पंकज झा
यह लेख शुरू करने से पहले डिस्क्लेमर देना ज़रूरी है कि न तो यह यूक्रेन -रूस सैन्य संघर्ष पर है और न ही उनके पक्ष या विरुद्ध। यह लेख वहां से आ रही एक खबर से सबक लेकर भारत की चुनौतियों और संकट पर विमर्श करने के लिए है। एक मुख्य अखबार की खबर के अनुसार – ‘सैन्य संघर्षरत यूक्रेन के भीतर 135 ऐसे चर्च हैं जिसकी निष्ठा रूस के प्रति है। वे चर्च वहां राशन, हथियार आदि जमा कर रहे हैं ताकि जब रूसी सैनिक शहर में घुसें तो उन्हें सहूलियत हो। यूक्रेन में 13 प्रतिशत लोग ऐसे हैं, जो इन चर्चों के अनुयायी हैं। चर्च रूस के पक्ष में गुप्त सभायें भी कर रहे । वे रूसी सेनाओं को यूक्रेनी शहरों के बारे में गुप्त जानकारी भी दे रहे हैं। आशंका है कि ये चर्च ही रूसी सैनिकों के ठिकाने बनेंगे।’
निस्संदेह भारत की तुलना में वहां की परिस्थितियां अलग हैं। वहां इस तरह देश के भीतर देशद्रोही गतिविधियों के संचालित होने के कारण भी अलग होंगे। लेकिन क्या भारत के लिए इस खबर में कोई सबक छिपे नहीं हैं?
हां… ऐसा इसलिए क्योंकि पश्चिम से आयातित मतों की चुनौतियां यहां भी हैं। समूचे देश खासकर पूर्वोत्तर समेत आदिवासी इलाकों में दूसरे मतों की गतिविधियां रफ़्तार पर हैं। आदिवासी बहुल राज्य छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में तो एक मिशनरी ने खुले आम संविधान जलाने की धमकी दी। फिर भी उनका कुछ नहीं बिगड़ा। लेकिन इसका विरोध करने वाले राष्ट्रवादियों पर तमाम मुकदमें लाद दिए गए।
नक्सल प्रभावित संभाग बस्तर में तो बाकायदा वहां के सुकमा जिले के एसपी ने पत्र लिखकर मातहत प्रशासन को अवगत कराया कि बड़ी संख्या में आदिवासियों का जबरन मतांतरण हो रहा है, इसे रोकने की ज़रूरत है। लेकिन इस इनपुट पर कारवाई करने के बदले कांग्रेस सरकार ने न केवल इससे इनकार किया बल्कि उसकी लीपपोती में ही जुटी रही। धुर आदिवासी इलाकों में एक से एक अंधविश्वासों के सहारे,बुखार-दर्द आदि की गोली चुपके से खिला कर मरीजों को स्वस्थ कर उसे ईसा मसीह का प्रसाद बता कर मतांतरण करने की अनेकों कहानियां सामने आ रही है।
हाल ही में नक्सल प्रभावित अबूझमाड़ के आकाबेड़ा में दस गावों के आदिवासियों ने एकत्र होकर मिशनरियों के खिलाफ बड़े आन्दोलन किये। वहीं प्रदेश के जशपुर इलाके में वहां के दिलीप सिंह जूदेव ने लगातार ‘घर वापसी’ अभियान के द्वारा मिशनरियों के मंसूबों को ध्वस्त किया था। अब राजपरिवार के ही प्रबल प्रताप सिंह जूदेव इस काम को आगे बढ़ा रहे हैं। जूदेव ने 15 हज़ार से अधिक आदिवासियों के पांव धो कर ‘घर वापसी’ करायी।
छत्तीसगढ़ के कैबिनेट मंत्री ने अपनी ही सरकार को कठघरे में खड़ा करते हुए कहा कि वहां रोहिंग्याओं को बसाया जा रहा है। लेकिन या तो कांग्रेस के भीतर की गुटबाजी के कारण सीएम ने उस पर ध्यान नहीं दिया या इससे ऐसा लगा कि जाने-अनजाने उनके राजनीतिक हित ही साधते दिखते हों। ऐसी अनेक घटनाएं लगातार जारी है जिससे अंततः राष्ट्र को कमजोर किये जाने की साजिशों को बल मिलता है। वहीं पड़ोसी झारखंड में तो कथित ‘पत्थलगढ़ी’ के बहाने आदिवासियों में अलगाववाद का बीज बोने की साजिशों का खुलासा तो लगातार होता ही रहा है।
