पश्चिमी शैली के कपड़े पहनना मना।
- ईरान में महसा अमिनी प्रकरण की जड़ में था हिजाब कानून का पालन न करना, तो यह भी जानना चाहिए कि इस कानून का पालन नहीं करने पर शरिया कानून के तहत क्या दंड दिया जा सकता है- मौखिक चेतावनी, जुर्माना, गिरफ्तारी, कारावास और कुछ मामलों में कोड़े मारना।
हिजाब कानून को ईरान की ‘नैतिक पुलिस’ द्वारा लागू किया जाता है, जो इसका अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए सार्वजनिक स्थानों पर गश्त करती रहती है। महसा अमिनी की गिरफ्तारी इसी कानून के उल्लंघन के कारण हुई और हिरासत में मारपीट के कारण उसकी मृत्यु हो गई। इसके बाद जिस तरह से लोगों ने सड़कों पर उतरकर प्रदर्शन किए और सैकड़ों लोगों के पुलिस गोलीबारी में मारे जाने के बाद भी विरोध जताने से पीछे नहीं हटे, वह बताता है कि लोगों के भीतर इस्लाम के इस तरह के प्रावधानों को लेकर कितना गुस्सा है।
मौलानाओं के खिलाफ गुस्सा
एक तो लड़कियों और महिलाओं ने हिजाब उतारकर विरोध जताया और दूसरा लोग टोपियां उछाल रहे थे। दोनों के अपने-अपने निहितार्थ! हिजाब उतारकर बच्चियों/महिलाओं ने शासन को खुलेआम चुनौती दी कि तुम्हें जो करना है कर लो, हम हिजाब नहीं पहनतीं। तो वहीं, टोपी उछालकर लोगों ने मौलानाओं की सत्ता के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। ईरान में टोपी उछालने के आंदोलन को ‘अम्मामेपरानी’ कहा जाता है। युवा प्रदर्शनकारियों ने मौलानाओं की टोपियां (अम्मामे) उछालकर अपना विरोध जताया। यह कार्य प्रतीकात्मक रूप से मजहबी और राजनीतिक सत्ता का विरोध करने के लिए किया गया, जो ईरान में मौलानाओं और मजहबी नेताओं की शक्तियों पर प्रहार करता है।
इस आंदोलन ने जोर इसलिए पकड़ा क्योंकि युवा पीढ़ी मजहबी और सामाजिक प्रतिबंधों के खिलाफ अपनी नाराजगी व्यक्त कर रही थी। इस्लामिक गणराज्य के सख्त कानून, विशेष रूप से महिलाओं के लिए हिजाब जैसे अनिवार्य नियम, और सामाजिक स्वतंत्रता की कमी के कारण युवाओं में व्यापक असंतोष है। इस आंदोलन से मौलानाओं और इस्लामिक गणराज्य के नेताओं के बीच चिंता बढ़ गई है, क्योंकि यह मजहबी सत्ता की वैधता को चुनौती देता है। यह विरोध प्रदर्शन इस बात का संकेत है कि युवा पीढ़ी इस्लामिक गणराज्य की कठोर नीतियों से थक चुकी है और अपने अधिकारों और स्वतंत्रताओं के लिए आवाज उठा रही है।
महसा अमिनी की हिरासत में मौत के बाद कई देशों में विरोध प्रदर्शन हुए। तुर्की, एस्राएल, अमेरिका, कनाडा, स्वीडन, नॉर्वे, डेनमार्क, जर्मनी, फ्रांस, इटली और आस्ट्रेलिया जैसे देशों में लोगों ने सड़कों पर उतरकर महसा अमिनी के साथ हुए अन्याय के खिलाफ आवाज उठाई और देखते-देखते ईरान की वह गुमनाम लड़की दुनियाभर की सुर्खियों में आ गई।
पाकिस्तान में भी बदला माहौल!
