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जज बनाम जनता

अब वह समय आ गया है कि जितने भी न्यायिक सुधार लंबित हैं, उस पर काम करना चाहिए

पाञ्चजन्य ब्यूरो by पाञ्चजन्य ब्यूरो
Jul 11, 2022, 11:53 am IST
in भारत
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नूपुर के विरुद्ध विभिन्न राज्यों में दर्ज मुकदमों को एक जगह लाने की याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश की टिप्पणी से उठे सवाल, जनता में उबाल। टिप्पणी के न्यायाधिकार क्षेत्र में होने पर जनता ने उठाए प्रश्न। टिप्पणी से मिलने वाले संदेशों पर जताई चिंता, लंबित कानूनी सुधारों पर काम करने की जरूरत

भाजपा की निलंबित प्रवक्ता नूपुर शर्मा ने उनके विरुद्ध देश के विभिन्न राज्यों में दर्ज सभी मुकदमों को एक न्यायालय में लाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दाखिल की। इस पर सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला की पीठ ने टिप्पणी कर दी कि देश में जो हो रहा है, उसके लिए यह महिला अकेले जिम्मेदार है। पीठ ने इसके आगे भी बहुत फटकार लगाते हुए कई बातें कहीं। इससे जनता उबल पड़ी और सोशल मीडिया के जरिए पीठ की टिप्पणियों पर सवाल उठाने लगी। एक बार को लगने लगा कि यह किस्सा जज बनाम जनता का हो गया है।

विचित्र एवं विचलित करने वाली टिप्पणी
ट्विटर स्पेस पर इस विषय पर कई चर्चा हुई। एक चर्चा में लेखक शांतनु गुप्ता ने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश की टिप्पणी से तो लगता है कि हत्या की आरोपित और कारण नूपुर शर्मा को बना दिया गया है। तो क्या न्यायाधीश को नूपूर शर्मा की जगह उनकी बातों को काटकर वायरल करने वाले मोहम्मद जुबैर जैसे व्यक्ति को नहीं रखना चाहिए था?

खबर देखने पर पता चलता है कि यह न्यायालय का अपना नजरिया है, आधिकारिक फैसला नहीं। न्यायालय में इन टिप्पणियों की विधिक मान्यता नहीं होती है। परंतु सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने जो बातें कहीं, वह बड़ी विचित्र हैं और विचलित भी करती हैं। सबसे पहले उन्होंने कहा कि देश में आज जो भी हो रहा है… उदयपुर में जो हो रहा है, वह हम सभी देख रहे हैं। उन्होंने कहा कि हमारा मुंह मत खुलवाइए और यह सब नूपुर शर्मा के कारण हुआ है। ये बातें इसलिए विचलित करती हैं कि सर्वोच्च न्यायालय ने उदयपुर के मामले में स्पष्टीकरण दे दिया, जो बहुत ही ज्यादा चिंताजनक है।

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नूपुर ने तो यही कहा कि मेरे खिलाफ जितने भी राज्यों में एफआईआर हुई हैं, उनको एकसाथ कर दीजिए जिससे मुझे भिन्न-भिन्न राज्यों में न जाना पड़े क्योंकि आज के माहौल में जानमाल का खतरा है। इस पर आदेश देने के बजाय यह टिप्पणियां कर नूपुर को अर्जी वापस लेने के लिए बाध्य कर दिया गया। अब यदि नूपुर को कुछ होता है तो उसका जिम्मेदार कौन होगा?

