इमरान खान सत्ता में आए तो थे ‘नया पाकिस्तान’ बनाने का वादा करके, पर देश को रसातल में धकेल दिया। पाकिस्तान को इस्लामी देश बनाने की इच्छा भी धरी रह गई। फौज चाहती तो इमरान सरकार की विदाई पहले ही हो जाती। लेकिन फौज से उन्हें मोहलत मिलती रही। आखिर में फौज ने आक्सीजन सपोर्ट हटाया, इधर एक-एक कर सहयोगी हाथ खींचते गए और इमरान सरकार की इतिश्री। अब देखना यह है कि विपक्ष की आगे की रणनीति क्या है और फौज क्या करेगी
जिस समय आप यह अंक पढ़ रहे होंगे, पाकिस्तान में इमरान सरकार गिर चुकी होगी। जैसा कि हम लगातार बता रहे थे कि मार्च का महीना इस सरकार पर भारी है और वह इस महीने को पार नहीं कर पाएगी। तकनीकी रूप से 30 मार्च को एमक्यूएम के सहयोगी दल के तौर पर अलग होने के साथ ही सरकार अल्पमत में आ चुकी है। 3 या 4 अप्रैल को विश्वासमत पर मतदान के साथ ही औपचारिक रूप से सरकार गिर जाएगी।
पिछले दो से तीन हफ्ते पाकिस्तान की राजनीति में घटनाक्रम का चक्र बहुत तेजी से घूमता रहा। सेना की ओर से मार्च के दूसरे सप्ताह में प्रधानमंत्री इमरान खान को संदेश दे दिया गया था कि सरकार के सहयोगियों के अलग होने की खबरों के बीच उन्हें इस्तीफा दे देना चाहिए। इमरान खान लगभग अक्तूबर से ही किसी न किसी बहाने अपनी सरकार के कार्यकाल को थोड़ा-थोड़ा कर आगे बढ़ा रहे थे। कभी स्टेट बैंक आॅफ पाकिस्तान के बिल को लेकर तो कभी किसी और बहाने। मार्च में एक बार फिर सेना की ओर से इस्तीफा देने की सलाह के बाद इस्लामिक देशों के विदेश मंत्रियों के सम्मेलन की आड़ में फिर बढ़ोतरी मांगी गई। यहां यह उल्लेखनीय है कि सहयोगी दलों ने इस समय तक औपचारिक रूप से समर्थन वापस नहीं लिया था। लेकिन यह दिखाई दे रहा था कि प्रधानमंत्री लगातार संसदीय दल की बैठक को टाल रहे हैं। बैठक बुलाई जाती तो इससे यह स्पष्ट हो जाता कि सरकार अल्पमत में आ चुकी है। इसी कारण इमरान सरकार लगातार अपनी राजनैतिक समिति की बैठक तो रोज बुला रही थी, लेकिन संसदीय दल की बैठक नहीं। आशा की जा रही थी कि जैसे ही इस्लामिक देशों के विदेश मंत्रियों का सम्मेलन समाप्त होगा तो प्रधानमंत्री इस्तीफा दे देंगे, पर ऐसा नहीं हुआ। आदतन प्रधानमंत्री ने फिर सेना से 6 माह की मोहलत इस वादे के साथ मांगी कि चुनाव करा दिए जाएंगे। इस बार सेना ने इस पर सहमति नहीं दी। यह समझा जा चुका था कि आने वाले 6 महीनों में भी कोई परिवर्तन आने वाला नहीं है। ऐसी परिस्थिति में 6 माह बाद जो भी होना है, उसे अभी ही कर लेना सभी को बेहतर नजर आया। यही वह समय था, जब सहयोगी दलों को सक्रिय होने के लिए कहा गया और एक-एक कर उनकी ओर से अलग होने के संकेत आने लगे। सहयोगी दलों के सरकार से हटने के बाद इमरान सरकार के पास करीब 140 सांसद रह गए, जबकि बहुमत के लिए सरकार को 172 संसद सदस्यों की आवश्यकता है।
पहली चोट इलाही ने दी
