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रिश्तेदारी : कांग्रेस और मुस्लिम लीग की

1937 में मुस्लिम लीग ने काउंसिल के अंदर वंदे मातरम गान का विरोध किया था तब नेहरू ने ही इस मुद्दे पर समझौता किया था कि पहले के केवल दो अंतरे गाये जाएं

by प्रो कपिल कुमार
Apr 9, 2024, 07:40 pm IST
in भारत, विश्लेषण
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राहुल द्वारा वायनाड में चुनाव जीतने के लिए मुस्लिम लीग की बैसाखियों पर खड़ा होना कोई नई बात नहीं है। यह तो कांग्रेस और मुस्लिम लीग के संबंधों की उस परंपरा का पालन है जो नेहरू ने 1947 से स्थापित की। भारत में कितने लोगों को यह ज्ञात है कि स्वयं को दुर्घटनावश हिन्दू बताने वाले इन चाचा जी ने मुस्लिम लीग के 27 सदस्यों को पाकिस्तान बनने के बाद भी भारत की संविधान सभा में काम करने दिया और इनमें से कई 1950 में संविधान में हस्ताक्षर करने के बाद ही पाकिस्तान गए। भारतीयों के साथ यह कोई मजाक नहीं था किन्तु एक धोखा था। क्या रातों-रात इनकी मानसिकता बदल गई थी या यह भी उस योजना के पात्र थे जिसके तहत “लड़ के लिया है पाकिस्तान, हस के लेंगे हिंदुस्तान का नारा लगाया गया था”? इनमें से एक को तो उन सात सदस्यों में शामिल किया गया था जिनकी कमेटी संविधान का ड्राफ्ट बना रही थी। जो मुस्लिम लीगी पाकिस्तान नहीं गए उनको कांग्रेस में बड़े ओहदे दिए गए। सरदार लुतफुर रहमान को एमएलए बनाया गया, सैयद जाफ़र इमाम और सैयद मजहर इमाम को राज्य सभा का सदस्य बनाया गया। बेगम एजाज रसूल 1935 से ही मुस्लिम लीग की सदस्या थी और संविधान सभा में भी मुस्लिम लीग के टिकट पर ही चुनी गई थी और 1950 में वह कांग्रेसी हो गई। इस तरीके के कई और उदारण भी उपलब्ध हैं ।

1947 में जो मुस्लिम भारत छोड़ कर पाकिस्तान चले गए थे उनके घर खाली पड़े हुए थे और जब ये प्रस्तावित किया गया था कि ये घर पाकिस्तान से आए हिंदुओं और सिख शरणार्थियों को दे दिए जाएं तो नेहरू ने यह कह कर इसे रद्द कर दिया कि हम उन मुसलमानों के वापस आने का इंतजार करेंगे । इसी दौरान लगभग कई हजार भोपाल नवाब के क्षेत्र में भी पहुंच गए थे कि वो भी पाकिस्तान ही है जहां जा रहे हैं और लगभग यही स्थिति हैदराबाद में भी हुई थी। बिहार के मुजफ्फरपुर में तो नेहरू ने हिंदुओं पर वायु सेना से बम तक डलवाने की धमकी दे डाली थी यदि वो हिंसा नहीं रोकते तो और ऐसी कोई धमकी नेहरू ने मुसलमानों को नहीं दी जहां वो हिंसा कर रहे थे। 1947 के बाद जब नूंह में मेवातीस्तान की मांग उठाने वाले एक छुटभैये नेता को जिसे पंजाब के मुख्यमंत्री गोपीचंद भार्गव ने दिल्ली पुलिस से गिरफ्तार करवाया तो नेहरू ने इस पर प्रश्न उठाते हुए गोपीचंद भार्गव को पत्र लिखे। उनमें यहां तक लिख दिया कि मैंने श्री प्रकाश को जेल में मिलने भेज था और उसने वापस आकार बताया कि ऐसे लोगों की हमें जेल से बाहर आवश्यकता है। गोपीचंद भार्गव को इस बात के लिए बाध्य किया गया कि वह उसके मदरसे और बैंक अकाउंट को पुनः खोल दें।