पीठ की नूपुर शर्मा पर टिप्पणियां

  • यह पूरा विवाद टीवी से ही शुरू हुआ है और वहीं जाकर आप पूरे देश से माफी मांगें। आपने माफी मांगने में देरी कर दी, यह अहंकार भरा रवैया दिखाता है। उनकी टिप्पणी के कारण दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं हुईं।
  •  उदयपुर जैसी घटना के लिए उनका बयान ही जिम्मेदार है। उनके बयान के चलते पूरे देश में हालात बिगड़ गए हैं।
  • नूपुर शर्मा ने पैगंबर के खिलाफ टिप्पणी या तो सस्ता प्रचार पाने के लिए या किसी राजनीतिक एजेंडे के तहत या किसी घृणित गतिविधि के तहत की।
  •  ये लोग दूसरे धर्मों का सम्मान नहीं करते। अभिव्यक्ति की आजादी का यह अर्थ नहीं है कि कुछ भी बोला जाए।
  •  नूपुर जैसे लोग बयान देकर भड़काते हैं। इसके चलते देश में आग लग गई है। दिल्ली पुलिस पर भी टिप्पणी की कि आपने अब तक कोई कार्रवाई क्यों नहीं की।
  • यदि उन्हें केसों को ट्रांसफर कराना है तो फिर उच्च न्यायालय जाएं। हम इस पर कोई आदेश नहीं देंगे।
  •  सीधे यहां केस दायर करके आपने दिखाया कि आपके पास ताकत का नशा है। आप मजिस्ट्रेट न्यायालय या फिर उच्च न्यायालय नहीं गई हैं।

दूसरी बात, पीठ ने कहा कि आप (नूपुर) की वजह से ये सब कुछ शुरू हुआ। क्या उन्होंने यह नहीं देखा कि क्लिपिंग में मौलाना साहब ने शिवलिंग के संदर्भ में कई बार कहा कि आप तो अश्लील वस्तु की पूजा करते हैं। न्यायालय ने इस पर कोई बात नहीं की, सिर्फ सभी चीजों के लिए नूपुर शर्मा को जिम्मेदार ठहराया। ऐसा पहली बार लगा कि सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश की इस तरह की टिप्पणी विधिसम्मत नहीं है। जो भी न्यायालय में बोला गया है, वह कानूनी भाषा नहीं है।

सबसे बड़ी बात यह कि पीठ को उदयपुर जैसे जघन्य अपराध के मामले में न्यायालय के अनुसार किसने हत्या की है, यह नहीं कहना चाहिए। यदि न्यायालय बिना विश्लेषण किए इस तरह की टिप्पणी करे तो यह बहुत ही आश्चर्यजनक है। सबको पता है कि जो नूपुर शर्मा ने कहा, वह बात हूबहू कई मौलानाओं ने भी कही। इसलिए केवल नूपुर शर्मा पर बात करना गलत है।

न्यायिक सुधार समय का तकाजा
वरिष्ठ पत्रकार अभिजित मजूमदार ने कहा कि मुझे लगता है कि अब वह समय आ गया है कि जितने भी न्यायिक सुधार लंबित हैं, उस पर काम करना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जो भी कहा गया है, वह दुखद है, बहुत खतरनाक है। नूपुर शर्मा के मामले में न्यायालय यह पूछ सकती है कि आपने गलत बोला है परंतु यह नहीं कहा जा सकता कि आज जो दंगे-फसाद हो रहे हैं, उसकी जिम्मेदार केवल और केवल नूपुर शर्मा हैं। हिन्दू देवी-देवताओं पर अपमानजनक टिप्पणियों के लिए हिन्दुओं को भी सिर तन से जुदा का रवैया अपनाने की इजाजत देना जायज होगा क्या? ये तो कोई बात नहीं है कि हिन्दुओं की बेइज्जती करते जाओ और यदि थोड़ा सा जबाब दिया जाता है तो मुसलमान हिन्दुओं का गला काट देगा।

कानून के सुराखों को बंद करने की जरूरत
सर्वोच्च न्यायालय में अधिवक्ता अश्वनी उपाध्याय ने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय संवैधानिक न्यायालय है, परीक्षण न्यायालय नहीं। उदयपुर हत्याकांड में एफआईआर की एनआईए जांच कर रही है। इस मामले में जो भी होगा, वह जांच में आएगा। सर्वोच्च न्यायालय के सामने इतना ही विषय था कि भिन्न-भिन्न राज्यों में दर्ज सभी एफआईआर को एक जगह कर दिया जाए। परंतु इसके बजाय सर्वोच्च न्यायालय ने टिप्पणी कर दी।

