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इकोसिस्टम : सत्ता की सुपारी

दुनिया की ताकतवर जगहों से संचालित इकोसिस्टम भारत में सत्ता परिवर्तन के लिए बेचैन। भारत में उसके साझेदार भी हैं और मतलब के यार भी। भारत के विरुद्ध ओबामा यूं ही मर्यादा की रेखा पार नहीं कर रहे

by प्रशांत बाजपेई
Jul 6, 2023, 12:20 pm IST
in भारत
अमेरिका की हडसन यूनिवर्सिटी में ‘थिंक टैंक’ के साथ राहुल। इसमें जॉर्ज सोरोस के लिए भारत विरोधी काम करने वाली सुनीता विश्वनाथ भी थी

अमेरिका की हडसन यूनिवर्सिटी में ‘थिंक टैंक’ के साथ राहुल। इसमें जॉर्ज सोरोस के लिए भारत विरोधी काम करने वाली सुनीता विश्वनाथ भी थी

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जो बाइडन और बराक ओबामा एक ही पार्टी (डेमोक्रेट्स) के हैं। दोनों ने लंबे समय तक साथ काम किया है। बाइडन वह कर रहे हैं, जो अमेरिकी सत्ताधिष्ठान की नीति है, जिसमें अमेरिका के दूरगामी हित हैं।

जब भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का अमेरिका दौरा सारी दुनिया में सुर्खियां बना रहा था, तब इकोसिस्टम दूसरे तरह की सुर्खियां बनाने की तैयारी किए बैठा था। मोहरे तय थे। उन्हें अपना-अपना काम पता था। सबसे ज्यादा सुर्खियां बटोरीं अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने।

जो बाइडन और बराक ओबामा एक ही पार्टी (डेमोक्रेट्स) के हैं। दोनों ने लंबे समय तक साथ काम किया है। बाइडन वह कर रहे हैं, जो अमेरिकी सत्ताधिष्ठान की नीति है, जिसमें अमेरिका के दूरगामी हित हैं। ओबामा अब सत्ता से बाहर हैं और उस इकोसिस्टम के लिए काम कर रहे हैं, जिसने उन्हें अमेरिका के राष्ट्रपति पद तक पहुंचने में मदद की थी और आज भी अपने अकूत संसाधनों से उनके कई व्यक्तिगत स्वार्थों को साधने की ताकत रखता है। खबर है कि ओबामा का एक शानदार मेमोरियल बन रहा है, जिसमें मोदी को ‘सबसे बड़ा खतरा’ बताने वाला कुख्यात कारोबारी जॉर्ज सोरोस पैसा लगा रहा है।

इस मेमोरियल का नाम है ‘दि ओबामा प्रेसिडेंशियल सेंटर।’ ओबामा को समर्पित इस खर्चीली परियोजना की वेबसाइट पर लिखा है, ‘दि ओबामा प्रेसिडेंशियल सेंटर, एक विश्वस्तरीय संग्रहालय और पब्लिक गैदरिंग स्पेस को निर्मित करने का ऐतिहासिक अवसर है, जो शिकागो से आने वाले हमारे पहले अफ्रीकी-अमेरिकी राष्ट्रपति और प्रथम महिला को सेलिब्रेट करता है।’ जॉर्ज सोरोस ने 2008 में ओबामा के लिए मोटी रकम खर्च की थी, जब वह अमेरिका का राष्ट्रपति चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे थे। फिर ओबामा के अपने वैचारिक झुकाव और रिश्ते भी हैं और अपना इतिहास भी है।

अमेरिका की दोनों राजनीतिक पार्टियों के अपने चलन हैं। जब रिपब्लिकन सत्ता में होते हैं, तो चर्च की ओर झुकाव रखने वाली नीतियां और व्यक्ति प्रभावी होते हैं। उस समय अमेरिकी प्रशासन सारी दुनिया की ओर इसी नजरिए से देखता है। वैसी रिपोर्ट प्रकाशित होती हैं, उछाली जाती हैं। जब डेमोक्रेट सत्ता में आते हैं, तो वामपंथी लॉबी, वहां के समाजवादी-वोक एक्टिविस्ट अपना एजेंडा चलाते हैं। ये सब जानते हैं, समझकर चलते हैं, लेकिन ओबामा ने मर्यादा की रेखा पार की है, अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए।