इस क्रम में पहली चोट पंजाब के परवेज इलाही ने दी। उन्होंने वरिष्ठ पत्रकार मेहर बुखारी से एक साक्षात्कार में कहा कि इमरान खान को सरकार चलाना आया ही नहीं। जो लोग उन्हें सत्ता में लेकर आए थे, वही अब तक उनकी सरकार को चलाने का प्रयास कर रहे हैं और दिशानिर्देश दे रहे हैं। यह बताने के क्रम में उन्होंने इमरान की तुलना उस बच्चे से की, जिसके अंत:वस्त्र मां-बाप बदलते हैं ताकि उनमें से बदबू न आए। मेहर के यह पूछने पर कि अब यह अंत:वस्त्र बदलने से इनकार क्यों किया जा रहा है, इलाही का जवाब रुचिकर था। उन्होंने कहा, ‘‘लगता है अब अंत:वस्त्र महंगे हो गए हैं।’’ इसके बाद आसिफ अली जरदारी के घर पर इलाही रात्रिभोज के लिए मिले और समझौते पर सहमति बन गई। दोनों ने मिलकर दुआ-ए-खैर पढ़ी। इसका मतलब था कि दोनों ने अपनी रणनीति तय कर ली थी और अल्लाह से उसकी सफलता की कामना की। लेकिन बात यहीं खत्म नहीं हुई।
इमरान ने इलाही को साधा
घटनाक्रम तेजी से बदला और इलाही से मिलने के लिए इमरान की तरफ से तीन मंत्री आए। मुलाकात के बाद बाहर आने पर जहां तीनों मंत्री खुश नजर आ रहे थे, वहीं परवेज इलाही कुछ सहमे नजर आ रहे थे। इसी बीच, इलाही को एक फोन आया, जिसके बारे में उन्होंने अपने भाई सुजात चौधरी को कुछ नहीं बताया। उन्हें सिर्फ इतना बताया कि बेटे मोनिस इलाही के साथ वे प्रधानमंत्री से मिलने जा रहे हैं। चौधरी साहब ने उन्हें समझाया कि वे प्रधानमंत्री से कोई वादा करके न आएं, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इमरान ने आगामी डेढ़ साल के लिए बचे हुए असेंबली कार्यकाल में उन्हें पंजाब का मुख्यमंत्री बनाने का आश्वासन दिया और पंजाब के मुख्यमंत्री उस्मान बुजदार का इस्तीफा उन्हें दिखा दिया। याद रहे, कानूनी तौर पर इस्तीफा प्रधानमंत्री को राज्यपाल के कार्यालय भेजना चाहिए ताकि उसे औपचारिक रूप से स्वीकृत किया जा सके। लेकिन इमरान ने ऐसा नहीं किया। परवेज इलाही को यह जिम्मेदारी दी गई कि वे दूसरे सहयोगियों को इमरान के साथ लाएं, इसके बदले बुजदार के इस्तीफे को राज्यपाल को भेज दिया जाएगा। इलाही को संतुष्ट रखने के लिए मीडिया में यह जानकारी दे दी गई कि परवेज इलाही अगले मुख्यमंत्री होंगे।
दूसरी चोट जरदारी की
एक दिन के अंतर में परवेज इलाही में आए इस परिवर्तन पर जरदारी नाराज तो बहुत हुए, लेकिन उनके पत्ते अभी खत्म नहीं हुए थे। अगले ही दिन उन्होंने अपना अगला पत्ता चल दिया। एमक्यूएम की तमाम शर्तों को मानते हुए जरदारी ने औपचारिक रूप से एक अनुबंध किया और अगले कुछ घंटों में एमक्यूएम ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया। इसी के साथ सरकार अल्पमत में आ गई। सरकार के कई मंत्री भी इस बीच दूसरे दलों के संपर्क में थे और अपने लिए आगामी चुनाव में टिकट की व्यवस्था कर रहे थे। इनमें कुछ मंत्री ऐसे हैं, जिन्हें इस समय कोई भी दल लेने के लिए तैयार नहीं है। विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी, सूचना और प्रसारण मंत्री फवाद चौधरी और गृह मंत्री शेख रशीद ऐसे ही लोगों में शामिल हैं। माना जाता है कि शायद फवाद चौधरी आने वाले 6 से 8 महीने में पीपुल्स पार्टी में शामिल हो जाएं, लेकिन ऐसा होने की संभावना अभी नहीं है।
इमरान का हास्यास्पद दावा
