अहिंसा के जिस सनातन सूत्र को अपने जीवन का ब्रह्मास्त्र बनाकर कर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भारत के लोकजीवन में सामाजिक परिवर्तन का सूत्रपात किया था; उसकी बुनियाद जैन धर्म के तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ हजारों वर्ष पूर्व ही रख चुके थे। जैन पंथ का आधुनिक स्वरूप भले ही भगवान महावीर के बाद से प्रकट हुआ माना जाता है, लेकिन जैन परंपरा के आधारभूत सूत्रों के प्रणेता महावीर स्वामी से ढाई सौ वर्ष पूर्व जन्मे तीर्थंकर पार्श्वनाथ ही माने जाते हैं। ईसा पूर्व 877 के अज्ञान-अंधकार और आडम्बरपूर्ण युग में क्रांति का बीज बन कर इस महामानव का सूत्र वाक्य था- ‘अहिंसक मन किसी के सुख में व्यवधान नहीं बनता।’ उनका कहना था कि यदि धर्म जीवन में शांति और सुख नहीं देता है तो उससे पारलौकिक शांति की कल्पना व्यर्थ है। उन्होंने जिस धर्म का उपदेश दिया, वह न ब्राह्मण धर्म था, न क्षत्रिय धर्म, न वैश्य धर्म और न ही शूद्र धर्म। वह विशुद्ध धर्म था, जो किसी कुल, जाति या वर्ण की परिधि में सिमटा नहीं था।
तीर्थंकर पार्श्वनाथ तत्कालीन समाज में प्रचलित आडम्बरपूर्ण कर्मकाण्डों के प्रबल विरोधी थे। उनका कहना था कि चार प्रकार के पापों से विरक्त होना ही असली धर्म है। ये चार पाप हैं- हिंसा, असत्य, चोरी और धन का संग्रह। जीवन स्वयं एक तपस्या है, सुविधाओं के बीच संतुलन और अभावों के बीच तृप्ति का भाव ही तप है। प्रतिकूलताओं को समत्व से सह लेना, वैचारिक संघर्ष में सही समाधान पा लेना, इन्द्रियों को विवेकी बना लेना, मन की दिशा और दृष्टि को बदल देना ही मानव का असली धर्म है। धर्म के इन्हीं सहज सूत्रों को जन जन तक विस्तृत कर उन्होंने तदयुगीन पथभ्रांत समाज में तप-व्रत की संस्कृति विकसित की और सामाजिक बुराइयों का परिष्कार कर लोगों में अच्छा इंसान बनने का संस्कार भरा। उनके इन पूर्णत: व्यावहारिक धर्म सिद्धांतों का जनमानस पर व्यापक प्रभाव पर पड़ा।
जैन पंथ के ग्रंथों में उपलब्ध ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार तीर्थंकर पार्श्वनाथ का जन्म अब से लगभग तीन हजार वर्ष पूर्व काशी के इक्ष्वाकु वंशीय राजा अश्वसेन व रानी वामादेवी के पुत्र रूप में पौष कृष्ण दशमी के दिन हुआ था। जैन पंथ के ग्रंथों के उद्धरण बताते हैं कि यह दिव्य विभूति नीलवर्ण काया और ह्रदय पर सर्पचिह्म के साथ अवतरित हुई थी। जैन पंथ के ग्रंथों के पुराणों के अनुसार भगवान पार्श्वनाथ को तीर्थंकर बनने के लिए पूरे नौ जन्म लेने पड़े थे। पुराणों के अनुसार पहले जन्म में वे मरुभूमि नामक ब्राह्मण बने, दूसरे जन्म में वज्रघोष नामक हाथी, तीसरे जन्म में स्वर्ग के देवता, चौथे जन्म में रश्मिवेग नामक राजा, पांचवें जन्म में देव, छठे जन्म में वज्रनाभि नामक चक्रवर्ती सम्राट, सातवें जन्म में देवता, आठवें जन्म में आनंद नामक राजा, नौवें जन्म में स्वर्ग के राजा इन्द्र और दसवें जन्म में तीर्थंकर बने।
बचपन से धार्मिक, चिंतनशील, जिज्ञासु और दयालु प्रवृति के इस महामानव का बचपन व यौवन राजसी वैभव में व्यतीत हुआ। कम समय में ही वे शास्त्र व शस्त्र दोनों विधाओं में पारंगत हो गये थे। किशोर राजकुमार के रूप में उन्होंने अपने मामा की सहायता के लिए किये युद्ध में विरोधी को बंदी बनाकर अप्रतिम शौर्य का परिचय दिया था। लेकिन उसी दौरान नवयुवा काल की एक घटना ने उनके जीवन की समूची दिशाधारा बदल कर रख दी। कहा जाता है कि 16 वर्ष की आयु में एक दिन वे वन भ्रमण कर रहे थे, तभी उनकी दृष्टि एक तपस्वी पर पड़ी, जो कुल्हाड़ी से एक वृक्ष पर प्रहार कर रहा था। यह दृश्य देखकर पार्श्वनाथ सहज ही चीख उठे और बोले- ‘ठहरो! उन निरीह जीवों को मत मारो।’ उस तपस्वी का नाम महीपाल था। अपनी पत्नी की मृत्यु के दुख में वह साधु बन गया था। वह क्रोध से पार्श्वनाथ की ओर पलटा और कहा- मैं किसे मार रहा हूं? देखते नहीं, मैं तो तप के लिए लकड़ी काट रहा हूं। पार्श्वनाथ ने व्यथित स्वर में कहा- लेकिन उस वृक्ष पर नाग-नागिन का जोड़ा है। महीपाल ने तिरस्कारपूर्वक कहा- तू क्या त्रिकालदर्शी है? और पुनः वृक्ष पर वार करने लगा। तभी वृक्ष के चिरे तने से छटपटाता, रक्त से नहाया हुआ नाग-नागिन का एक जोड़ा बाहर निकला। एक बार तो क्रोधित महीपाल उन्हें देखकर कांप उठा, लेकिन अगले ही पल वह धूर्ततापूर्वक हंसने लगा। तभी पार्श्वनाथ के मुख से स्वतः ही ‘’णमोकार मंत्र’’ फूट उठा जिसे सुनकर नाग-नागिन की मृत्यु की पीड़ा शांत हुई और अगले जन्म में वे नाग जाति के इन्द्र-इन्द्राणी धरणेन्द्र और पद्मावती बने और मरणोपरांत महीपाल सम्बर नामक दुष्ट देव के रूप में जन्मा।
इस घटना को देख उन्होंने ऐसा कुछ करने की ठानी जिससे जीवन-मृत्यु के बंधन से हमेशा के लिए मुक्ति मिल सके। तीस वर्ष की अवस्था में एक दिन राजसभा में वे अयोध्या नरेश जयसेन के दूत से ‘ऋषभदेव चरित’ सुन रहे थे। यह चरित्र सुनकर उनके मन में पनप रहा वैराग्यभाव अत्यंत प्रबल हो उठा और माता पिता की अनुमति लेकर उन्होंने पौष कृष्ण की एकादशी तिथि को अश्ववन में जाकर ‘’जैनेश्वरी दीक्षा’’ ग्रहण कर ली। दीक्षा नियमों के तहत दिगम्बर रहने, पैदल चलने, 24 घंटे में एक बार एक बार नियत भोजन और जल ग्रहण करने की कठोर दिनचर्या का पालन करते हुए 84 दिन के उपरान्त चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को वाराणसी में ही ‘घातकी वृक्ष’ के नीचे ‘कैवल्य ज्ञान’ प्राप्त किया।
‘कैवल्य’ प्राप्ति के उपरान्त 70 वर्ष तक अखंड भारत के मालवा, अवंती, गौर्जर, महाराष्ट्, सौराष्ट्, अंग-नल, कलिंग, कर्नाटक, कोंकण, मेवाड़, द्रविड, कश्मीर, मगध, कच्छ, विदर्भ, पंचाल, पल्लव आदि सुदूर क्षेत्रों लम्बी लम्बी यात्राएं कर धर्म के मूल तत्व का प्रचार-प्रसार किया। सौ वर्ष का सफल सार्थक दीर्घ जीवन जीने वाले तीर्थंकर पार्श्वनाथ का जीवनकाल 877 से 777 ईसा पूर्व का माना जाता है। कहते हैं कि अपना निर्वाणकाल समीप जानकर श्री सम्मेद शिखर (पारसनाथ पहाड़ी, झारखंड) पर चले गये और वहीं श्रावण शुक्ल अष्टमी को उन्हें मोक्ष प्राप्त हुआ। वर्तमान में यह स्थान जैन समुदाय का प्रमुख तीर्थस्थान माना जाता है तथा जिस पर्वत पर पार्श्वनाथ जी ने महासमाधि लगायी थी वह शिखर श्रद्धालुओं के मध्य पारसनाथ पर्वत के नाम से लोकप्रिय है। प्रतिवर्ष लाखों श्रद्धालु यहां दर्शनार्थ आते हैं। आज भी बंगाल, बिहार, झारखंड और ओडिशा में लाखों लोग तीर्थंकर पार्श्वनाथ को अपना कुल देवता मानते हैं। इसके अलावा सम्मेद शिखर के निकट रहने वाली भील जाति के लोग भी पार्श्वनाथ के अनन्य भक्त है।
जानना दिलचस्प होगा कि भगवान पार्श्वनाथ की लोकव्यापकता का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि आज भी सभी तीर्थंकरों की मूर्तियों में पार्श्वनाथ के चिह्न ही सबसे ज्यादा मिलते हैं। पार्श्वनाथ की कई चमत्कारिक मूर्तियाँ देश भर में स्थापित हैं जिनकी गाथा आज भी पुराने लोग सुनाते हैं। ऐसा माना जाता है कि महात्मा बुद्ध के अधिकांश पूर्वज भी पार्श्वनाथ धर्म के अनुयायी थे। भारतवर्ष में जैन गुरुओं सर्वाधिक प्रतिमाएं और मंदिर तीर्थंकर पार्श्वनाथ की ही हैं। उनके जन्म स्थान भेलूपुर वाराणसी में बहुत ही भव्य और विशाल दिगम्बर और श्वेताम्बर जैन मंदिर बना हुआ है। यह स्थान विदेशी पर्यटकों के लिए भी आकर्षण का केन्द्र है। पार्श्वनाथ की जयंती पर यहां उनका जन्मोत्सव खूब धूमधाम से शोभायात्रा निकालकर मनाया जाता है।
टिप्पणियाँ