वैसे पूरी दुनिया में आतंकवाद और आतंकवादियों की आपूर्ति करने वाले पाकिस्तान में भी लोगों का इस्लाम से मोहभंग हो रहा है और यह बात विभिन्न स्रोतों से बाहर आ रही है। प्यू की 2019 की रिपोर्ट के अनुसार करीब एक प्रतिशत मुसलमानों (लगभग 18 लाख) ने बताया कि उन्होंने इस्लाम छोड़ दिया है। इस्लामाबाद स्थित थिंक टैंक है- बाइट्स फ्यूचर स्कूल। इसकी 2020 की रिपोर्ट के अनुसार हर साल लगभग 5,000 मुस्लिम इस्लाम से तौबा कर रहे हैं। नेशनल कमीशन फॉर जस्टिस एंड पीस की 2018 की रिपोर्ट बताती है कि सालाना 10-20 हजार लोग इस्लाम छोड़कर ईसाई पंथ अपना रहे हैं।
आंकड़ों की जुबानी
- फ्रांस के 18 प्रतिशत मुसलमानों ने इस्लाम छोड़ दिया है।
- अमेरिका के 15 प्रतिशत मुसलमानों ने इस्लाम छोड़ा।
- ब्रिटेन के 12 प्रतिशत मुसलमानों ने इस्लाम छोड़ा।
- प्यू रिपोर्ट के अनुसार 55 प्रतिशत लोगों ने इस्लाम छोड़ने वाले आस्था खत्म हो जाने को वजह बताया है। 44 प्रतिशत ने इस्लाम में भरोसा न रहने की बात कही गैलप की रिपोर्ट में।
- 21 प्रतिशत इस्लाम छोड़ने वालों ने मजहबी संस्थाओं से मोहभंग होने को बताया कारण।
- 15 प्रतिशत इस्लाम छोड़ने वालों ने व्यक्तिगत अनुभवों को बताया कारण।
- ब्रिटेन में हर साल करीब एक लाख लोग इस्लाम छोड़ रहे। 2019 की जनगणना में इंग्लैंड और वेल्स के 61,000 लोगों ने अपनी पहचान ‘एक्स-मुस्लिम’ बताई और इस्लाम छोड़ने के लिए 43 प्रतिशत ने ‘विश्वास की कमी’ को कारण बताया।
- न केवल ईरान जल उठा, बल्कि इसकी तपिश दुनिया के कई देशों ने महसूस की। आखिर ऐसा क्यों हुआ? ईरान का एक घरेलू मामला सरहदों को पारकर दूसरे देशों तक क्यों पहुंच गया? आखिर उन देशों की मुस्लिम आबादी को इसमें ऐसा क्या दिखा कि वे स्वयं को इससे जोड़कर देखने लगे?
- एक तो लड़कियों और महिलाओं ने हिजाब उतारकर विरोध जताया वहीं दूसरे लोग टोपियां उछाल रहे थे। दोनों के अपने-अपने निहितार्थ! हिजाब उतारकर बच्चियों/महिलाओं ने शासन को खुलेआम चुनौती दी कि ‘तुम्हें जो करना है कर लो, हम हिजाब नहीं पहनतीं।’ तो वहीं, टोपी उछालकर लोगों ने मौलानाओं की सत्ता के खिलाफ मोर्चा खोल दिया।
क्यों टूटा भरोसा?