भारत पर ‘अल्पसंख्यकों’ के प्रति भेदभाव का पर्चा चस्पां करने के बाद ओबामा भारत के विखंडन की बात के दुस्साहस तक आ गए। परंतु ओबामा के पास अपना कोई विचार या अध्ययन नहीं है। वे किसी और के लिखे हुए पर्चे मीडिया के सामने पढ़ते हैं। इन पर्चों की जड़ें दुनिया के मशहूर शीर्ष विश्वविद्यालयों तक जाती हैं। ओबामा के बयान के अलावा, और भी कई सुनियोजित प्रयास हुए जो अमेरिका समेत पूरे पश्चिम में फैले उस इकोसिस्टम की ओर ध्यान खींचते हैं, जो भारत के इकोसिस्टम के साथ गहराई से गुंथा हुआ है या यूं कहें कि दोनों जरूरत के हिसाब से लचीले, लेकिन मजबूत तारों से बंधे, एक ही तंत्र के हिस्से हैं। पहले बात करते हैं अमेरिकी वामपंथी इकोसिस्टम की।

जॉर्ज सोरोस ने 2008 में ओबामा के लिए मोटी रकम खर्च की थी, जब वह अमेरिका का राष्ट्रपति चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे थे। ओबामा के अपने वैचारिक झुकाव और रिश्ते भी हैं।

अमेरिका के वामपंथी, वोक एक्टिविस्ट, इस्लामी संगठन, चीन के प्रोपेगेंडा तंत्र को अमेरिका में साधने वाले एनजीओ, ‘लाल सलाम’ विश्वविद्यालयों से निकले मीडिया के लोग, वामपंथ की ओर झुकाव रखने वाले अमेरिकी राजनीतिज्ञ, तेल के पैसे की गंध से मदहोश इस्लामी जिहाद का मोहक मेकअप करने और हर हाल में इस्रााइल और भारत के खिलाफ बयानबाजी करने के लिए मशहूर चंद अमेरिकी सीनेटर, ये सब मिलकर एक तंत्र बनाते हैं।

क्या अमेरिका में कम्युनिस्ट हैं?
सामान्य चर्चाओं में अक्सर यह सवाल पूछा जाता है, क्योंकि जनसामान्य की सोच में बसा हुआ है कि अमेरिका एक पूंंजीवादी देश है, जो कम्युनिस्ट रूस और चीन के खिलाफ है। अगला सवाल होता है कि ‘वहां कम्युनिस्ट आते कहां से हैं?’

ओबामा हार्वर्ड विश्वविद्यालय की उपज हैं। हार्वर्ड विश्वविद्यालय का वामपंथियों के साथ पुराना इतिहास है। 1908 में इसकी औपचारिक शुरुआत हुई। 1930 और 40 के दशक में कम्युनिस्टों ने यहां पर गहरी जड़ें जमा ली थीं । विश्वविद्यालय के छात्र समाचार पत्र ‘द क्रिमसन’, जो 1873 से प्रकाशित हो रहा है, ने 1930 में लिखा, ‘‘हार्वर्ड में हर तरह के रेड्स (कम्युनिस्ट) हैं, गुलाबीपन से लेकर गहरे सुर्ख रंग तक और हार्वर्ड सरल-सहज ढंग से उन्हें पसंद भी करता है। यह कॉलेज की विविधता में इजाफा करते हैं।’’ द क्रिमसन, जिन ‘रेड्स’ की बात कह रहा था, उसकी आने वाली पीढ़ियों ने अमेरिका और पश्चिम में वामपंथ के झंडे गाड़े। पश्चिम में स्वतंत्र कम्युनिस्ट अभियान भी चल रहे थे। यह तंत्र मीडिया, विश्वविद्यालयों, साहित्य-कला क्षेत्र में सेंध लगाता चला गया। इसमें जॉर्ज सोरोस जैसे अकूत संपदा वाले लोग भी जुड़ते चले गए, जिन्होंने वामपंथ को राजनीति और मीडिया में पिछले दरवाजे से प्रवेश कराने में बहुत बड़ी मदद की।

फिलहाल चर्चित सोरोस एक यहूदी व्यापारी है, जो इस्राइल के खिलाफ प्रतिबंधों की मांग करने वाले संगठनों को पैसा देता रहा है। सोरोस एक अमेरिकी है, जिसका बयान है, ‘‘न्यायपूर्ण और स्थायी विश्व व्यवस्था के लिए सबसे बड़ी बाधा संयुक्त राष्ट्र अमेरिका है। …सितंबर 11 (वर्ल्ड ट्रेड सेंटर हमला) के बाद वॉर आन टेरर की शुरुआत करके हमने दुनिया के लिए गलत उद्देश्य चुना है। …चीन बहुत तेजी से ऊपर उठा है और अब उसे दूसरों के हितों और नई विश्व व्यवस्था को गढ़ने की जिम्मेदारी स्वीकार करनी चाहिए। चीन न केवल शक्तिशाली अर्थव्यवस्था है, बल्कि अमेरिका से बेहतर काम करने वाली सरकार भी है।’’ यह बोलते हुए सोरोस को न चीनियों द्वारा किया तिब्बती नरसंहार दिखता है, न उइगर मुस्लिमों की दशा। न ताईवान और दक्षिण चीन सागर के देशों पर चीनी गुंडागर्दी दिखती है और न अफ्रीकी दुनिया का आर्थिक शोषण कर रहा कम्युनिस्ट पार्टी आफ चाइना द्वारा नियंत्रित पूंजीवादी तंत्र।