इससे पूर्व इमरान ने 27 मार्च को इस्लामाबाद में एक रैली करने की घोषणा की थी। उन्होंने कहा था कि रैली में देश भर से 10 लाख लोग शामिल होंगे। हास्यास्पद बात यह है कि जिस परेड ग्राउंड में यह रैली आयोजित होनी थी, उसमें अधिकतम 50 हजार लोग ही आ सकते थे। चूंकि इरादा इस संख्या को अधिकतम करके दिखाना था, इसलिए निजी मीडिया को रैली में आने की इजाजत नहीं दी गई। केवल सरकारी टेलीविजन को ही इसका प्रसारण करने दिया गया ताकि कैमरे के कोणों को इस तरह से नियंत्रित किया जाए कि भीड़ अधिकतम दिखे। पिछली कई रैलियों में कम भीड़ होने के चलते तालियों की आवाजें डीजे द्वारा लाउडस्पीकर पर बजाई गर्इं ताकि टेलीविजन पर लगे कि जनता बड़ी संख्या में मौजूद थी। रैली में इमरान खान ने दावा किया कि उन्हें एक विदेशी सरकार से भेजा गया पत्र मिला है, जिसमें उन्हें धमकी दी गई है कि उनकी सरकार गिरा दी जाएगी। उन्होंने बताया कि इस पत्र में अविश्वासमत का भी संदर्भ दिया गया है, जबकि उस समय अविश्वास प्रस्ताव आया ही नहीं था। बकौल इमरान, पत्र उन्हें 7 मार्च को मिला, जबकि अविश्वास प्रस्ताव 8 मार्च को पेश किया गया था। उन्होंने अपनी सरकार गिराने के पीछे विदेशी साजिश होने का संकेत तो किया, लेकिन इस पत्र को सार्वजनिक नहीं करने की बात भी कही। विचित्र बात यह थी कि उन्होंने किसी भी ऐसे व्यक्ति को, जो इस पत्र के बारे में जानना चाहे, यह निमंत्रण नहीं दिया कि वह उनके घर आकर इसे देख सकता है। इसके साथ ही यह पत्र विवादों के घेरे में आ गया।
30 मार्च को इमरान ने दोपहर बाद अचानक मंत्रिमंडल की आपातकाल बैठक बुलाई और यह भी संकेत दिए कि इसी दिन शाम को राष्ट्र को संबोधित करेंगे। मंत्रिमंडल की बैठक के बाद उनका कुछ चुनिंदा पत्रकारों से मिलने का भी कार्यक्रम था, जिसमें प्रधानमंत्री ने उस विदेशी पत्र को पत्रकारों को दिखाने की घोषणा की थी।
जो करना चाहा, नहीं हुआ
पाकिस्तान की राजनीति का घटनाचक्र किसी रंगमंच से कम नहीं होता। हर पल घटनाएं इस तरह रंग बदल रही थीं कि उनकी थाह पाना मुश्किल हो रहा था। इसी बीच, किसी ने इस्लामाबाद उच्च न्यायालय में याचिका दायर की कि इमरान को विदेशी पत्र को सार्वजनिक करने से रोका जाए। न्यायालय ने इस पर रोक लगाते हुए कहा कि आॅफिशियल सीक्रेट एक्ट के तहत पत्र को सार्वजनिक नहीं किया जा सकता। मार्च का यह दिन इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण रहा कि इस दिन इमरान ने जो कुछ भी करना चाहा, नहीं हो सका। मंत्रिमंडल की बैठक लगभग 3:30 बजे समाप्त होनी थी, तभी खबर आई कि सेनाध्यक्ष व आईएसआई प्रमुख प्रधानमंत्री निवास पर पहुंच चुके हैं। अटकलों-अफवाहों का बाजार फिर गर्म हो चला। इस बीच, पत्रकारों से होने वाली मुलाकात को रद्द कर दिया गया। आईएसआई प्रमुख ने इमरान को इस्तीफा देने की सलाह दी, पर वे इसके लिए सहमत नहीं थे। क्रिकेट मैच की तरह वे इस राजनीतिक मैच को भी आखिरी दिन तक खेलना चाहते थे। पत्रकारों से होने वाली मुलाकात को रद्द करने के साथ ही शाम को राष्ट्र के नाम उनके संदेश को भी रद्द कर दिया गया। माना जा रहा है कि सेना नहीं चाहती थी कि किसी भी कारण से देश में अस्थिरता बढ़े। अब तक पाकिस्तान का स्टॉक एक्सचेंज 350 अंक गिर चुका था। प्रधानमंत्री पर यह भरोसा नहीं किया जा सकता था कि वे ऐसी तनावपूर्ण स्थितियों में क्या कह दें, जो राष्ट्र हित में न हो। इसलिए यही बेहतर समझा गया कि संदेश प्रसारण को रद्द कर दिया जाए।