अब वह समय आ गया है कि जितने भी न्यायिक सुधार लंबित हैं, उस पर काम करना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जो भी कहा गया है, वह दुखद है, बहुत खतरनाक है। नुपूर शर्मा के मामले में न्यायालय यह पूछ सकती है कि आपने गलत बोला है परंतु यह नहीं कहा जा सकता कि आज जो दंगे-फसाद हो रहे हैं, उसकी जिम्मेदार केवल और केवल नूपुर शर्मा हैं।

श्री उपाध्याय ने कहा कि सरकार की एक भूमिका होती है। फ्रांस में एक आदमी का गला काटा गया जिसके कारण वहां पांच कानून बदल दिए गए। हमारे यहां कमलेश तिवारी से लेकर अब तक कम से कम 400-500 हत्याएं हो चुकी हैं। एक कानून नहीं बदला। हमारे यहां आज भी औपनिवेशिक व्यवस्था है। न्यायालय की पोशाक, न्यायाधीश की पोशाक, वकील की पोशाक। न्यायालय के पीछे अर्दली के खड़े होने का तरीका। कोर्ट मार्शल की कार्यवाही इत्यादि के साथ-साथ छुट्टियां भी। अंग्रेजों के जमाने से आज भी न्यायालय की एक-डेढ़ महीने की छुट्टी होती है।

कानून भी अंग्रेजों ने इतना घटिया बनाया था कि कि यहां के लोगों को दंडित किया जा सके। 1860 की भारतीय दंड संहिता हो, 1861 का पुलिस अधिनियम हो या 1862 का साक्ष्य अधिनियम, वह इतनी ज्यादा अंतर्निहित शक्ति देता है कि एक ही मामले में एक जज जमानत दे देता है तो दूसरा उसी को जेल भेज देता है। कानून में इतने सुराख हैं कि जिला न्यायालय फांसी दे देता है, उच्च न्यायालय उसी फांसी को पलटकर माफ कर देता है और सर्वोच्च न्यायालय दुबारा फांसी दे देता है। इन सुराखों को ठीक करने का काम करना चाहिए। कानून इतना विस्तृत है कि एक समस्या के समाधान में 100-200 घंटे से अधिक समय लगा देने पड़ते हैं।

जैसा कानून, वैसी व्यवस्था
श्री उपाध्याय ने कहा कि जो समस्या भारत में है, वह चीन में, अमेरिका में, सिंगापुर में क्यों नहीं? वहां भी तो मुस्लिम रहते हैं। वहां का मुस्लिम कानून मानता है, हमारे यहां का मुस्लिम कानून क्यों नहीं मानता? इसे अच्छे से समझिए। शठे शाठ्यम् समाचरेत… यह विदुर नीति में लिखा हुआ है। चाणक्य ने इसे दोहराया है। अगर हमने कमलेश तिवारी के हत्यारों को 6 महीने या एक साल में फांसी पर लटका दिया होता तो उसके बाद हुई हत्याओं में से शायद आधी नहीं होती। लेकिन हमारे पास हत्या की एक धारा है 302 जो सड़क दुर्घटना में भी लगती है और कन्हैया के हत्यारे पर भी लगेगा।

हमारे पास अलग से कोई कानून ही नहीं है। हम आज तक हेट स्पीच तो स्पष्ट नहीं कर पाए। भारतीय दंड संहिता में कहीं हेट स्पीच के लिए स्पष्टीकरण नहीं है। इसका नतीजा है कि वसीम रिजवी को हेट स्पीच के नाम पर तीन महीने जेल में रहना पड़ता है और बहुत सारे लोगों पर एफआईआर भी नहीं होती है। आज भी राजस्थान में मौलानाओं द्वारा हेट स्पीच का वीडियो वायरल हो रही, उनके उपर कोई एफआईआर दर्ज नहीं हुई। दरअसल 1861 का पुलिस अधिनियम अंग्रेजों ने अपने हिसाब से बना रखा था जिसमें जिसे चाहे, पकड़ लो, जिसे चाहे, कुछ मत करो। यदि कानून अच्छा होता तो किसी एक अंग्रेज को भी तो सजा होनी चाहिए थी। ये व्यवस्था अंग्रेजों ने अपने लिए बनाई थी, भारतीयों को न्याय देने, अपराध खत्म करने, जिहाद खत्म करने या मजहबी उन्माद खत्म करने के लिए नहीं। लेकिन हम उससे मजहबी उन्माद खत्म करने की कोशिश कर रहे हैं।