सवाल केवल इसाई मिशनरियों का नहीं बल्कि तमाम ऐसे मत-मज़हबों का है, जिसके कारण इतिहास में भी हमें बार-बार विभाजित,अनेक बार कमजोर होना पड़ा। सद्भावों और शांति की भूमि रहे छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार आते ही साम्प्रदायिक दंगें की शुरुआत हो गयी है। यहां कथित अल्पसंख्यक वास्तव में अल्पसंख्यक ही हैं। प्रदेश में बमुश्किल दो प्रतिशत मुस्लिम जनसंख्या है लेकिन यहां पिछले दिनों ऐसे भीषण दंगे हुए कि छत्तीसगढ़ के इतिहास में पहली बार कर्फ्यू लगाना पड़ा।
प्रदेश का कबीरधाम जिला जो कभी रामराज्य परिषद् का गढ़ और करपात्री महराज की कर्मभूमि होती थी,वहां इस विधानसभा चुनाव में रायपुर से गए मोहम्मद अकबर को वहां के लोगों ने प्रदेश में सबसे अधिक मतों से जीतकर सदन पहुचाया है, और अब उनको शासन के सबसे ताकतवर मंत्री में गिना जाता है।
जिसका परिणाम यह कि शहर में केसरिया ध्वज को रौंदा गया,विरोध करने पर सनातन युवकों की नृशंसता से पिटाई की गयी और बाद में तो खैर समूचे शहर में अभूतपूर्व पुलिसिया आतंक को अंजाम दिया गया। घर में घुस-घुस कर तमाम लोगों को पीटा गया। शासकीय इकतरफा कारवाई तो ऐसी हुई कि भाजपा के स्थानीय सांसद,पूर्व सांसद,प्रदेश मंत्री समेत सभी पर अनेक संगीन धाराओं के तहत मुकदमें किये गए और अनेकों को जेल भेजा गया।
सांसद संतोष पाण्डेय,जो लगातार न केवल संसद के सत्र में उपस्थित रहे हैं बल्कि प्रदेश में भी वे सार्वजनिक कार्यक्रमों में व्यस्त रहे फिर भी उन्हें‘भगोड़ा’ घोषित कर दिया गया। प्रदेश शासन की इस अशिष्टता के खिलाफ लोकसभा ने छत्तीसगढ़ के अधिकारियों के खिलाफ विशेषाधिकार का नोटिस भी जारी किया है।
बहरहाल! ऐसी तमाम घटनाएं वास्तव में हर तरह के बाहरी मतों में मतांतरण को जाने-अनजाने प्रश्रय देती हैं। जहां भी कांग्रेस की सरकारें होती हैं,वहां ऐसी घटनाओं की बाढ़ सी आ जाती हैं। पंजाब भी इस ममाले में एक बड़ा उदाहरण है। कथित लिबरल्स भले ऐसा कहते हों कि किसी का किसी भी मत में अंतरित होने से कुछ नहीं होता, लेकिन तथ्य यह है कि ऐसा हर मतांतरण वास्तव में राष्ट्रांतरण की नींव को मज़बूत करता है। कहां पता था हिन्दुस्थान को कि किसी अरब रेगिस्तान से कुछ कबीले आयेंगे हम आपस में लड़ते रहेंगे और अंततः सदियों लम्बे दुर्दांत आक्रांताओं के हम निरीह शिकार बने रहेंगे। लेकिन ये आये और सहस्त्राब्दि भर का अत्याचार हमें दे कर गए।
ऐसा ही एक और सम्प्रदाय है वाम मत!कहने को भले कम्युनिस्ट, धर्म को अफीम मानते हों लेकिन वास्तव में यह भी एक कट्टर सम्प्रदाय ही है। अन्य कट्टर बाहरी सम्प्रदायों की तरह ही इन्हें भी राष्ट्र नाम के किसी इकाई में भरोसा नहीं है। अन्यों की तरह ही ये भी अपने देवता मार्क्स की स्थापनाओं के लिए खून के किसी भी दरिया को पार कर सकते हैं। अन्यों की तरह इसके उपासक भी अधिक कट्टर रूप में सनातन विरोधी होते हैं,हिंसा को अपने लक्ष्य के लिए ये भी आवश्यक उपकरण मानते हैं, ये भी लोकतंत्र में अनास्था रखने वाले होते हैं। जैसे इस्लाम अपने खलीफा को,चर्च अपने पोप की सत्ता को सर्वोच्च मानते हैं,वैसे ही कम्युनिस्ट आतंकियों के लिए भी उनके आतंक का अंतिम लक्ष्य ऐसी विश्व सत्ता स्थापना है जिसमें कम्युनिज्म सर्वोच्च हो। भले ये अलग दिखते हों, लेकिन ये हैं नहीं। आपने बस्तर से लेकर हर उस जगह जहां नक्सली सक्रिय हैं, वहां उनकी आड़ में मिशनरियों को भी सक्रिय पाया होगा। आपने कभी नहीं सुना होगा कि बस्तर के नक्सलियों ने वहां सक्रिय मिशनरियों को कभी निशाना बनाया,जबकि घोषित रूप से वे धर्म को अफीम मानते हैं।