वैसे अपनी आस्था से कोई यूं ही दूर नहीं जाता। व्यक्तिगत तौर पर निजी आस्था को छोड़ना बहुत कठिन होता है। कारण, आप बचपन से जो जानते-समझते आए हैं और आपके आसपास का माहौल आपको जो कुछ सिखाता है, सामान्य स्थिति में उसे आप खूंटी पर नहीं टांग देते। जैसा कि अमेरिकी पंथविद् और आस्था पर कई पुस्तकें लिखने वाले डेल बी लिंडसे कहते हैं, ‘‘आस्था बदलना एक जटिल और व्यक्तिगत प्रक्रिया है। यह आत्मावलोकन, शिक्षा और अनुभवों के माध्यम से होता है।’’ ब्रिटिश जीवविज्ञानी, लेखक और विचारक रिचर्ड डॉकर भी कुछ ऐसी ही बात कहते हैं। डॉकर को तर्कवाद और विज्ञान पर केंद्रित उनके दृष्टिकोण के लिए जाना जाता है। उनका कहना है, ‘‘आस्था बदलने के लिए साहस और खुलेपन की जरूरत होती है। इसके लिए खुद को और दुनिया को नए तरीके से देखना पड़ता है।’’
यही कारण है कि लोग आस्था को आसानी से नहीं छोड़ते। यदि कुछ बातें पसंद नहीं भी आतीं, तो भी वे उनके साथ तालमेल बैठा लेते हैं। इसके बाद भी यदि कोई आस्था को छोड़ने का फैसला करता है तो उसके पीछे ठोस तर्क होने चाहिए और अपने परिवार तथा संबंधियों के साथ संभावित टकराव को झेलने की ताकत भी।
इन दोनों ही कसौटियों पर इस्लाम छोड़ने वाले मुसलमानों की बढ़ती संख्या यह बताती है कि यह प्रवृत्ति न तो अपवाद है और न ही तात्कालिक। यह पूरी गंभीरता के साथ आकार ले रही एक मुहिम है जो काफी आगे तक जाएगी और गहरा असर छोड़ेगी।
वापस संदर्भ लेते हैं ऊपर दी गई रिपोर्ट का। इस्लाम छोड़ने वाले मुस्लिमों ने विभिन्न स्रोतों के साथ बातचीत में आस्था बदलने के जो कारण बताए, उनपर गहराई से विचार करने की जरूरत है। जितने कारण, उतने प्रश्न। यानी, लोगों में इस्लाम के प्रति भरोसे में कमी क्यों आई, उनका मजहबी संस्थाओं से मोहभंग क्यों हुआ और लोगों के सामने वे कौन से व्यक्तिगत कारण आ खड़े होते हैं जिनसे वे इस्लाम छोड़ने का फैसला ले लेते हैं? इसके लिए कई आयामों के संदर्भ में बात करनी होगी।
मजहबी ग्रंथों पर समीक्षात्मक दृष्टि
यदि किसी पाठ में विरोधाभास है तो उसे स्वीकार करने में आज की आधुनिक सोच-समझ को परेशानी होगी। कई एक्स-मुस्लिमों का मानना है कि उन्हें इस्लामिक ग्रंथों (कुरान और हदीस) में पाए जाने वाले विरोधाभासों, विसंगतियों या नैतिक रूप से परेशान करने वाली बातों ने आस्था बदलने की ओर धकेला। आधुनिकता की कसौटी पर कसने से पांथिक ग्रंथों की व्याख्या में लचीलापन और समावेशिता आती है। इससे ये ग्रंथ अधिक प्रासंगिक हो सकते हैं। गांधीजी का भी मानना था, ‘‘पांथिक ग्रंथों की बदलते समय के अनुसार व्याख्या की जानी चाहिए, ताकि वे वर्तमान में भी मानवता के विकास में सहायक हो सकें।’’