इस दौरान यह भी स्पष्ट हो गया कि इमरान जिस विदेशी पत्र का संदर्भ दे रहे थे, वह और कुछ नहीं, पाकिस्तानी दूतावास के एक अधिकारी द्वारा भेजी गई एक रिपोर्ट थी जिसे पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय ने इस संदर्भ में मांगा था कि यदि इमरान खान रूस के दौरे पर जाते हैं तो पाकिस्तान-अमेरिका संबंधों पर उसके क्या प्रभाव पड़ेंगे। साथ ही, यह कि अमेरिका इस समय पर द्विपक्षीय संबंधों के बारे में क्या सोचता है। जब यह बात दोनों सूत्रों से सार्वजनिक होने लगी तो इसी शाम को इमरान खान ने कुछ पत्रकारों को यह बात बता दी कि यह पत्र और कुछ नहीं, बल्कि पाकिस्तानी राजदूत की रिपोर्ट है।
कल गद्दार, आज जांनशीं
इमरान सरकार तो जा रही है, लेकिन आने वाली सरकार का ताना-बाना भी धीरे-धीरे सामने आने लगा है। कहा जा रहा है कि आगामी सरकार में आसिफ अली जरदारी पाकिस्तान के राष्ट्रपति होंगे तो दूसरी तरफ शहबाज शरीफ प्रधानमंत्री। राना सनाउल्लाह के गृहमंत्री होने की चर्चा है। मगर इस सब के बीच एक नाम जो हमारे लिए पाकिस्तानी संदर्भ में रुचि का विषय है, वह है अमेरिका में पाकिस्तान के पूर्व राजदूत हुसैन हक्कानी। पाकिस्तान के राजनीतिक संगठनों और सैन्य प्रशासन में इस बात को लेकर सहमति पाई जाती है कि आने वाले समय में पूर्व राजदूत हुसैन हक्कानी को अमेरिका के साथ संबंध सुधारने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी। मेरा व्यक्तिगत रूप से यह मानना है कि हुसैन हक्कानी इस उत्तरदायित्व को सहर्ष स्वीकार करेंगे और निभाएंगे। यह सर्वविदित है कि बाइडेन प्रशासन में हुसैन हक्कानी अच्छी पहुंच रखते हैं। वर्तमान में वे हडसन इंस्टीट्यूट के दक्षिण एशिया संकोष्ठ के मुखिया हैं।
उलटफेर के मुख्य किरदार
नवाज शरीफ
पाकिस्तान के तीन बार प्रधानमंत्री रह चुके नवाज शरीफ इस समय लंदन में अपनी बीमारी का इलाज करवा रहे हैं। पाकिस्तान में उन पर भ्रष्टाचार के आरोप में मुकदमा चलाया गया, लेकिन सजा उन्हें उस आरोप की सुनाई गई, जिसका उन पर मुकदमा भी न था। जेल में बीमार हुए और अंतरराष्ट्रीय दबाव के सामने विवश इमरान खान की सरकार को उन्हें विदेश भेजना पड़ा। इस समय में अपनी राजनीति टेलीफोन और वीडियो लिंक के जरिए लंदन से ही कर रहे हैं। आशा की जाती है कि वह जल्द पाकिस्तान लौट आएंगे और राजनीति में फिर से सक्रिय होंगे।
मरियम नवाज शरीफ
नवाज शरीफ की पुत्री अपने पिता की राजनीतिक विरासत की उत्तराधिकारी मानी जाती हैं। जनता से संपर्क साधने का उनका तरीका बेहद लोकप्रिय है। आगामी वर्षों में उन्हें प्रधानमंत्री पद का दावेदार माना जा रहा है। पिता की अनुपस्थिति में उनकी नीतियों को लेकर अपने दल का नेतृत्व करते हुए उन्होंने अपनी काबिलियत साबित की है।
जनरल कमर जावेद बाजवा