यहां पर यह भी नहीं भूलना चाहिए जब 1937 में मुस्लिम लीग ने काउंसिल के अंदर वंदे  मातरम गान का विरोध किया था तब नेहरू ने ही इस मुद्दे पर समझौता किया था कि पहले के केवल दो अंतरे गाये जाएं जबकि सुभासचंद्र बोस ने स्पष्ट रूप से नेहरू को लिखा था कि “सांप्रदायिक मुसलमानों ने समय-समय पर फालतू की बातें उठाने की आदत बना ली है कभी मस्जिदों के सामने संगीत, कभी मुसलमानों के लिए उपयुक्त नौकरियां न होना और अब वन्दे मातरम। यद्यपि राष्ट्रवादी मुसलमानों द्वारा उठाए गए संशयों और कठिनाइयों से जूझने को मैं खुशी से तैयार हूं, मेरी उस ओर ध्यान देने की तनिक भी अभिलाषा नहीं है जो सांप्रदायिक लोग उठाते हैं। यदि आप आज उन्हें वन्दे मातरम के मुद्दे पर संतुष्ट भी कर देते हैं तो वह समय दूर नहीं जब कल वो कोई नया सवाल लेकर उठ खड़े होंगे, क्योंकि उनका उद्देश्य मात्र सांप्रदायिक भावनाओं को भड़का कर कांग्रेस को परेशान करना है।”

नेहरू का यह निर्णय मुस्लिम लीग के प्रति कांग्रेस की उस तुष्टीकरण की नीति को और आगे ले जाना था जो कांग्रेस ने मुस्लिम लीग से 1916 में लखनऊ में समझौता कर अपनाई थी। इस समझौते के अंतर्गत मुसलमानों की प्रथक निर्वाचन के आरक्षण को माना गया था। इसके अतिरिक्त यह भी माना गया था कि जब तक किसी संप्रदाय विशेष के 3/4 सदस्य काउंसिल में स्वीकृति नहीं दे देते तब तक उनसे संबंधित कोई भी प्रस्ताव पारित नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार हिन्दू मुस्लिम एकता के नाम पर खिलाफत आंदोलन को समर्थन देकर कांग्रेस ने यह स्वीकार कर लिया था कि ऐसे इस्लामिक मुद्दे जिनका भारत से कोई संबंध नहीं है वे भारतीय मुसलमानों के लिए प्रखर हैं। इस प्रकार के अनेक उदाहरण उपलब्ध हैं जैसे राजगोपालाचारी द्वारा पाकिस्तान पर योजना दिया जाना या गांधी द्वारा जिन्ना  को कायदे आजम कह कर संबोधित करना जबकि उसकी लोकप्रियता नीचे गिर रही थी। इससे पहले भी गांधी एक कमाल कर चुके थे। उन्होंने शुद्धि आंदोलन के नेता स्वामी श्रद्धानंद के हत्यारे अब्दुल रशीद को अपना भाई बताया था और यह तक कह दिया था कि “उसने जो भी कुछ किया वो इस्लाम को बचाने के लिए किया।” गांधी तो अदालत में उसकी पैरवी भी करना चाहते थे। गांधी ने कभी भी इस्लाम में धर्म परिवर्तन का विरोध नहीं किया लेकिन यदि एक स्वामी धर्म परिवर्तित हिंदुओं को वापस हिन्दू धर्म में लाने का प्रयास कर रहा था तो क्या वो कोई अपराध था? और वो भी शांतिपूर्वक।

सिंध के नेता अल्लाह बक्स सोमरू ने जब मुस्लिम लीग के विरुद्ध 13 दलों का संघ बनाकर पाकिस्तान और मुस्लिम लीग का विरोध किया तो उसको भी काँग्रेस ने कोई अहमियत नहीं दी और जिन्ना को मनाने के वार्तालाप जारी रखे। मुस्लिम लीग ने सोमरू का कत्ल करवा दिया पर काँग्रेस शांत रही। इसी प्रकार खाकसारों ने पाकिस्तान की मांग और जिन्ना का विरोध ही नहीं किया बल्कि दो बार जिन्ना पर हमले भी करवाए। लेकिन कांग्रेस खाकसारों का और इसी प्रकार अरहर दल का भी विरोध करती रही। मुस्लिम लीग को रोकने के लिए कांग्रेस न तो प्रजा क्रषक पार्टी को समर्थन देने को तैयार थी और न ही यूनियनिस्ट पार्टी को ।