इन पंक्तियों के लिखे जाने तक बिहार के नक्सल प्रभावित नवादा जिले से मतांतरण को लेकर ऐसी ही खबर आयी है। वहां के रजौली क्षेत्र के हरदिया आदि गांव में पहले ईसाई मिशनरियों के द्वारा प्रार्थना सभा में बुलाया गया और उसके बाद धीरे-धीरे क्षेत्र के कई ग्रामीणों का धर्मांतरण करवा दिया गया। माओ-मिशनरियों-मुस्लिमों का ऐसा गठजोड़ आपको अनेक जगह दिखेगा।
तो उसी रूस वाले मॉडल का यूटोपिया पाले ये सभी काम करते हैं,उस रूस के कम्युनिस्ट मॉडल पर जो पहले ही टुकड़ों में बंट गए। कुछ-कुछ उसी पाकिस्तान की तरह जो 25 वर्ष भी एक नहीं रह पाया। उसी पुराने रूस से ‘रूस-यूक्रेन संघर्ष’ के सन्दर्भ में एक नया सबक भारत के लिए निकला है। सबक यह कि तिरुपति (दक्षिण भारत) से पशुपति (उत्तर में नेपाल) तक जिस लाल गलियारा (रेड कॉरीडोर) का सपना जीते हुए कम्युनिस्ट आतंकी,भारत के मर्म स्थल अबूझमाड़ पर कब्जा जामाए हुए हैं,वह रास्ता आगे बीजिंग तक जाता है। और ईश्वर न करे,जब यह कॉरीडोर कभी भी आंशिक रूप से भी अमल में लाने लायक बने या कभी चीन जैसे दुश्मनों का सामना हमारी धरती पर हमें करना पड़े,तो न केवल यह गलियारा उसके स्वागत में राशन और हथियार के साथ तैयार मिल सकता है बल्कि वे तमाम बाहरी मतों के मतांध भी शायद इसी तरह अपने-अपने उपासना स्थलों से सहायता को बाहर निकल पड़ें जैसे युक्रेन में ओर्थोडोक्स निकला पड़े हैं। तब चीन की मदद को,उस एक नए तरह की ‘सांस्कृतिक क्रांति’ के समय भारत के मुख्यधारा के उस राजनीतिक दल की भूमिका भी असंदिग्ध तो नहीं दिखती जिसने बाकायदा अपनी पार्टी का चीन के सत्ताधारी दल के साथ ‘सांस्कृतिक एमओयू’ किया हुआ है!
सवाल आतंकित होने का तो बिल्कुल नहीं पर सचेत हो जाने का तो है ही। महज़ संयोग तो नहीं हो सकता ये कि कम्युनिस्ट चीन जब अपने अभिनेता का वीडियो शूट कर उसे गलवान का बता भारत के खिलाफ प्रोपगंडा करता है,तब उस झूठे प्रचार को भारत में वायरल करने ट्वीट करने में भारत के भीतर की राजनीतिक ताकतें भी टूट पड़ती हैं। निस्संदेह हम आज अत्यधिक ताकतवर हैं और सावधान भी लेकिन चुनौतियां भी हैं ही।
आज की ‘सकारात्मक गुट निरपेक्षता’ की भारत की नीति सभी गुटों से समान निकटता की है। और निस्संदेह यह सफल है। युक्रेन के बहाने हम ज़रा सावधान तो हो ही सकते हैं। इतिहास,अनुभव,वर्तमान सभी भारत की जनता को संकेत तो दे ही रहा है। अच्छी बात यह है कि हम यह संकेत ग्रहण भी कर रहे हैं। हमें लगातार ऐसे संकेतों को डिकोड करते रहना होगा। हमें धर्म निरपेक्षता और पंथ निरपेक्षता के बीच दिखती बारीक सी रेखा को समझते रहना होगा। यह रेखा बारीक भले हो लेकिन है विशाल, है न ?
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