जनरल बाजवा सेना के प्रमुख हैं और पाकिस्तान की राजनीति उन्हीं के चारों तरफ घूमती है। पाकिस्तानी राजनीति से वहां की सेना को अलग करने की बात सोची भी नहीं जा सकती। उनका कार्यकाल आगामी 27 नवंबर को खत्म हो रहा है। हाल ही में जनरल बाजवा इस बात को लेकर चर्चा में रहे हैं कि उन्होंने देश की अर्थव्यवस्था की तरफ ज्यादा ध्यान देने की बात की है न कि बाहरी खतरों की। ऐसा माना जाता है कि उनके कार्यकाल के दौरान सेना ने अपने आपको अंतत: राजनीति से अलग करने की प्रक्रिया शुरू की है। लेकिन कुछ लोगों का यह भी मानना है कि यह सब भ्रम है।
आसिफ अली जरदारी
आसिफ जरदारी को पाकिस्तानी राजनीति का बड़ा रणनीतिकार माना जाता है। जरदारी पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो के पति हैं। बेनजीर की हत्या के बाद पाकिस्तान में अस्थिरता का माहौल था, लेकिन उस समय जरदारी ने ‘पाकिस्तान खप्पे’ का सिंधी नारा देकर पाकिस्तान को एकीकृत रखने में बड़ी भूमिका अदा की थी। बेनजीर की मृत्यु के बाद जरदारी पाकिस्तान के राष्ट्रपति भी बने और इस समय उनका दल सिंध में पिछले कई सालों से सत्ता में है। पाकिस्तान में चल रहे मौजूदा राजनीतिक संकट में जरदारी विपक्ष में एक बड़ी और सकारात्मक भूमिका निभा रहे हैं। उनकी राजनीतिक समझ का लोहा मानते हुए पाकिस्तान में एक नारा प्रचलित है, ‘एक जरदारी सब पर भारी।’
मौलाना फजलुर्रहमान
मौलाना फजलुर्रहमान 2018 में संसदीय चुनाव नहीं जीत पाए थे। इस चुनाव में हुए भ्रष्टाचार को समझते हुए उन्होंने विपक्ष को सलाह दी थी कि वह चुनाव के नतीजों को न माने और संसद का बहिष्कार करे। तब विपक्षी दलों ने ऐसा नहीं किया, लेकिन आज वे इस बात पर पछताते हैं और मानते हैं कि उन्हें मौलाना की बात उस समय मान लेनी चाहिए थी। मौलाना इस समय राजनीतिक परिदृश्य में आक्रामक भूमिका में हैं और विपक्ष की तरफ से इमरान को सत्ता से बाहर करने में उनकी बड़ी भूमिका है।
लेफ्टिनेंट जनरल फैज हमीद
लेफ्टिनेंट जनरल फैज हमीद अब से कुछ समय पहले तक आईएसआई के मुखिया थे। माना जाता है कि इमरान खान इन्हें अगला सेनाध्यक्ष बनाना चाहते थे। बदले में लेफ्टिनेंट जनरल फैज हमीद ने उन्हें चुनाव जिताने में मुख्य भूमिका अदा की और प्रधानमंत्री बनने के बाद भी संसद में आने वाली तमाम मुश्किलों से हमीद ही इमरान सरकार को बचाते रहे। हाल ही में उन्हें पेशावर का कोर कमांडर नियुक्त किया गया है। यही वह नियुक्ति थी, जिसे लेकर प्रधानमंत्री इमरान खान और सेनाध्यक्ष बाजवा में ठन गई थी। मौजूदा परिस्थितियों में उनके अगला सेनाध्यक्ष बनने की तमाम उम्मीदों पर पानी फिर चुका है।
बिलावल भुट्टो जरदारी
बेनजीर और आसिफ अली जरदारी के बेटे बिलावल अपनी उम्र से आगे के राजनीतिक साबित हुए हैं। मरियम नवाज शरीफ की ही तरह बिलावल भुट्टो भी पाकिस्तान के आने वाले वर्षों में प्रधानमंत्री पद के दावेदार रहेंगे।
चार महीने पहले शुरू ड्रामे का पटाक्षेप
इमरान सरकार की उलटी गिनती चार महीने पहले शुरू हो गई थी, जब नए आईएसआई प्रमुख की नियुक्ति को लेकर सेना प्रमुख कमर जावेद बाजवा से उनके मतभेद हुए थे। बाजवा ने लेफ्टिनेंट जनरल नदीम अंजुम को आईएसआई प्रमुख नियुक्त किया था। लेकिन इमरान खान अपने करीबी जनरल फैज हमीद को इस पद पर बैठाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने अंजुम की नियुक्ति में देरी की। हालांकि नियमानुसार, सेना प्रमुख की सिफारिश पर ही प्रधानमंत्री आईएसआई प्रमुख की नियुक्ति करता है। बहरहाल, बाजवा और इमरान के बीच कुछ दिनों तक रस्साकशी चली, लेकिन पलड़ा बाजवा का ही भारी रहा। इसी बीच, खान ने फरवरी में सोशल मीडिया पर बिल गेट्स के साथ लंच की एक तस्वीर साझा की।
