न्यायिक व्यवस्था का सिद्धांत है कि न्याय सिर्फ किया नहीं जाना चाहिए, बल्कि दिखना चाहिए कि न्याय किया गया। दूसरा, कानून सभी के लिए समान है और कोई भी इससे ऊपर नहीं है। उच्चतम न्यायालय भी बार-बार इसी पर जोर देता है। लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है? पहली नजर में तो यही महसूस होता है कि ये सिद्धांत किताबी हैं। अगर व्यक्ति संपन्न और प्रभावशाली है तो उससे संबंधित मामले को प्राथमिकता मिलती है।
संजय दत्त से लेकर आर्यन खान तक, सिने जगत की हस्तियों के मामले में तो ऐसा ही देखने में आया है। कई राजनेता, उनकी संतानें, उद्योगपति और पत्रकार भी आपराधिक मामलों में अपनी सम्पन्नता और पहुंच की नुमाइश करके आम आदमी की तुलना में कहीं जल्दी न्यायालय से राहत प्राप्त कर चुके हैं। संविधान में भले ही नागरिकों के बीच किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करने का प्रावधान हो, लेकिन आम नागरिक इसके प्रति पूरी तरह आश्वस्त नहीं है। इसीलिए सामान्यतया आम नागरिक कोर्ट-कचहरी के झंझट से बचने का प्रयास करता है, क्योंकि उसे लगता है कि न्याय तो जल्द मिलेगा नहीं और इसमें पैसा और समय जरूर बर्बाद हो जाएगा।
मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमण की हालिया टिप्पणी कुछ हद तक आम नागरिकों की इस तरह की आशंकाओं की पुष्टि करती है। उन्होंने इस बात पर जोर दिया था कि आम आदमी को अदालतों में आने के लिए संकोच नहीं करना चाहिए, क्योंकि न्यायपालिका के प्रति जनता की आस्था लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत है। इसी तरह, न्यायालय ने हाल ही में अपनी एक व्यवस्था में दोहराया है कि देश में कानून सभी के लिए एक समान है और गरीबों तथा अमीरों के लिए अलग-अलग कानून नहीं हो सकते। न्यायालय की यह व्यवस्था सुनने और पढ़ने में बहुत अच्छी लगती है, लेकिन क्या वास्तव में ऐसा होता है? शायद नहीं।
जमानत के मामलों में ही नहीं, बल्कि भांति-भांति के मुकदमों में अक्सर यह देखा गया है कि गरीब व्यक्ति को न्याय के लिए कई-कई बरस ठोकरें खानी पड़ती हैं, जबकि साधन संपन्न और अमीर वर्ग के वादकारियों के मामले में ऐसा नहीं होता।
शीर्ष अदालत में न्यायमूर्ति धनन्जय वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति एम.आर. शाह ने जुलाई, 2021 में एक फैसले में कहा था कि देश में ऐसा नहीं हो सकता कि अमीर, शक्तिशाली और राजनीतिक पहुंच वालों के लिए एक व्यवस्था और संसाधनों से वंचित आम आदमी के लिए दूसरी व्यवस्था हो। न्यायाधीशों ने मध्य प्रदेश में कांग्रेसी नेता दीपक चौरसिया की हत्या के मामले में बसपा विधायक रामबाई के पति गोविंद सिंह की जमानत रद्द करते हुये यह टिप्पणी की थी।
इसके विपरीत, शीर्ष अदालत के ही एक पूर्व न्यायाधीश दीपक गुप्ता का मानना है कि देश के कानून और विधि प्रणाली धनवानों और ताकतवर लोगों का पक्ष लेती है। न्यायमूर्ति गुप्ता मई 2020 में शीर्ष अदालत से सेवानिवृत्त हुए हैं। उन्होंने सेवानिवृत्ति के बाद एक कार्यक्रम में कहा था कि जब कोई धनवान या ताकतवर व्यक्ति सलाखों के पीछे होता है तो वह मुकदमा लंबित होने के दौरान तेजी से सुनवाई का आदेश प्राप्त होने तक बार-बार उच्च अदालतों का दरवाजा खटखटाता रहता है। उनका कहना था कि ऐसा गरीब वादकारियों की कीमत पर होता है, जिनके मुकदमे लटकते रहते हैं, क्योंकि वे ऊपरी अदालत तक नहीं जा सकते।