एक्स मुस्लिमों ने इस्लाम छोड़ने के जो कारण बताए हैं, उसमें बड़ी वजह यही है कि उन्हें इसमें विरोधाभास दिखता है। इस संदर्भ में एक्स-मुस्लिम इमरान फिसारत की बातों पर गौर किया जाना चाहिए। इमरान फिसारत पाकिस्तानी मूल के इस्लामी आलोचक, लेखक और वीडियो ब्लॉगर हैं। उन्होंने इस्लाम पर समीक्षात्मक दृष्टि से कई पुस्तकें लिखी हैं, जिनमें ‘मुस्लिम जिहाद : इम्पैक्ट आन इंडियन सोसाइटी’ और ‘डायरी आफ ए मुस्लिम फ्यूचरिस्ट’ शामिल हैं। वे कहते हैं, ‘‘मैंने इस्लाम इसलिए छोड़ा, क्योंकि मैं इस्लाम की शिक्षाओं में पाए गए विरोधाभासों और अमानवीयता के बारे में खुद से झूठ नहीं बोल सकता था।’’
सिक्के का दूसरा पहलू
जो इस्लाम छोड़ रहे हैं या जिनका इस्लाम पर अच्छा-खासा काम है, दोनों तरह के लोगों ने इस्लाम, इसकी शिक्षा, इसकी प्रासंगिकता को मूल में रखते हुए किताबें लिखी हैं। ऐसी ही कुछ किताबें इस प्रकार हैं-
- इब्न वर्राक की पुस्तक ‘Why I Am Not a Muslim’ कुरान, हदीस और नबी मुहम्मद के जीवन की आलोचनात्मक समीक्षा प्रस्तुत करती है। इसके साथ ही, यह इस्लाम छोड़ने के कारणों को रेखांकित करती है।
- यास्मीन मोहम्मद की इस पुस्तक ह्यव ‘Unveiled : How Western Liberals Empower Radical Islam’ में इस्लाम छोड़ने और इसके परिणामों का विवरण दिया गया है, साथ ही पश्चिमी उदारवाद के प्रभाव पर भी चर्चा की गई है।
- अली ए. रिजवी की पुस्तक ‘The Atheist Muslim: A Journey from Religion to Reason’ तर्क और मजहब के बीच संघर्ष की यात्रा का वर्णन करती है और एक्स-मुस्लिमों की चुनौतियों को उजागर करती है।
- साइमन कॉटी की यह पुस्तक ‘The Apostates : When Muslims Leave Islam’ इस्लाम छोड़ने के सामाजिक कारणों पर लिखी गई है और इसमें लोगों के व्यक्तिगत अनुभवों को आधार बनाया गया है।
- सैम हैरिस और माजिद नवाज की यह पुस्तक ‘Islam and the Future of Tolerance: A Dialogue’ इस्लाम को सुधारने की चुनौतियों और मजहब छोड़ने के कारणों पर प्रकाश डालती है।
- अयान हिरसी अली की पुस्तक ‘Infidel’ उनकी प्रभावशाली आत्मकथा है, जो इस्लाम से पंथनिरपेक्षता तक की उनकी यात्रा का विवरण देती है।
- डैन वार्कर की पुस्तक है- ‘Godless: How an Evangelical Preacher Became One of America’s Leading Atheists’ हालांकि यह पुस्तक खास तौर पर इस्लाम पर केंद्रित नहीं है, फिर भी यह पंथ-आस्था छोड़ने की बढ़ती प्रवृत्ति का अध्ययन करती है, जिसमें मुस्लिम समुदाय भी शामिल है।
मानवाधिकार संबंधी चिंताएं
आज चोरी के आरोप में कोड़े मारना या अवैध संबंधों के आरोप पर ‘संगसारी’ को स्वीकार नहीं किया जा सकता। कई एक्स-मुस्लिमों ने इस्लाम के इस तरह के प्रावधानों को आस्था बदलने का प्रमुख कारण बताया है। इस तरह के मानवाधिकार उल्लंघन आधुनिक समय में भी हो रहे हैं और इसके लिए कुछ उदाहरणों पर गौर करना ही पर्याप्त है।