मात-दर-मात
मोदी के अमेरिकी दौरे की सफलता भारत-अमेरिका के बीच हुए समझौतों, तकनीक स्थानांतरण, रणनीतिक साझेदारी, चीनी आक्रामकता के विरुद्ध एकजुटता आदि के आधार पर आंकी जा रही है, लेकिन सफलता का दूसरा पहलू भी है। चर्चित सफलताओं की पृष्ठभूमि में अमेरिका में सक्रिय चीनी व पाकिस्तानी लॉबी की असफलता भी है। उनकी सारी कोशिशों पर पानी फेर दिया गया है। यही नहीं, दोनों के खिलाफ प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष कड़े संदेश भी दिए गए हैं, इसलिए उनके द्वारा पाला-पोसा गया इकोसिस्टम तिलमिलाहट भरे वार कर रहा है।

भारत-चीन-पाकिस्तान के प्रति अमेरिकी नीति में भी एक बड़ा परिवर्तन आया है। निक्सन से लेकर ओबामा तक, सभी अमेरिकी राष्ट्रपतियों का और तत्कालीन अमेरिकी सत्ताधिष्ठान का भ्रम रहा कि चीनियों से हाथ मिलाकर, उनके इरादों, तकनीक चोरियों को नजरअंदाज कर, उन्हें व्यापारिक मौके व धनजनित सहूलियतों का स्वाद लगाकर, लोकतंत्र की ओर मोड़ा जा सकता है। पिछले दशकों में चीनी लॉबी का प्रभाव वाशिंगटन डीसी में सब ओर देखा जा सकता था। ओबामा के समय यह चरम पर पहुंच गया। ओबामा का जिनपिन के सामने लगभग नब्बे डिग्री झुकते हुए चित्र चर्चित हुआ था।

‘‘न्यायपूर्ण और स्थायी विश्व व्यवस्था के लिए सबसे बड़ी बाधा संयुक्त राष्ट्र अमेरिका है। …सितंबर 11 (वर्ल्ड ट्रेड सेंटर हमला) के बाद वॉर आन टेरर की शुरुआत करके हमने दुनिया के लिए गलत उद्देश्य चुना है। …चीन बहुत तेजी से ऊपर उठा है और अब उसे दूसरों के हितों और नई विश्व व्यवस्था को गढ़ने की जिम्मेदारी स्वीकार करनी चाहिए। चीन न केवल शक्तिशाली अर्थव्यवस्था है, बल्कि अमेरिका से बेहतर काम करने वाली सरकार भी है।’’ -सोरोस,  एक अमेरिकी बयान

इस धारा को बदला पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने। उनकी नीतियां चीन को हद में बांधने वाली और भारत समर्थक रहीं। इसलिए उनके खिलाफ न्यूयॉर्क टाइम्स, वॉशिंगटन पोस्ट जैसे वामपंथी झुकाव वाले मीडिया दिग्गज व भारत के ऐसे ही कलमनवीस ताल ठोके रहे। यह घेराबंदी राजनीतिक प्रतिबद्धता से कहीं ज्यादा थी। इसमें जुनून था, तीखापन नफरत की सीमा तक था। ट्रंप की इस उपयोगिता को प्रधानमंत्री मोदी ने पहचान कर कुछ ठोस पहल की, अमेरिकी जरूरतों को समझा, लेकिन ‘भारत प्रथम’ की अपनी नीति पर कोई समझौता न करने का संदेश दिया। बाइडन प्रशासन के साथ बात इसी नीति पर आगे बढ़ी। भारत के नाटो में शामिल होने या अफगानिस्तान में अमेरिकी अभियान का हिस्सा बनने जैसे अव्यावहारिक प्रस्तावों को नजरअंदाज किया गया। रूस-यूक्रेन युद्ध में अमेरिकी व यूरोपीय दबावों को झटक दिया गया और भारत के दूरगामी हितों को साधा गया। इन सबका मिला-जुला परिणाम सामने है। अमेरिका में बैठी चीनी लॉबी और दबे-कुचले पाकिस्तानी लॉबिस्ट, जो अमेरिकी वामपंथी इकोसिस्टम के साथ मिलकर काम करते आए हैं, बिलबिलाए हुए हैं।