बजाए इसके कि आम जनता को साथ लेकर पाकिस्तान की मांग के विरोध में आंदोलन छेड़ा जाए कांग्रेस ने अंग्रेजों के साथ मिलकर विभाजन को स्वीकार किया और यही नहीं भारत को बांटने वाले लॉर्ड माउण्टबेटन को भारतीय डोमीनियन का आमंत्रण देकर पहला गवर्नर जनरल बना दिया। मत भूलिए कि जिन्ना ने जो पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान के बीच एक गलियारा मांगा था गांधी ने उस तक का समर्थन किया था। यही नहीं हिन्दू और सिखों पर हो रही हिंसा को दरकिनार कर पाकिस्तान में रहने की इच्छा भी प्रकट कर दी थी। 1948 में सेना की सुझाव की अवहेलना कर एडविना  माउण्टबेटन के आग्रह पर पाकिस्तान से युद्ध विराम कर तथाकथित आजाद कश्मीर बनवाने का श्रेय भी नेहरू को ही जाता है शेख अब्दुल्ला से साठ-गांठ कर धारा 370 लगवाई थी

पूर्वी पाकिस्तान से हिन्दू शरणार्थी ही नहीं निरंतर आते रहे बल्कि मुस्लिम घुसपैठिए भी आराम से बसते रहे। 1950 के बाद से लगभग दो लाख पाकिस्तानी जो वीजा लेकर भारत आए थे यहां आकर गायब हो गए। कांग्रेस की सरकारों ने उन्हें पकड़ कर वापस भेजने का गंभीर प्रयास तक नहीं किया और यूपीए के समय में तो कमाल ही हो गया जब रोहिंग्याओं ने भारत में घुसपैठ की और जम्मू की छावनी के ठीक पीछे तक जाकर बस गए ।

नेहरू ने तो 1955 में गणतंत्र दिवस पर पाकिस्तान के गवर्नर जनरल मालिक ग़ुलाम मुहम्मद तक को मुख्य अतिथि बनाया। केरल में नंबूदरीपाद का मंत्रिमंडल बर्खास्त किए जाने के बाद कांग्रेस ने इस प्रांत में लगातार मुस्लिम लीग के साथ अपने गहन रिश्ते बना कर रखे। यही नहीं उसके सदस्यों को केंद्र में मंत्री तक बनाया और ये संबंध आज भी कायम हैं। क्या मुस्लिम लीग एक धर्म निरपेक्ष पार्टी हो गई थी जो धर्म निरपेक्षता का ढोल बजने वाली कांग्रेस उससे मिल कर चुनाव लड़ती है और सरकारें बनाती है। मुस्लिम लीग ने अपनी सांप्रदायिक कट्टरवादी विचार धारा को कभी नहीं छोड़ा  और कांग्रेस ने मुस्लिम लीग को राजनीति में और सशक्त बनाया। आज का केरल इसका सशक्त प्रमाण है। वास्तव में कांग्रेस की नीति केवल तुष्टीकरण तक ही सीमित नहीं है बल्कि मुस्लिम विरोध के कारण एक प्रजातान्त्रिक भारतीय गणतंत्र में यूनिवर्सल सिविल कोड का न बनाया जाना क्या दर्शाता है? वक्फ बोर्ड असीमित शक्तियां देना और मुस्लिम पर्सनल बोर्ड को सिर पर बैठ कर रखना ही कांग्रेस का डीएनए है।