एक्स-मुस्लिम आयशा हिरसी अली कहती हैं, ‘‘इस्लाम में मानवाधिकारों का उल्लंघन एक संरचित और संस्थागत समस्या है।’’ सोमालिया में जन्मी आयशा 1997 से नीदरलैंड की नागरिक हैं। वे लेखिका, मानवाधिकार कार्यकर्ता और राजनीतिज्ञ हैं। उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘इन्फिडेल’ में इस्लाम छोड़ने के अपने अनुभवों के बारे में लिखा है।
कन्वर्जन और ईशनिंदा कानून
कई मुस्लिम-बहुल देशों में कन्वर्जन और ईशनिंदा के लिए कठोर दंड दिया जाता है और मानवाधिकार के प्रति सजग लोग इसे आस्था और विवेक की स्वतंत्रता के विरुद्ध मानते हैं। कई जगहों पर यह तनातनी सिविल सोसाइटी बनाम इस्लाम की शक्ल ले रही है।
इस्लाम कन्वर्जन की इजाजत नहीं देता और ईशनिंदा पर सख्त सजा का प्रावधान है। आने-जाने और पहुंच की दृष्टि से दुनिया काफी छोटी हो गई है। लोग हर समाज को देख रहे हैं और ऐसे में विभिन्न समाजों-समुदायों और देशों से तुलना स्वाभाविक है और ऐसे में मुसलमानों के एक वर्ग को लगने लगा कि ईशनिंदा पर मौत की सजा जैसा कठोर दंड वाजिब नहीं, जबकि कुछ लोगों ने इसे अभिव्यक्ति की आजादी में खलल माना। अब भी कई मुस्लिम देशों में ईशनिंदा के मामले में मौत की सजा का प्रावधान है। पाकिस्तान ने 1986 में जनरल जिया-उल-हक के शासनकाल के दौरान कानून बनाया था कि ईशनिंदा करने वाला मृत्युदंड या आजीवन कारावास का हकदार होगा। सऊदी अरब में ईशनिंदा पर मौत की सजा का प्रावधान तो है ही, वहां नास्तिकता को भी इसी खांचे में रखा जाता है। ईरान और अफगानिस्तान में भी इन आरोपों पर फांसी की सजा दी जाती है, जबकि मिस्र में इसके लिए उम्रकैद का प्रावधान है।
ईरान सख्त, सजा कड़ी
- 2017 में अदालत ने आरोपी को फांसी की सजा सुनाई।
- 2019 में अदालत ने तीन लोगों को फांसी की सजा दी।
- 2020 में अदालत ने एक व्यक्ति को दी फांसी की सजा।
इसी तरह की सजा का प्रावधान मुस्लिम देशों में भी है। इसमें एक और दिक्कत आती है कि जब भी किसी पर इस तरह के आरोप लगते हैं तो पुलिस प्रशासन के हाथ पड़ने से पहले ही भीड़ उसका ‘हिसाब’ कर देती है। इस तरह की घटनाएं अक्सर मुस्लिम देशों में होती हैं।
ईरानी मूल की एक्स-मुस्लिम मरयम नमाजी ईशनिंदा कानून की भुक्तभोगी रही हैं, लेकिन खुशकिस्मत रहीं कि अंतरराष्ट्रीय बीच-बचाव के कारण उनकी जान बच गई। मरियम को ईशनिंदा के आरोप में 2019 में गिरफ्तार किया गया था और बाद में उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई थी। मरयम नमाजी के मामले ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चिंता पैदा की थी और कई देशों ने ईरान सरकार से उनकी सजा को कम करने का आग्रह किया और आखिरकार उन्हें इस शर्त पर फांसी नहीं दी गई कि वे देश छोड़कर चली जाएंगी। उन्हें ब्रिटेन ने शरण दी और अब वे लंदन में रहकर महिला अधिकारों के लिए काम करती हैं।