आखिर अमेरिका, चीन में इतनी दिक्कत क्यों नहीं है? ऐसा नहीं है कि वे हमारे देश के प्रधानमंत्री या लोगों से ज्यादा काबिल हैं, अंतर कानून का है। अभी तो सर्वोच्च न्यायालय ने मौखिक टिप्पणी की, लिखित में कुछ नहीं दिया। यहां तो अखिलेश यादव ने आतंकियों पर मुकदमे वापस लेने का प्रस्ताव कर दिया। हम ऐसे कानून को ढो रहे हैं।

मैंने सैकड़ों देशों का इतिहास पढ़ा है। मैं गारंटी के साथ कह सकता हूं कि पर्शिया को ईरान बनने में सवा सौ साल लगे थे। तक्षशिला को रावलपिंडी बनने में भी इतना समय लगा था। सौ-सवा सौ साल में 50-60 देशों का इतिहास, भूगोल बदल गया। वहां की संस्कृति खत्म हो गई। यह सत्य है। इसलिए मेरा तो यही कहना है अगर सभी एकमत होकर मांग करें कि जब तक 1950 के पहले का कानून यानी अंग्रेजों का बनाया कानून नहीं बदलेंगे, नया कानून नहीं लाएंगे, तब तक कोई कितना भी जोर लगा लें, कोई फर्क नहीं पड़ता। जब तक कानून अच्छा नहीं होगा, व्यवस्था अच्छी नहीं होगी। जब तक व्यवस्था अच्छी नहीं होगी, सोच अच्छी नहीं होगी। शासक भी अच्छा हो, कानून भी अच्छा हो, तभी बात बनेगी।

उन्होंने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय की पीठ की टिप्पणी को मैं न्यायालय की नहीं, व्यक्तिगत टिप्पणी मानता हूं। निचली अदालतों में कितने गलत निर्णय दिए जाते हैं, परंतु उन पर कोई कार्रवाई ही नहीं होती।

चयन प्रक्रिया से हो सुधार की शुरुआत
पत्रकार प्रखर श्रीवास्तव ने कहा कि कई न्यायाधीश स्वयं को दुनिया की हर ताकत से ऊपर समझने लगे हैं और यही मानसिकता न्यायिक प्रक्रिया में देखने को मिलती है।

न्यायाधीशों का फैसलों के दौरान अनर्गल टिप्पणियां करना एक शगल बन गया है। इन दिनों ऐसे वीडियो सामने आते हैं जिसमें कई न्यायाधीश आईएएस और आईपीएस अफसरों को बेवजह डांटते नजर आए। मिसाल के तौर पर पटना उच्च न्यायालय में एक वरिष्ठ आईएएस को इसलिए बेइज्जत किया गया क्योंकि उनके कपड़े माई लॉर्ड को पसंद नहीं आए थे। जबकि अदालत में पेशी के लिए कोई ड्रेस कोड नहीं होता। ऐसा लगता है कि न्यायाधीश ये दिखाना चाहते हैं कि उनसे ज्यादा ताकतवर कोई नहीं है। इसलिए सबसे पहले जजों को माई लॉर्ड कहने पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए।

जब चयन प्रक्रिया ही गलत होगी तो इस देश को सही जज कैसे मिलेंगे। उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के ज्यादातर न्यायाधीश 20 से 25 साल वकील रहने के बाद न्यायाधीश बनते हैं। सोचने वाली बात है कि अपने पेशे में पूरे 25 साल तक कानून की कमजोरियों से खेलने वाला कोई वकील क्या न्यायाधीश बनते ही सच्चाई की मूरत बन जाता है। जब देश में एक टाइपिस्ट के पद पर भी चयन परीक्षा के आधार पर होता है तो न्यायाधीशों को ये छूट क्यों? आखिर न्यायाधीशों के लिए आईएएस और आईपीएस की तर्ज पर अखिल भारतीय परीक्षा क्यों नहीं होना चाहिए?