संजय दत्त: इस संबंध में अयोध्या में 2 दिसंबर, 1992 को विवादित ढांचा ध्वंस के बाद मुंबई में 12 मार्च, 1993 को सिलसिलेवार बम विस्फोट हुए। इन घटनाओं के बाद एके-47 राइफल रखने के आरोप में 19 अप्रैल, 1993 को टाडा के तहत गिरफ्तार किए गए सिने अभिनेता संजय दत्त का ही मामला लें। बंबई उच्च न्यायालय ने एक महीने से भी कम समय के भीतर 5 मई, 1993 को संजय दत्त को अंतरिम जमानत पर रिहा करने का आदेश दे दिया था। लेकिन इसी दौरान बम विस्फोट की घटनाओं की जांच सीबीआई को सौंप दी गई थी। सीबीआई ने इस मामले में आरोपपत्र दाखिल किया और इसी दौरान टाडा अदालत ने 4 जुलाई, 1994 को संजय दत्त की जमानत रद्द कर उसे जेल भेज दिया था।
सलमान खान
अब एक अन्य सुपर स्टार सलमान खान के मामले पर नजर डालें तो पाएंगे कि राजस्थान में काले हिरण के शिकार से लेकर हिट एंड रन की घटना में उनके मुकदमे को प्राथमिकता मिली। काले हिरण के शिकार का मामला तो बार-बार कानूनी दांव-पेचों में उलझता रहा है। सलमान खान पर आरोप था कि सितंबर 1998 में फिल्म ‘हम साथ साथ हैं’ की शूटिंग के दौरान जोधपुर के निकट कांकाणी गांव में उन्होंने सैफ अली खान, तब्बू और सोनाली बेंद्रे के साथ दो काले हिरणों का शिकार किया था। इस संबंध में सलमान के खिलाफ चार मामले दर्ज हुए थे। उन्हें 12 अक्तूबर, 1998 को गिरफ्तार किया गया, लेकिन तत्काल ही जमानत मिल गई। इसके बाद भी उन्हें हिरासत में लिया गया, लेकिन जमानत मिल गई थी। इस मामले में 8 साल बाद पहला फैसला मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट ने 17 फरवरी, 2006 को सुनाया। इसमें सलमान को दोषी ठहराते हुए एक साल की सजा सुनाई गई, लेकिन बाद में उच्च न्यायालय ने उन्हें बरी कर दिया। इसके बाद, एक अन्य फैसला 10 अप्रैल, 2006 को आया, जिसमें अदालत ने वन्यजीव संरक्षण कानून के तहत सलमान को दोषी ठहराते हुए पांच साल कैद और 25 हजार रुपये जुर्माने की सजा सुनाई, जबकि शस्त्र कानून के तहत दर्ज मामले में वह बरी हो गए थे। सलमान से जुड़ा सबसे दिलचस्प मामला 28 सितंबर, 2002 का मुंबई के बांद्रा पश्चिम में हिट एंड रन का है, जिसमें फुटपाथ पर सो रहे पांच लोगों को कुचल दिया गया था। इस मामले में सत्र अदालत ने बॉलीवुड अभिनेता को 6 मई, 2015 को दोषी ठहराते हुए पांच साल कैद और 25,000 रुपये जुर्माना की सजा सुनाई थी।
अदालत के फैसले के बाद सलमान को तत्काल ही हिरासत में ले लिया गया था। लेकिन उसी दिन शाम को आनन-फानन में बंबई उच्च न्यायालय ने उन्हें दो दिन की अंतरिम जमानत दे दी। इस तरह यह अभिनेता जेल जाने से बच गया था। उच्च न्यायालय ने सत्र अदालत के 6 मई, 2015 के फैसले के खिलाफ दायर अपील पर तत्परता से सुनवाई की और 10 दिसंबर, 2015 को उन्हें इस मामले में बरी कर दिया। न्यायमूर्ति ए.आर. जोशी ने अपने फैसले में कहा कि सलमान खान को दोषी नहीं ठहराया जा सकता, क्योंकि अभियोजन इन आरोपों को साबित करने में विफल रहा है। हिट एंड रन प्रकरण में सत्र अदालत द्वारा दोषी ठहराये गए सलमान खान को उसी दिन उच्च न्यायालय से अंतरिम राहत मिलना धनवान और प्रभावशाली लोगों को अदालत से जल्दी राहत दिलाने की धारणा को बल प्रदान करता है। इस मामले में तो एक तथ्य यह भी है कि सत्र अदालत की सजा के खिलाफ सलमान की अपील पर उच्च न्यायालय में मात्र सात महीने के भीतर सुनवाई पूरी हो गई थी। उच्च न्यायालय ने पाया कि घटना के समय सलमान खान न तो शराब के नशे में थे और न ही वह गाड़ी चला रहे थे। यहां सवाल यह है कि आखिर गाड़ी कौन चला रहा था? इस मामले में प्राथमिकी दर्ज कराने वाले सिपाही तथा मुख्य गवाह रविन्द्र पाटिल और हादसे के शिकार लोगों के बारे में सवाल तो उठे, लेकिन जवाब नहीं मिले।
आर्यन खान