गठजोड़ के सिरे
पिछले दो चुनावों से भारत की जमीन से उखड़े राहुल गांधी विदेशों से भारत में वोटों की फसल काटने की उम्मीद कर रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी की यात्रा से पहले राहुल अमेरिका में वही बातें बोलकर आए हैं, जो जॉर्ज सोरोस ने कहीं, जो ओबामा ने दोहराईं, जिनका चीनी-पाकिस्तानी मुखौटे ढोल पीटते हैं। भारत को कमजोर करने के लिए संकल्पित चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के साथ समझौते (जिसका मसौदा आज तक सामने नहीं आया) पर हस्ताक्षर करने वाले राहुल और उनकी पार्टी के लिए यह नई बात नहीं है। उनके राजनीतिक सलाहकार रहे मणिशंकर अय्यर पाकिस्तान में जाकर नरेंद्र मोदी को सत्ता से हटाने के लिए ‘मदद का हाथ’ फैला चुके हैं। वोटों के लिए किसी भी हद को पार करने से कांग्रेस और उसके युवराज को गुरेज नहीं है। यासीन मलिक से हाथ मिलाकर, जाकिर नाइक को गले लगाकर वोट मिलें या मुस्लिम लीग को सेकुलर कहने से, सब चलता है। इस प्रलाप में जुड़ी हुई हैं मोदी के दौरे पर चीन से आ रही प्रतिक्रियाएं।

भारत में इसी तरह का एजेंडा चलाने वाले पत्रकार, जिनमें से कई यूट्यूबर्स बन चुके हैं, माओवादियों को समर्पित विशाल संसाधन युक्त न्यूजपोर्टल, रुकी हुई विदेशी फंडिंग के लिए परेशान एनजीओ, ‘गुलाबी से लेकर सुर्ख लाल’ छटा वाले बुद्धिजीवी, कन्वर्जन को ‘अल्पसंख्यकों’ का विशेषाधिकार समझने-समझाने वाले सफेदपोश, रंग-बिरंगे लोग, संस्थान, उधारी के लफ्ज ‘इस्लामोफोबिया’ की शिकायत करने वाले ‘सेकुलर’ वोटों के व्यापारी और खरीददार। भारत से लेकर यूरोप और अमेरिका तक यह प्रचार-प्रोपेगेंडा की साझेदारी, कहीं आपसी तालमेल की है और कहीं संसाधनों की भी। कब कौन-सा साज बजेगा, कब किसका स्वर ऊंचा होगा, किसका नीचा तथा कब सभी समवेत स्वर में ऊंची आवाज में आलाप लेंगे, तय रहता है। एक-दूसरे को पोसते, आड़ देते चलने वाला यह जटिल तंत्र वैश्विक इकोसिस्टम है।

जॉर्ज सोरोस द्वारा 2008 में राष्ट्रपति चुनाव में बराक ओबामा पर मोटी रकम खर्च की गई थी। ओबामा के राष्ट्रपति बनने के बाद सोरोस का बेटा अलेक्जेंडर ओबामा से मिलने व्हाइट हाउस गया था

सांसदों की शरारत
प्रधानमंत्री मोदी के अमेरिका पहुंचने के पहले 75 डेमोक्रेट सांसदों ने राष्ट्रपति बाइडन को पत्र लिखकर कहा कि ‘भारत और अमेरिका के बीच मजबूत संबंध होने चाहिए। लेकिन अमेरिका की विदेश नीति के लक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए बाइडन भारत के प्रधानमंत्री के सामने असहिष्णुता, प्रेस की आजादी, इंटरनेट तक पहुंच और सिविल सोसाइटी के लोगों को निशाना बनाए जाने के मुद्दों पर भी चर्चा करें।’ 2013 में भारत के 65 सांसदों द्वारा अमेरिका को लिखे गए उस पत्र को याद कर लें, जिसमें उन्होंने अमेरिका से गुजारिश की थी कि ‘वह भारत के एक राज्य के मुख्यमंत्री (नरेंद्र मोदी) को अमेरिकी वीजा प्रदान न करे।’ यहां भारतीयता, नैतिकता, एकजुटता आदि मूल्यों को छोड़कर, इकोसिस्टम के विश्वव्यापी तंत्र के उलझे हुए और आपस में जुड़े हुए धागों पर ध्यान केंद्रित करते हैं तो पाते हैं कि कैसे एक जैसी बातें भारत से लेकर अमेरिकी सीनेट और जेएनयू से लेकर आक्सफोर्ड-कैंब्रिज तक घूमती रहती हैं।

