॥ वन्देमातरम ॥
[जयपुर महानगर में घुमंतू कार्यः बदलाव की बयार]
“तमसो मा ज्योतिर्गमय, असतो मा सद्गामय” बृहदारण्यक उपनिषद का यह वाक्य कहता है, “मुझे अंधेरे से उजाले की ओर ले चलो, मुझे असत् से सत् की ओर से चलो।” हिन्दू समाज का एक बहुत बड़ा हिस्सा आज इसी अपेक्षा के हमारी ओर देख रहा है। यायावर जीवन जीने वाली गाड़िया लुहार, सपेरे, बंजारे, भोपा, सांसी, कंजर इत्यादि अनेक जातियां आज भी विकास की मुख्य धारा से दूर एक उपेक्षित जीवन जी रही हैं। इन जातियों को घुमंतु, अर्थघुमंतु और विमुक्त तीन वर्गो में बांटा जा सकता है। स्वभाव से स्वाभिमानी और स्वतंत्रता प्रेमी इन जातियों ने मध्यकाल में मुसलमानों से और ब्रिटिश काल में अंग्रेजों से जम कर के लोहा लिया। इस कारण बहुत क्रूरता के साथ इनका दमन किया गया और इतिहास में उनके योगदान को पूरी तरह छुपा दिया गया। यही नहीं इन जातियों को जन्मजात अपराधी कह कर शेष हिंदू समाज के साथ इनकी एक दूरी बनाने का षड्यंत्र किया गया। बाहर से आकर भारत पर राज करने वाली साथ शक्तियों के लिए यह घुमंतु समुदाय स्वाभाविक तौर पर आंख का कांटा था, किंतु दुर्भाग्यवश स्वतंत्रता के बाद भी ना उनकी स्थिति में कोई परिवर्तन आया और ना ही शेष समाज के इनके प्रति दृष्टिकोण में।
“हिंदवः सहोदरा सर्वे, न हिंदू पतितो भवेत”, अर्थात सभी हिंदू सहोदर भाई हैं, कोई भी हिंदू पतित नहीं है। इस विचार पर चलते हुए स्वयंसेवकों ने इनके बीच कार्य प्ररम्भ किया। बहुत कम समय में ही घुमंतू कार्य के प्रयास और परिणाम आज पूरे देश में दिखाई दे रहे हैं।
स्वयंसेवकों की सक्रियता से जयपुर महानगर में घुमंतू कार्य को विशेष गति मिली है। यहाँ अनेक स्थानों पर शिविर लगाकर इनके पहचान पत्र बनाने का काम किया जा रहा है। जिससे ये सरकारी योजनाओं का लाभ उठाने में सक्षम हो सकें। इन्हें स्वच्छता एवं स्वास्थ्य की प्रति जागरूक करने के लिए इनकी बस्तियों में निशुल्क चिकित्सा शिविर लगाए जा रहे हैं। अनेक बस्तियों में आधारभूत प्रशिक्षण एवं कुछ मानदेय के साथ आरोग्य मित्र नियुक्त किए गए हैं। छात्रावास एवं बाल संस्कार केंद्रों के माध्यम से इनकी आने वाली पीढ़ियों को अपनी विस्मृत सांस्कृतिक जड़ों से जोड़ने का काम किया जा रहा है। इनकी बस्तियों में इन्हीं की जातियों से पुजारी नियुक्त किए गए हैं जो अपनी बस्ती के पूजा स्थल पर नियत समय पर आरती करवाते हैं। दीपावली एवं रक्षाबंधन जैसे त्योहारों पर अपने कार्यकर्ता इनकी बस्तियों में जाकर त्यौहार मनाते हैं।
तीर्थयात्राः एक अभिनव प्रयोग
21 अप्रैल 2024 घुमंतू समाज के 110 लोगों के जीवन में एक अविस्मरणीय दिन था। उपेक्षा सहते हुए अनवरत आजीविका का संघर्ष करने वाले जिन लोगों ने गंगा मैया का केवल नाम ही सुना था, उन्होंने ‘घुमंतू तीर्थ योजना’ के अंतर्गत हरिद्वार और ऋषिकेश की तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान किया। अनेक मीडिया कर्मियों की उपस्थिति में दीपप्रज्वलन एवं पूर्ण मांगलिक विधि विधानों के पश्चात जयप्र के प्रांत प्रचारक मा. बाबूलाल जी ने तीर्थयात्रियों को संबोधित किया। क्षेत्रीय कार्यवाह श्रीमान जसवंत जी खत्री, महानगर घुमंतू कार्य संयोजक राकेश कुमार शर्मा की उपस्थिति में जयपुर के अंबावाडी स्थित आदर्श विद्या मंदिर से श्रद्धालुओं का यह जत्था रवाना हुआ। जिन लोगों ने स्वप्न में ही गंगा मैया के दर्शन किए थे, प्रस्थान के समय उनका उत्साह देखने योग्य था। 22 अप्रैल को प्रातः पूर्व में बिखरी लालिमा के साथ इन्होंने गंगा मैया के प्रथम दर्शन किए। हरिद्वार में हर की पौड़ी पर गंगा मैया को देखकर इन लोगों की आंखों में ऐसा धन्यता का भाव था, जैसे उनका जीवन सफल हो गया। हर की पौड़ी पर गंगा मैया के निर्मल प्रवाह और उसके किनारे खड़ी भगवान भोलेनाथ की विशाल प्रतिमा को देखकर कई श्रद्धालुओं की आंखों से आंसुओं की गंगा बहने लगी। महादेव का इससे सुंदर कोई अभिषेक नहीं हो सकता।