बिल गेट्स पोलियो उन्मूलन अभियान को बढ़ावा देने के लिए पाकिस्तान आए थे। इमरान द्वारा जारी तस्वीर में सोशल मीडिया यूजर्स को कुछ अटपटा सा लगा। तस्वीर में गोलमेज के चारों ओर 13 कुर्सियां थीं। लेकिन लोग 12 ही दिख रहे थे। एक व्यक्ति की तस्वीर धुंधली थी, जो अपने इर्द-गिर्द बैठे लोगों से बात कर रहा था।
लोगों ने आशंका जताई कि तस्वीर के साथ छेड़छाड़ की गई है। कुछ समय बाद पाकिस्तानी मीडिया ने बताया कि तस्वीर से अंजुम को हटा दिया गया था। अंजुम ने मीडिया को अपनी तस्वीर या वीडियो प्रकाशित करने से बचने का निर्देश दिया था। इस कारण तस्वीर बदल गई। इससे भी सेना के साथ इमरान के बिगड़े संबंधों के संकेत मिले।
जिन दिनों आतंकी ओसामा बिन लादेन को अमेरिका ने पाकिस्तान के ऐबटाबाद क्षेत्र में मारा था, उन दिनों हुसैन हक्कानी अमेरिका में पाकिस्तान के राजदूत थे। बिन लादेन वाले आॅपरेशन के कुछ समय बाद एक विवाद उठा था, जिसे बाद में मेमोगेट के नाम से जाना गया। इसमें हुसैन हक्कानी पर यह आरोप था कि पाकिस्तान के राजदूत के रूप में उन्होंने तत्कालीन अमेरिकी सेनाध्यक्ष माइक मलन को एक मेमो भिजवाया, जिसमें लिखा था कि पाकिस्तानी सरकार को इस बात का डर है कि सेना सरकार गिरा सकती है। यदि ऐसे समय में पाकिस्तान सरकार की अमेरिका से मदद की जाती है तो उसके बदले में तत्कालीन जरदारी सरकार दक्षिण एशिया में अमेरिकी हितों की रक्षा करेगी। साथ ही, उन आतंकी संगठनों को खत्म करेगी, जो भारत में आतंक फैलाते हैं और जिन आतंकवादियों की भारत को आवश्यकता है, उन्हें भारत को सौंपा जाएगा। इसके बाद हुसैन हक्कानी को पाकिस्तान बुलाया गया और उनसे इस्तीफा ले लिया गया। उनके देश छोड़ने पर रोक लगा दी गई और उनकी जांच के लिए एक आयोग बना दिया गया। सेना ने उस समय पाकिस्तान में यह बात फैला दी थी कि हुसैन हक्कानी गद्दार है। माना जाता है कि उस समय पाकिस्तान में हुसैन हक्कानी के जीवन को इतना गंभीर खतरा था कि वे तत्कालीन राष्ट्रपति जरदारी के निवास पर रह रहे थे।
आपको याद होगा कि उस समय ब्लूबेरी फोन चलन में थे। आयोग को यह बताया गया कि हुसैन हक्कानी अपना ब्लूबेरी फोन अमेरिका में छोड़ आए हैं और उन्हें कुछ दिनों की मोहलत चाहिए ताकि वे अमेरिका जाकर उस फोन को लाकर अदालत को सौंप सकें और स्वयं को निर्दोष साबित कर सकें। हुसैन हक्कानी को ऐसा करने की इजाजत मिली। माना जाता है कि ऐसा अमेरिकी राजनयिक दबाव के चलते हुआ था। उस दिन से आज तक हुसैन हक्कानी अमेरिका में ही रह रहे हैं। वे अक्सर विभिन्न कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए भारत भी आते रहे हैं। जिंदगी भी कैसे-कैसे मोड़ लेती है, जहां कल के गद्दार आज के जांनशीं बन जाते हैं।
इमरान ने दावा किया था कि 27 मार्च को इस्लामाबाद में रैली में 10 लाख लोग जुटेंगे
इमरान के बचाव का रास्ता