आज भी सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय में ऐसे कई न्यायाधीश हैं जिनका अकादमिक रिकॉर्ड खराब होने के साथ-साथ इनमें से कई का वकील को तौर पर भी कोई बहुत बेहतर रिकॉर्ड नहीं है। ज्यादातर वकील श्रम, सेवा, कॉरपोरेट, टैक्स या अन्य किसी कानूनी क्षेत्र में से एक ही क्षेत्र के मुकदमे लेते हैं और एक ही कानूनी विषय के जानकार होते हैं। वो न्यायाधीश बनकर अचानक सर्वज्ञानी हो जाता है, संवैधानिक मामलों पर फैसले और टिप्पणियां करने लगता है। सवाल तो कई हैं… इसलिए शुरूआत चयन प्रक्रिया को दुरुस्त कर की जानी चाहिए।

असंवैधानिक और अभारतीय टिप्पणी
सर्वोच्च न्यायालय की अधिवक्ता सुबुही खान कहती हैं कि मै स्वयं एक अधिवक्ता होने के नाते सर्वोच्च न्यायालय की गरिमा को समझती हूं और पूर्ण सम्मान देती हूं। परंतु हमें यह समझना होगा कि नूपुर शर्मा के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की टिप्पणी न ही सिर्फ़ असंवैधानिक बल्कि अभारतीय भी है। यह कह देना कि उदयपुर आतंकी घटना के लिए नूपुर जिÞम्मेदार हैं, आतंकियों को क्लीन चिट देने समान है। इससे ऐसा प्रतीत होता है जैसे किसी की धार्मिक भावनाएं आहत होने पर गला काट देना जायज है।

इस तरह का हिंसा और कट्टरता को बढ़ावा देने वाला बयान अगर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों द्वारा दिया जाए तो बहुत चिंताजनक स्थिति है। यह बात कोई आम इंसान भी जानता है यदि भारत में कोई किसी के आराध्य या पंथ का अपमान करता है तो उसके लिए भारतीय दंड संहिता के अनुसार सजा का प्रावधान है। क्या हमारे न्यायाधीशों ने भारतीय दंड संहिता अपने जेहन से निकाल दी है या वे भारत की पंच परमेश्वर की परम्परा को भूल गए हैं?

चाहे हम पंचायत के स्तर पर हों या सर्वोच्च न्यायालय के स्तर पर, यदि हम किसी को न्याय देने की स्थिति में हैं तो हमें भाषा, जाति, क्षेत्र, सम्प्रदाय या किसी भी राजनैतिक या निजी कारणों से प्रभावित नहीं होना चाहिए। न्याय करने के लिए सबसे पहली शर्त होती है साक्षी भाव, जो हर भारतीय को बचपन में ही वेदांत में पढ़ाया जाता है। दुर्भाग्यवश आज बड़े-बड़े पदों पर विराजमान व्यक्ति साक्षी भाव का मतलब भी नहीं जानते।

ट्विटर और सोशल मीडिया पर बहुतेरे लोग अपनी आवाज उठा रहे हैं। न्यायिक क्षेत्र में एक बात कही जाती है कि न्याय न सिर्फ होना चाहिए बल्कि होते हुए दिखना भी चाहिए। क्या नूपुर के मामले में न्याय होता हुआ दिखा है? आम भारतीयों के लिए न्यायालय बहुत ही पवित्र स्थल होते हैं। और, इसकी पवित्रता बनाए रखने की महती जिम्मेदारी न्यायाधीशों की ही है। और इसके लिए टिप्पणी करते समय शब्दों के चयन एवं उससे निकलने वाले संकेतों, संदेशों पर ध्यान दिया जाना बहुत आवश्यक है।