मरियम कहती हैं, ‘‘इस्लाम छोड़ना केवल मजहब को अस्वीकार करने के बारे में नहीं है; यह स्वतंत्र रूप से सोचने और बिना डर के जीने के अधिकार का दावा करने के बारे में है।’’
लैंगिक असमानता
लैंगिक असमानता भी एक ऐसा मामला है जो खास तौर पर मुस्लिम युवतियों/महिलाओं को आस्था बदलने के लिए उकसाता है। जहां एक ओर दुनियाभर में महिला-पुरुष में भेदभाव खत्म करने के प्रयास हो रहे हैं और इसके कानूनी प्रावधान किए जा रहे हैं, वहीं इस्लाम में इस भावना के उलट कायदे-कानून डटे हुए हैं। कई एक्स-मुस्लिमों ने इस मामले में बेबाक तरीके से नाराजगी जताई है। ईरान में जन्मे और अब ब्रिटेन में रह रहे आरिफ मोहम्मद कहते हैं, ‘‘इस्लामिक कानूनों में महिलाओं को पुरुषों की तुलना में कम अधिकार दिए जाते हैं, जो कि उनके मानवाधिकारों का उल्लंघन है।’’
ईरान मूल की ही अली सिना अब अमेरिका में रह रही हैं। वे कहती हैं, ‘‘महिलाओं को संपत्ति के मामलों में पुरुषों की सलाह लेनी पड़ती है, जो कि उनकी स्वतंत्रता का उल्लंघन है।’’
एक बार फिर मरियम नमाजी कहती हैं, ‘‘इस्लामिक कानूनों में महिलाओं को पुरुषों की तुलना में कम विरासत मिलती है, जो कि उनके साथ भेदभाव है।’’ वहीं कनाडा में रह रहीं पाकिस्तानी मूल की सारा हसन कहती हैं, ‘‘गवाही देने के मामले में भी महिलाओं के साथ भेदभाव किया जाता है। दो महिलाओं की गवाही एक पुरुष की गवाही के बराबर मानी जाती है और यह उनके साथ बुनियादी भेदभाव है।’’
विरासत महज संपत्ति का मामला नहीं, बल्कि मुस्लिम महिलाओं के लिए यह उनके अस्तित्व से जुड़ी बात है, उनके बराबरी के दर्जे की बात है।
व्यक्तिगत स्वतंत्रता
इस्लाम के नियम-कायदों के प्रति भी बड़ी संख्या में लोगों में असंतोष है। इस्लाम छोड़ने वाले कई लोगों ने इस तरह की बातें कहीं और उनका मानना है कि आज के समाज में इस तरह की बातों का कोई मतलब नहीं है। इस्लाम में खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने, रहन-सहन के बारे में नियम-कायदे बनाए गए हैं और ईरान, सउदी अरब समेत इस्लामी नियम-कानून यानी शरिया से चलने वाले देशों में तो इन्हें मानने की बाध्यता है जबकि कई मुस्लिम देशों, जहां शरिया कानून लागू नहीं भी है, वहां इनका पालन करने का सामाजिक तौर पर दबाव तो रहता ही है।
ड्रेस कोड : इस्लाम पुरुषों को यह निर्देश देता है कि वे अपने शरीर के ऊपरी हिस्से को ढककर रखें, खास तौर पर अपनी छाती और पीठ को। वहीं महिलाओं को निर्देश देता है कि वे अपने शरीर को पूरी तरह से ढककर रखें और हिजाब पहनें। साथ ही यह व्यवस्था भी देता है कि मुसलमानों को ऐसे कपड़े नहीं पहनने चाहिए जो इस्लाम के खिलाफ हों या जो किसी अन्य मत के प्रतीक हों। अफगानिस्तान मूल के एक्स-मुस्लिम अब्दुल्लाह अहमद अनस कहते हैं, ‘‘मुझे लगता है कि हिजाब और बुर्का पहनना महिलाओं की आजादी को कम करता है। यह उन्हें एक वस्तु के रूप में देखता है, न कि एक व्यक्ति के रूप में।’’