हर की पौड़ी से आगे बढ़कर ये तीर्थयात्री आचार्य श्री राम शर्मा की तपोभूमि शांतिकुंज पहुँचे। यहाँ जिस आत्मीयता के साथ उनका स्वागत किया गया, वह स्वयं इस बात की घोषणा था, कि वे अकेले नहीं हैं, सारा हिंदू समाज उनके साथ है। अपनी पारंपरिक राजस्थानी वेशभूषा में अलग नजर आने वाले ये घुमंतू तीर्थयात्री सभी के लिए आकर्षण का केंद्र थे। जब उन्हें यह पता चला कि ये महाराणा प्रताप के साथ लड़ने वाले स्वाभिमानी सैनिकों के वंशज हैं, जो अपने पूर्वजों की प्रतिज्ञा का पालन करने के लिए यायावर जीवन जी रहे हैं, तो यह आकर्षण आस्था में बदल गया। अनेक लोगों ने इनसे मिल कर अपनी आत्मीयता व्यक्त की और इस प्रकार की तीर्थयात्रा आयोजित करने के लिए प्रबंधकों को हृदय से बधाईयों दीं। यहाँ इन्होंने सप्तऋषि स्थल के दर्शन किए तथा अपने पितरों की शांति के लिए ‘सर्व पितृ शांतियज’ किया।
शांतिकुंज में इन्होंने गायत्री परिवार के संस्थापक पं. श्रीराम शर्मा आचार्य एवं माता भगवती देवी की समाधियों ‘प्रखर प्रज्ञा’ और ‘सजल श्रद्धा’ के दर्शन किये। प्रबंधकों द्वारा जब उन्हें चलने का संकेत किया गया, तो वे लौट लौट कर इस इन तरह समाधियों को छू रहे थे, जैसे बहुत दिनों बाद मिलने पर कोई बिछुडा हुआ बालक अपने माता-पिता से लिपट रहा हो। जहाँ प्रवेश करने तक की कल्पना इन्होंने नहीं की थी, आज वहाँ का पत्ता-पत्ता इन्हें अपना लग रहा था।
शांतिकुंज में माता भगवती भोजनालय में इन्होंने शुद्ध सात्विक भोजन किया। तत्पश्चात ये ऋषिकेश को रवाना हो गए। यहाँ रामझूला पर खड़े होकर इन्होंने ऐसे भाव के साथ गंगा मैया को देखा जैसे वह हिमालय से जमीन पर नहीं बल्कि सीधे उनके हृदय में उतर रही हो। यहाँ स्वर्गाश्रम में शिवालिक की पहाड़ियों के बीच इठलाती गंगा को देखकर जैसे इनकी पीढ़ियों की प्यास तृप्त हो रही थी। यह दर्शन ऐसा दिव्य था जैसे ये केवल आंखों से नहीं बल्कि अपनी देह के रोम रोम से गंगा को देख रहे हों। रामझूला से गंगा मैया को पार कर इन्होंने गीताभवन और परमार्थ ये निकेतन निकेतन के दर्शन किए। ये लोग हर की पौड़ी पर गंगास्नान करके आए थे, लेकिन यहाँ मैया के जादू में बंधे ये लोग एक बार फिर पानी में उतर गए। गंगा मैया ने भी सदियों से उपेक्षित अपनी इन प्रिय संतानों को भरपूर दुलार दिया।
लक्ष्मण झूला पर निर्माण कार्य चालू होने के कारण उधर जाना संभव नहीं हो सका। इसलिए रामझूला से जानकी सेतु होते हुए त्रिवेणी घाट पहुँच कर ये लोग प्रतिदिन शाम को होने वाली ग गंगा आरती में सम्मिलित सम्मिति हुए। नयनाभिराम दृश्यों और अविस्मरणीय अनुभवों को अपने जीवन भर की पूंजी बनाकर ये लोग 23 अप्रैल को जयपुर वापस लौटे। इन श्रद्धालुओं के आवागमन, आवास एवं भोजन की व्यवस्था दानदाताओं के सहयोग से पूर्णतया निशुल्क थी। पीठी दर पीढ़ी मेहनत मजदूरी करके जीवन यापन करने वाले इन लोगों के लिए इस प्रकार की यात्रा के बारे में सोचना भी संभव नहीं था। जिनके पास ना कभी इतना अवकाश था ना इतना पैसा, उनके लिए गंगा मैया के दर्शन जन्म जन्मांतर की प्यास मिटने जैसा अनुभव था। यात्रा करने वाले श्रद्धालुओं के साथ-साथ यात्रा का प्रबंधन करने वाले कार्यकर्ताओं के लिए भी यह एक अभूतपूर्व अनुभव था। इस तीर्थयात्रा से वापस लौटे घुमंतू श्रद्धालु इतने अभिभूत थे कि अपने भावों को शब्द भी नहीं दे पा रहे थे, किंतु उनकी आंखों की चमक इस प्रयोग की सफलता की कहानी कह रही थी…।
अपने सांस्कृतिक मानबिंदुओं एवं जड़ों के साथ जुड़ाव के लिए निरंतर इस प्रकार के प्रयोग किए जाने की आवश्यकता है। घुमंतू कार्य यद्यपि स्वयंसेवकों का नवीन प्रयास है, संसाधनों की कमी के बावजूद अपने ध्येयनिष्ठ विचार, कुशल मार्गदर्शन एवं समर्पित कार्यकर्ताओं के साथ यह कार्य निरंतर आगे बढ़ रहा है।
टिप्पणियाँ