अब अभिनेता शाहरुख खान के पुत्र आर्यन खान का मामला लें। आर्यन को एनसीबी ने क्रूज ड्रग्स मामले में 2 अक्तूबर की रात को हिरासत में लिया था। मादक पदार्थों के गोरखधंधे की चपेट में आए आर्यन को छुड़ाने के लिए पिता शाहरुख खान ने देश के जाने-माने वकीलों की सेवाएं लीं। इसका लाभ यह हुआ कि 20 अक्तूबर को विशेष अदालत से जमानत पाने में असफल रहे आर्यन खान के वकीलों की टीम ने तत्काल ही उच्च न्यायालय में याचिका दायर की, जिस पर तत्परता से सुनवाई हुई और 14 शर्तों पर उसे 28 अक्तूबर को जमानत मिल गई। आर्यन की गिरफ्तारी के साथ ही महाराष्ट्र की गठबंधन सरकार के एक मंत्री नवाब मलिक से लेकर तमाम चैनलों में ऐसी बेचैनी फैली मानो एनसीबी ने किसी निर्दोष को जान-बूझकर गिरफ्तार कर लिया है। कुछ मीडिया संस्थानों ने अदालत की हर क्षण की कार्रवाई का सीधा प्रसारण और प्रकाशन करने में भी संकोच नहीं दिखाया। स्थिति का अनुमान इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि उच्च न्यायालय से जमानत का एक पंक्ति का आदेश आने के बाद चैनलों ने ऐसी व्याख्या की, जैसे पूरा आदेश ही उनके हाथ में आ गया है। हकीकत यह है कि आर्यन की जमानत की शर्तें ही 29 अक्तूबर को मुहैया कराई गई थीं, जबकि विस्तृत आदेश अभी तक उपलब्ध नहीं है। अब यह फैसला तो आगे चलकर होगा कि आर्यन खान को विशेष अदालत आरोप मुक्त करती है या उन पर पूरी तरह से मुकदमा चलेगा।
इस मामले में आर्यन को अरबाज मर्चेंट और मुनमुन धामेचा के साथ क्रूज से हिरासत में लिया गया था। इन तीनों को विशेष अदालत ने जमानत देने से इनकार कर दिया। लेकिन जब आर्यन ने उच्च न्यायालय में अपील दायर की तो इस तरह के तमाम मामलों की तुलना में उनकी याचिका को तरजीह दी गई और न्यायमूर्ति नितिन साम्ब्रे ने इस पर सुनवाई की। हालांकि, दो अधिवक्ताओं ने आर्यन की अपील को वरीयता दिए जाने पर न्यायमूर्ति साम्ब्रे की एकल पीठ के समक्ष अपनी शिकायत भी दर्ज कराई। इस पर न्यायमूर्ति साम्ब्रे की टिप्पणी थी कि यह शिकायत रुचिपूर्ण नहीं है। यह सोचने वाली बात है कि क्या कोई शिकायत भी रुचिकर हो सकती है?
भारती सिंह
हास्य कलाकार भारती सिंह और उनके पति हर्ष लिंबाचिया का मामला तो और भी दिलचस्प है। इस दंपती को तो दो दिन में ही अदालत से जमानत मिल गई थी। दोनों को एनसीबी ने 21 नवंबर, 2020 को गिरफ्तार किया था। आरोप था कि इनके घर और कार्यालय से 86.5 ग्राम गांजा बरामद हुआ था। अदालत ने दंपती को 4 दिसंबर तक न्यायिक हिरासत में दे दिया था। इसी बीच भारती सिंह और हर्ष ने जमानत अर्जी दायर की और विशेष अदालत ने 23 नवंबर को दोनों को जमानत पर रिहा कर दिया। अदालत की राय थी कि एनडीपीएस कानून के तहत यह मात्रा कम थी।
रिया चक्रवर्ती

बॉलीवुड के ही उभरते अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की 14 जून, 2020 को रहस्यमय परिस्थितियों में हुई मौत को लेकर भी कई सवाल उठे थे। इन्हीं सवालों के बीच शीर्ष अदालत ने इस मामले की जांच सीबीआई को सौंप दी थी। इस मामले में मादक पदार्थों के सेवन और आपूर्ति जैसे पहलुओं की जांच के लिए एनसीबी की भी मदद ली गई। एनसीबी ने रिया चक्रवती को मुंबई में सक्रिय ड्रग सिंडिकेट का हिस्सा होने के आरोप में 8 सितंबर, 2020 को गिरफ्तार किया, लेकिन उसे निचली अदालत से जमानत नहीं मिली। हालांकि, बाद में बंबई उच्च न्यायालय ने एनसीबी की सारी दलीलों को अस्वीकार करते हुए रिया चक्रवर्ती को 8 अक्तूबर, 2020 का जमानत दे दी। लेकिन न्यायालय ने 4 सितंबर को गिरफ्तार रिया के भाई शौविक और एक कथित माल पहुंचाने वाले (पेडलर) अब्दुल बासित परिहार को जमानत देने से इनकार कर दिया।