क्या खाएं-क्या नहीं : इस्लाम में कुछ खाद्य पदार्थ हलाल यानी शुद्ध या वैध हैं, जबकि कुछ हराम यानी निषिद्ध या अवैध। हलाल खाद्य पदार्थों में मांस, मछली, फल, सब्जियां आदि शामिल हैं। वहीं हराम खाद्य पदार्थों में सूअर का मांस, शराब, और अन्य नशीले पदार्थ शामिल हैं। जानवरों की हत्या के लिए खास नियम हैं। इन्हें हलाल तरीके से यानी धीरे-धीरे गला रेत-रेतकर मारा जाना चाहिए। मिस्र की लेखिका और मानवाधिकार कार्यकर्ता नोनी दरविश कहती हैं, ‘‘हलाल एक ऐसी प्रणाली है जो मुसलमानों को अपनी आस्था के प्रति अंधविश्वासी बनाती है और उन्हें तर्कसंगत सोच से दूर रखती है।’’
रहन-सहन : इस्लाम में पांच वक्त की नमाज जरूरी है। रमजान के महीने में रोजा रखना जरूरी है, जिसमें मुसलमान सूरज निकलने से लेकर सूरज डूबने तक कुछ नहीं खाते या पीते। एक्स-मुस्लिमों का कहना है कि इस तरह की बंदिशें लोगों की वैयक्तिक स्वतंत्रता का उल्लंघन हैं और खास तौर पर दिक्कत वहां हो जाती है जहां ये नियम ऐच्छिक न रहकर बाध्यकारी बना दिए जाएं। सीरिया में जन्मी लेखिका और मानवाधिकार कार्यकर्ता वफा सुल्तान कहती हैं, ‘‘नमाज एक ऐसी प्रथा है, जो मुसलमानों के विचारों और क्रियाओं पर नियंत्रण रखती है और उन्हें महिलाओं के अधिकारों के प्रति असंवेदनशील बनाती है।’’
मजहब के ठेकेदारों से दूरी
मुल्ला-मौलाना और मजहबी तंजीमों की बड़ी जिम्मेदारी होती है, क्योंकि श्रद्धालुओं के लिए वे मजहब का जीता-जागता रूप होते हैं। उन्हीं की बातों, उन्हीं के आचार-विचार में लोग ईश्वर को देखने लगते हैं। लेकिन लोगों की आस्था में बड़ी जगह हासिल इन व्यक्तियों में यदि किसी तरह का कदाचार-अनाचार घुस जाता है और श्रद्धालुओं के सामने उनका स्याह चेहरा बेनकाब हो जाता है, तो इसी के साथ लोगों को ईश्वर से जोड़ने वाली डोर कमजोर हो जाती है। और चूंकि वह डोर पहले से ही कई जगहों पर छीजी हुई होती है, सो आखिरकार टूट जाती है। इस्लाम छोड़ने वाले मुस्लिमों के सामने भी काफी हद तक ऐसी ही स्थिति आई और इसका जिक्र उन्होंने तरह-तरह से किया है।
मुल्ला-मौलानाओं पर वित्तीय भ्रष्टाचार, यौन शोषण, मदरसों में बच्चों का शारीरिक शोषण, राजनीतिक हेरफेर, नैतिक पाखंड, समाज कल्याण, शिक्षा या दान के लिए मिले संसाधनों का दुरुपयोग, मदरसों और मस्जिदों का निजी लाभ या राजनीतिक गतिविधियों के लिए इस्तेमाल, मजहबी प्रभाव या राजनीतिक संबंधों का उपयोग करके अवैध रूप से भूमि या संपत्ति हासिल करना, मजहबी नेताओं या प्रथाओं पर सवाल उठाने या उनकी आलोचना करने वालों को चुप कराना या दंडित करना जैसे आरोप लगते रहते हैं।