जैसे-जैसे इमरान की अल्पमत सरकार की विदाई के दिन नजदीक आ रहे हैं, वैसे-वैसे यह प्रश्न उठने लगा है कि क्या इमरान इस राजनीतिक उठा-पटक से निकल कर देश छोड़ पाएंगे। इस संदर्भ में बिलावल भुट्टो का एक बयान उल्लेखनीय है, जिसमें उन्होंने एक भाषण के दौरान शहबाज शरीफ को संबोधित करते हुए कहा था कि आने वाली सरकार में गृह मंत्री किसी नरम दिल इनसान को बनाएं। इशारा साफ था, क्या आज के सत्तारूढ़ दल के वे लोग, जिन्होंने विपक्ष के लोगों पर अत्याचार किए हैं, ऐसे लोग कानून की गिरफ्त से बच नहीं पाएंगे। बीते 28 मार्च को पीपुल्स पार्टी के खुर्शीद शाह ने पत्रकार इमदाद सुमरो को एक साक्षात्कार में बताया कि जिन लोगों पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं, आगामी सरकार में उनकी जांच होगी और दोषी पाए जाने पर उन्हें सजा दी जाएगी। माना जाता है कि इमरान सरकार में मंत्री रहे बहुत से लोग सिर्फ विपक्ष के खिलाफ साजिशों में ही नहीं लगे रहे हैं, बल्कि अरबों रुपये का भ्रष्टाचार भी किया है। ऐसे बहुत से आरोप स्वयं इमरान खान और उनकी पत्नी पर भी लगाए गए हैं। यह भी माना जाता है कि इमरान खान की पत्नी के पूर्व पति खाबर मेनका भी उनके नाम पर भ्रष्टाचार में लिप्त रहे हैं।
इस पृष्ठभूमि में सेना के उच्चतर अधिकारी यह प्रयास करते रहे हैं कि इमरान खान समय पर इस्तीफा देकर देश छोड़ कर बाहर चले जाएं, लेकिन अभी तक इमरान खान इसके लिए सहमत नहीं हुए हैं। अविश्वास प्रस्ताव पर मतदान से पहले इमरान ने अपने इस्तीफा देने की बात को लगातार नकारा है। 30 मार्च को जिस समय राजनीतिक घटना पटल पर लगातार दृश्य परिवर्तन हो रहा था, उसी समय सेना अध्यक्ष बाजवा पेशावर के दौरे पर गए और वहां के कोर कमांडर फैज हमीद से मुलाकात की। बता दें कि फैज हमीद पहले आईएसआई के मुखिया रह चुके हैं और इमरान खान के करीबी माने जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि सेनाध्यक्ष ने फैज हमीद को इमरान खान से इस्तीफा लेने की जिम्मेदारी सौंपी है। पाकिस्तान की राजनीति की एक और विडंबना है कि बाजवा की जगह जिस व्यक्ति को इमरान खान सेना अध्यक्ष बनाकर अपना कार्यकाल बढ़ाना चाहते थे, उसी को इमरान खान का इस्तीफा लेने की जिम्मेदारी दी गई है।
इस बीच जानकारी मिली है कि नवाज शरीफ ने इमरान खान को कोई भी रियायत देने से इनकार कर दिया है। यही हालत मौलाना फजलुर्रहमान की भी है। शायद नवाज शरीफ की हालत को समझा जा सकता है। जिस समय उन पर झूठा केस लगाकर पाकिस्तानी सर्वोच्च न्यायालय में एक ऐसे मामले में दोषी करार दिया गया था, जो उन पर दायर ही नहीं किया गया था। उस समय पत्नी को लंदन में मरणासन्न अवस्था में छोड़कर वह अपनी बेटी को लेकर वापस आए थे और दोनों को तुरंत जेल में डाल दिया गया था। बेटी मरियम नवाज के जेल के कमरे मे बने शौचालय में सीसीटीवी कैमरे लगाए गए थे। इमरानी शासन में इस तरह की त्रासदियों को भोगने वाला परिवार सिर्फ नवाज शरीफ का ही नहीं था। यह सब इमरान खान के पूर्व सहयोगियों के साथ भी हुआ और उन लोगों के साथ भी, जिन्होंने इमरान खान का घर चलाने के लिए अपने व्यापार से धन निकाल कर दिया था और यह उम्मीद की थी कि वह ‘नया पाकिस्तान’ बनाएंगे।
टिप्पणियाँ