1986 में स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी) का गठन हुआ जिसका उद्देश्य “इस्लाम के द्वारा भारत को स्वतंत्र कराना” था जो कि गजवा-ए-हिन्द का एक दूसरा रूप है। वह भारत को दारु-उल हर्ब के स्थान पर दारु-उल इस्लाम बनाना चाहते हैं। सब कुछ जानते हुए भी कांग्रेस ने इस संगठन पर प्रतिबंध नहीं लगाया। यह प्रतिबंध 2001 में एनडीए सरकार द्वारा लगाया गया। इसी प्रकार यूपीए काल में 2006 में पीएफआई का गठन हुआ जिसका उद्देश्य सिमी के उद्देश्य से भी आगे था। पाकिस्तान की आईएसआई, अलकायदा, आईएसआईएस के साथ संबंध मालूम होने के बाद भी कांग्रेस की सरकार ने इस संगठन पर प्रतिबंध नहीं लगाया। एनडीए सरकार ने सितंबर 2022 में इस पर प्रतिबंध लगाकर गिरफ्तारियां की। कांग्रेसी तो बस हिन्दुत्व में आतंकवाद ढूंढ रहे थे। भला हो तुकाराम आंबले का जिन्होंने कसाब को जिंदा पकडा, अन्यथा चिदंबरम जैसे मुंबई हमले को हिन्दू आतंकी हमला ही चिल्लाते रहते।

दिग्विजय सिंह और मणिशंकर जैसे कांग्रेसी नेता बेशर्म होकर पाकिस्तान का राग गाते हैं और कांग्रेस में जाते ही सिद्धू ने भी बढ़-चढ़ कर पाकिस्तान प्रेम को अलापा। आतंकी प्रचारक ज़ाकिर नायक दिग्विजय सिंह का आदर्श है और वह बढ़-चढ़ कर इसको दिखाता भी है। क्या इन कांग्रेसी नेताओं के मुंह से ‘सर तन से जुदा’ का विरोध सुना है। ये तो धर्म निरपेक्ष भारत में हज की सब्सिडी दिलवाने और इमाम और मदरसों के मौलवियों की तनख्वाह को दिलवाने में लगे रहते हैं। लेकिन हिन्दू मंदिरों पर जो कर लगाए जाते है उस पर चुप रहते हैं। हजारों गैरकानूनी मदरसों तक को यह सही बताते हैं। कोई भी अपराधी अगर वो मुस्लिम समुदाय से है तो वो इनका खास चहेता है। अगर ऐसा न होता तो देश में अतीक अहमद और मुख्तार अंसारी जैसे कुख्यात अपराधी राजनीति में पनप न पाते। और तो और कांग्रेस की सर्वेसर्वा बाटला हाउस में आतंकियों के मारे जाने आसूं तक बहा देती हैं।

वो राजीव गांधी की ही सरकार थी जिसने शाहबानो केस में उच्चतम न्यायालय के निर्णय के बाबजूद उस पर कानून नहीं बनाया, लेकिन ये स्वयं को स्त्रियों के अधिकारों का पक्षधर बताते हैं। इनके लिए मुस्लिम मुस्लिम चिल्लाकर वोट मांगना धर्म निरपेक्षता है पर अगर कोई हिन्दू के नाम पर वोट मांगता है तो वो सांप्रदायिक है। राहुल गांधी का मुस्लिम बाहुल्य वाले वायनाड से चुनाव लड़ना क्या माइने रखता है, ये जनता जानती है। और अबकी बार तो गजब ही हो गया। जरा बताइए वायनाड को छोड़कर जितने अन्य स्थानों पर कांग्रेसियों ने चुनावी पर्चे भरे क्या वहां जलूस में कांग्रेसी झंडे नहीं थे। खूब लहराते हैं पर वायनाड़ में? स्पष्ट है कि जब ये मुस्लिम लीग के साथ मिलकर चुनाव लड़ रहे है तो अगर मुस्लिम लीग भी चुनावी जलूस में अपना झण्डा फहराना चाहती थी तो इन्हे डर इस बात का था कि और स्थानों पर हिन्दू नाराज न हो जाए। बेहतर है अपने झंडे का भी त्याग कर दो। इसलिए स्मृति ईरानी द्वारा इस सच्चाई को सामने लाना कोई आरोप या गलती नहीं है जिस पर कि इनके प्रवक्ता हाय हल्ला मचा रहे हैं। कश्मीर में भी पाकिस्तान का शोर मचाने वाले अब्दुल्लाओं से इनका गठबंधन है और सत्ता में आने पर 370 को फिर से लागू करना इनका वादा है। क्यों न हो? आखिर चाचा नेहरू के कार्य को फिर से क्यों न लागू किया जाए। ये है राहुल गांधी की मानसिकता और मा, बहन जीजा इसमें साथ हैं।

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