इसी क्रम में 75 डेमोक्रेट सांसदों के उठाए गए मुद्दों की विवेचना करते हैं तो बात और भी स्पष्ट हो जाती है। इकोसिस्टम के प्रोपेगेंडा तंत्र की खासियत है कि भारत में हिंदू कश्मीर से खदेड़ा जाता है, कैराना से पलायन करता है, केरल और पश्चिम बंगाल में निशाना बनाया जाता है। भारत में बहुसंख्यक होते हुए भी दशकों तक अपने आस्था स्थलों पर अधिकार के लिए ,अपने आस्था स्थलों में पूजा करने की अनुमति के लिए न्यायालय की चौखट पर माथा रगड़ता है, परंतु उससे तथाकथित अल्पसंख्यक उत्पीड़न के लिए सवाल किए जाते हैं।

प्रधानमंत्री मोदी की यात्रा से पहले राहुल अमेरिका में वही बातें बोलकर आए हैं, जो जॉर्ज सोरोस ने कहीं, जो ओबामा ने दोहराईं, जिनका चीनी-पाकिस्तानी मुखौटे ढोल पीटते हैं।

 राजनीतिक और वैश्विक ताकतों द्वारा पोषित-संरक्षित मीडिया का प्रभावशाली वर्ग भारत सरकार, भारत के प्रधानमंत्री पर बिना रुके हमले करता है। भारत के हिंदू समाज पर मनगढ़ंत आरोपों के कीचड़ उछालता रहता है, उसके अस्तित्व रक्षा और अधिकार के मुद्दों को दबाता है और साथ में प्रेस की आजादी को लेकर छाती भी पीटता रहता है। भारत में सारी दुनिया की तुलना में सस्ता सुलभ इंटरनेट मौजूद है, केवल कश्मीर में कुछ समय के लिए इंटरनेट पर रोक लगाई गई थी, ताकि पत्थरबाजों का सूत्र संचालन करने वाले और कश्मीर के जिहादी आतंकी, उसका दुरुपयोग न कर सकें।

लेकिन जून 2023 में इंटरनेट पहुंच पर कुछ अमेरिकी सीनेटर चिंतित होते हैं और जिस तथाकथित सिविल सोसायटी की बात इन सीनेटर द्वारा की गई, वह और कोई नहीं भारत के खिलाफ षड्यंत्र करने, प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश रचने, भारत के सुरक्षाबलों के खिलाफ नक्सलियों की पैसे और असलहे से मदद करने के आरोप में कानूनी प्रक्रिया का सामना कर रहे शहरी नक्सली हैं, जिन्हें दुनिया के सामने भारत में उत्पीड़ित किए जा रहे बुद्धिजीवी बता कर प्रस्तुत किया जाता है।

इस दुष्प्रचार तंत्र की पटकथा में नक्सली अपने अधिकारों के लिए लड़ने वाले नागरिक होते हैं और कश्मीर के पत्थरबाज अन्याय से आक्रोशित नौजवान। जिहादी अफजल ‘प्राध्यापक’ होता है और बुरहान वानी ‘टीचर का बेटा’। कश्मीरी हिंदुओं का नरसंहार ‘हिंदूवादी संगठनों का प्रोपेगेंडा’ होता है और भारत की सेना ‘अत्याचारी-बलात्कारी सैनिकों का गिरोह।’ शहरी नक्सली ‘सिविल सोसाइटी’ कहलाते हैं और उन पर कार्रवाई करने वाली भारत सरकार, उसके प्रधानमंत्री एक ‘दमनकारी व्यवस्था।’ अटल सरकार के समय भी यह इकोसिस्टम ऐसी ही चालों में लगा रहता था। आधुनिक संसाधनों के चलते यह तंत्र और ज्यादा व्यवस्थित और ज्यादा आक्रामक हो गया है। इकोसिस्टम की नजर में भारत में उठती सांस्कृतिक चेतना, जागता हिंदू समाज उसके हितों के लिए सबसे बड़ा खतरा है और मोदी सबसे बड़े शत्रु।

आने वाले समय में ये प्रहार और तीव्र होंगे, क्योंकि 2024 की रणनीति देश के अंदर भी बनाई जा रही है और बाहर भी। जॉर्ज सोरोस की चाहत है कि भारत में परिवर्तन हो, इकोसिस्टम की चाहत है, सत्ता बदले। साझेदार सब तरफ उपलब्ध हैं, अंदर भी और बाहर भी।

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