अरमान कोहली
इससे कुछ अलग मामला एक और अभिनेता अरमान कोहली का है, जो इतने खुशनसीब नहीं थे। अरमान कोहली को एनसीबी ने 28 अगस्त, 2021 को गिरफ्तार किया था। उसके पास से 1.2 ग्राम कोकीन मिली थी, जबकि इससे ज्यादा मात्रा में मादक पदार्थ इस मामले के सह-आरोपी से मिला था। अरमान कोहली की गिरफ्तारी पर बॉलीवुड से लेकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तक में कहीं कोई हंगामा नजर नहीं आया। स्थिति यह है कि विशेष अदालत ने 14 अक्तूबर को कोहली की जमानत याचिका रद्द कर दी और उसकी अपील पर अभी तक उच्च न्यायालय में भी सुनवाई नहीं हुई है।
पंजाब में आतंकवाद से निपटने के लिए बनाए गए कठोर कानून टाडा में गिरफ्तार किसी भी आरोपी के लिए जमानत पाना आसान नहीं था। इस वजह से अनेक युवक इस कानून के तहत पंजाब की जेलों में बंद थे। टाडा मामलों के लिए गठित विशेष अदालत के आदेश के खिलाफ सीधे उच्चतम न्यायालय में ही अपील की जा सकती थी। संजय दत्त के मामले में भी ऐसा ही हुआ था, क्योंकि विशेष अदालत ने उनकी जमानत रद्द कर दी थी। उनकी जमानत का मामला शीर्ष अदालत में आने पर न्यायमूर्ति बी.पी. जीवन रेड्डी और न्यायमूर्ति एन.पी. सिंह की पीठ ने टाडा कानून-1987 से जुड़े कतिपय सवाल 18 अगस्त, 1994 को संविधान पीठ के पास भेजे थे। इन सवालों पर विचार के लिए तत्काल न्यायमूर्ति ए.एम. अहमदी की अध्यक्षता में पांच सदस्यीय संविधान पीठ का गठन हुआ। इस संविधान पीठ में न्यायमूर्ति अहमदी (बाद में प्रधान न्यायाधीश बने), न्यायमूर्ति जगदीश शरण वर्मा (बाद में प्रधान न्यायाधीश बने), न्यायमूर्ति पी.बी. सावंत, न्यायमूर्ति बी.पी. जीवन रेड्डी और न्यायमूर्ति एन.पी. सिंह शामिल थे। पीठ की ओर से न्यायमूर्ति वर्मा ने 9 सितंबर, 1994 यानी एक महीने से भी कम समय के भीतर टाडा कानून के तहत जमानत से संबंधित बिंदुओं पर विचार करके अपनी सुविचारित व्यवस्था दे दी थी।
संजय दत्त का मामला सामने आने पर सर्वोच्च न्यायालय ने 9 सितंबर, 1994 को टाडा के तहत आरोपियों की जमानत पर रिहाई के लिए विस्तृत दिशानिर्देश प्रतिपादित कर दिए थे। इस व्यवस्था के बाद ही 16 अक्तूबर, 1995 को उच्चतम न्यायालय की एक अन्य पीठ ने संजय दत्त को पुणे की यरवदा जेल से जमानत पर रिहा करने का आदेश दिया था। हालांकि, टाडा अदालत ने बाद में 28 नवंबर, 2006 को अपने फैसले में संजय दत्त को टाडा के तहत दर्ज आरोप से बरी कर दिया था, लेकिन उन्हें शस्त्र कानून के तहत दोषी ठहराया था। अंतत: उच्चतम न्यायालय ने 21 मार्च, 2013 को संजय दत्त की पांच साल की कैद की सजा बरकरार रखते हुए उन्हें चार सप्ताह के भीतर समर्पण करने का आदेश दिया था।
यहां यह उल्लेख करना अनुचित नहीं होगा कि नवंबर 2020 में रिपब्लिक टीवी के मुख्य संपादक अर्णब गोस्वामी की जमानत याचिका को उच्चतम न्यायालय में प्राथमिकता पर सूचीबद्ध किए जाने पर भी सवाल उठे थे। उच्चतम न्यायालय बार एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष और वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे ने शीर्ष अदालत के सेक्रेटरी जनरल को कड़े शब्दों में पत्र लिखकर अर्णब की जमानत याचिका सुनवाई के लिए अगले ही दिन सूचीबद्ध करने पर सवाल उठाए थे। दुष्यंत दवे ने यह लिखने में भी संकोच नहीं किया था कि पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम जैसे प्रतिष्ठित वकील की याचिका भी तत्काल सूचीबद्ध नहीं हो सकी थी और उन्हें लंबे समय तक जेल में रहना पड़ा था।
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