न्याय की सीमा का उल्लंघन

  • अश्विनी मिश्रा

वास्तविक अर्थों में नूपुर शर्मा के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय के माननीय न्यायाधीशों की टिप्पणी स्वयं न्याय की सीमा का अतिलंघन करती है, अतिक्रमण करती है। संविधान का अनुच्छेद 20 आरोपित होने की स्थिति में भी व्यक्ति के विशेष अधिकारों की रक्षा करता है। मौलिक अधिकार के रूप में ये परिभाषित है और किसी भी याचिकाकर्ता के मौलिक अधिकार का हनन करना किसी भी तरीके से किसी भी न्यायपालिका के दृष्टिकोण से उचित या न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता। इसमें दो-तीन मुद्दे हैं, उसे स्पष्ट होना चाहिए।

किसी भी तरीके की याचिका में न्यायाधीश याचिका में की गई प्रार्थना पर ही अपना फैसला सुनाने के लिए बाध्य होते हैं। प्रार्थना से हटकर टिप्पणी देना न्यायिक अतिक्रमण है। जो प्रार्थना है, उसी पर टिप्पणी आनी चाहिए या फिर याचिकाकर्ता को राहत मिलनी चाहिए। जो बातें याचिकाकर्ता द्वारा उठाई ही नहीं गईं, उनपर टिप्पणी करना न्यायिक अतिचार, न्यायिक अधिक्रमण की श्रेणी में आता है। निश्चित रूप से माननीय न्यायाधीश ने जो कहा है कि जनता के मुद्दों को हल करने की जगह सस्ती लोकप्रियता करने के लिए ये सब बयान दिया जाता है, यही आलोचना न्यायाधीशों की टिप्पणियों पर भी की जा सकती है।

सर्वोच्च न्यायालय को अधिकार है कि वह एफआईआर को जोड़ कर सारे मामलों को एक जगह कर दे। ये नैतिक कानून है कि एक ही मामले में एक ही व्यक्ति को अलग-अलग अदालतों में अभियोजित नहीं किया जा सकता है। अर्णव गोस्वामी मामले में भी इसे गंभीरता से लेते हुए एक स्पष्ट निर्णय दिया गया जिसकी अपेक्षा थी। नूपुर मामले में न्यायालय ने उस अपेक्षा पर विचार तक नहीं किया बल्कि नूपुर के मौलिक अधिकार का भी हनन किया क्योंकि यह राहत केवल और केवल सर्वोच्च न्यायालय ही दे सकता है कि किसी भी याचिकाकर्ता के सारे मामले को एक जगह इकट्ठा करके एक जगह सुनवाई की जाए। उच्च न्यायालय को यह अधिकार नहीं है। इस तरह की टिप्पणी से न्यायपालिका की गरिमा को भी ठेस पहुंचाई गयी है। न्यायिक अतिचार की श्रेणी में टिप्पणियां की गईं और इसकी आलोचना से न्यायपालिका की गरिमा को यदि ठेस लगती है तो स्वयं न्यायधीश जिम्मेदार हैं। इस तरह की टिप्पणी संविधान के दायरे से बाहर है।

न्यायालय की अवमानना की श्रेणी में माननीय न्यायाधीश स्वयं आते हैं। न्यायालय अपने-आप में एक ऐसी इकाई है जिसकी अवमानना नहीं की जा सकती। न याचिकाकर्ता द्वारा, न ही वकील द्वारा और न ही न्यायाधीश द्वारा। मेरे दृष्टिकोण से न्यायाधीशों पर अवमानना का भी मामला बनता है। भारत के किसी भी नागरिक के संविधान प्रदत्त अधिकार हैं, किसी को भी मौलिक अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश ने याचिकाकर्ता नूपुर शर्मा की याचिका को खारिज करते हुए कहा कि आप इसके लिए उच्च न्यायालय जाएं जबकि यह सर्वोच्च न्यायालय का अधिकार है न कि उच्च न्यायालय का।
(लेखक वरिष्ठ टीवी पत्रकार हैं)

Topics: सर्वोच्च न्यायालयन्यायाधीश की टिप्पणी से उठे सवालन्यायिक सुधारअसंवैधानिकअभारतीय टिप्पणीRemarks of the bench on Nupur Sharma
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