ईरान में जन्मे और नीदरलैंड में बसे लेखक, मानवाधिकार कार्यकर्ता एहसान जामी कहते हैं, ‘‘मुल्ला-मौलाना लोगों के विचारों और उनकी क्रिया पर काबू करने के लिए मजहब का इस्तेमाल करते हैं और वे आजादी और तार्किक सोच को दबाते हैं।’’ पाकिस्तान में जन्मे और कनाडा में बसे लेखक ताहिर गोरा कहते हैं, ‘‘मुल्ला-मौलाना लोगों को अपने आसपास की दुनिया से अलग-थलग करने और उन्हें एक जकड़न में रखने के लिए मजहब का इस्तेमाल करते हैं।’’ पाकिस्तानी मूल के अमेरिकी लेखक, विचारक और यूट्यूबर हैरिस सुल्तान भी कहते हैं, ‘‘मुल्ला-मौलवी आम लोगों की सोच पर कब्जा करने के लिए मजहब का इस्तेमाल करते हैं।’’ सोमाली मूल की डच-अमेरिकी लेखिका और मानवाधिकार कार्यकर्ता हिरसी अली कहती हैं, ‘‘मुल्ला-मौलाना लोगों को डराने और धमकाने के लिए मजहब का इस्तेमाल करते हैं। वे महिलाओं के अधिकारों के प्रति असंवेदनशील हैं।’’
इस्लामी शिक्षा और वैज्ञानिक समझ में संघर्ष
यह दौर है तर्क का, विज्ञान का और इससे विकसित समझ का। पूरी आधुनिक शिक्षा के केंद्र में यही है और यही कारण है कि जब मजहबी शिक्षा और तर्क-विज्ञान से उपजी समझ में टकराहट पैदा होती है तो लोग भ्रमित हो जाते हैं और अंतत: उसी ओर झुकते हैं जिधर उनका तर्क कहता है। इस्लाम छोड़ने वाले मुस्लिमों ने यह बात बड़ी गंभीरता के साथ महसूस की।
पाकिस्तान मूल के लेखक, विचारक अली अहमद कहते हैं, विकासवाद और ब्रह्मांड विज्ञान के बारे में जानने के बाद मैंने समझा कि इस्लामी शिक्षाएं पुरानी और अतार्किक हैं।’’
सोमालिया मूल की लेखिका और मानवाधिकार कार्यकर्ता आयशा अहमद कहती हैं: ‘‘मैंने इस्लामिक स्कूल में पढ़ाई की, लेकिन जब मैंने विज्ञान और तर्कसंगतता के बारे में जानना शुरू किया, तो मैंने महसूस किया कि इस्लामिक शिक्षाएं मेरे लिए नहीं हैं। विकासवाद और ब्रह्मांड विज्ञान ने मुझे इस्लाम से दूर कर दिया।’’
पाकिस्तानी मूल के लेखक और इतिहासकार तारिक अली वामपंथी हैं जो बाद में लंदन में बस गए। वे कहते हैं, ‘‘मैंने इस्लामिक शिक्षाओं को अपने जीवन में उतारने की कोशिश की, लेकिन जब इस बारे में और जानना शुरू किया, तो महसूस किया कि इस्लामिक शिक्षाएं और विज्ञान एक दूसरे के विरोधी हैं।’’
स्पष्ट है, दुनिया बहुत बदल चुकी है और बदलती हुई दुनिया में मुसलमान ही इस्लाम के कई मूल भावों पर सवालिया निशान लगा रहे हैं। इन सवालों को जवाब चाहिए। आधुनिक समझ में वे सवाल को बुरा नहीं मानते, बल्कि इसे समाधान की पहली सीढ़ी मानते हैं। इस सवाल का जवाब जब भी आएगा, तो मुस्लिम समाज के भीतर से ही आएगा। अब यह तो वक्त ही बताएगा कि मुस्लिम समाज अपने मजहब को मुल्ला-मौलानाओं का बंधक बनाए रखना चाहता है या इसे उनकी जकड़न से निकालना चाहता है। इस्लाम का भविष्य इसी सवाल के जवाब में छिपा है।
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