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हाल ही में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत ने संविधान सभा और डॉक्टर भीमराव आंबेडकर की भूमिका पर नई रोशनी डाली। उन्होंने बताया कि बाबासाहेब ने स्वातंत्र्य, समता, बंधुता की तत्वत्रयी की प्रेरणा फ्रांसीसी राज्य क्रांति के बजाय तथागत बुद्ध के विचार से ली थी। उन्होंने संविधान सभा में कहा था कि ''हम व्यवस्था में तो प्रावधान कर रहे हैं लेकिन अगर सामाजिक समता नहीं लाई गई, हमने बंधुता के आधार पर एक-दूसरे से बराबरी का, समानता का व्यवहार करना नहीं सीखा तो यह विषमता जायेगी क्या? किसी शत्रु ने अपनी ताकत पर भारत को जीता, ऐसा इतिहास नहीं है। हमारे अपने भेदों के कारण, आपसी झगड़ों के कारण हमारी फूट के आधार पर वह विजयी हुआ। इस इतिहास की पुनरावृत्ति न हो, इसकी चिन्ता हमको करनी पडे़गी।'' डॉ. आंबेडकर ने संविधान सभा के भाषण में संकेत रूप में यह बात कही थी।
भारतीय संविधान में अस्पृश्यता विरोधी कानून है। आज छुआछूत दंडनीय अपराध है, परंतु कानून से हृदय परिवर्तन नहीं होता, और जब तक यह नहीं होता, तब तक भेदभाव की दीवारें नहीं हटेंगी। आखिर यह अनायास नहीं है कि अपनी स्थापना के दिन से ही संघ के सभी स्वयंसेवकों ने एकमात्र हिन्दू होने के नाते व्यवहार करना सीखा। 'राष्ट्रजीवन की दिशा' पुस्तक में पं. दीनदयाल उपाध्याय ने कहा है कि यही धर्म है कि हम आपस में अनुकूल बनें। वही व्यवहार, आचरण, चेष्टा, प्रयत्न, चिंतन, व्यवस्था श्रेष्ठ है जो परस्परानुकूल हो।
समता ऊपरी एवं भौतिक समानता का शब्द है, जबकि समरसता आन्तरिक घनिष्ठता का परिचायक है। समता व समरसता न होने से ही विगत इतिहास में हिंदू समाज को पराजय का मुंह देखना पड़ा। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि विशेषकर हिन्दू समाज जाति-बिरादरी, ऊंच-नीच और क्षेत्रीयता में विभाजित रहा। आज भी समाज में अगड़े-पिछड़े के नाम पर भेद खड़े हो रहे हैं, ऐसे भेदों को समाप्त करने के लिए समरसता एक आवश्यक तत्व है। शरीर का उदाहरण इसका प्रत्यक्ष साक्षी है। आखिर सभी अंगों में सामंजस्य और समरसता रहने पर ही शरीर स्वस्थ रहता है। सो, राष्ट्र की एकता के लिए भी सम्पूर्ण समाज का सुसंगठित होना परमावश्यक है। समाज से अस्पृश्यता या छुआछूत का भाव समूल रूप से नष्ट होना चाहिए।
संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर उपाख्य श्रीगुरुजी ने हिन्दू समाज की व्यापक एकता की आवश्यकता को पहचाना था। इसी को ध्यान में रखते हुए उन्होंने कहा था कि कितनी भी कठिनाइयों से गुजरना पड़े, कितने भी कष्ट उठाने पड़े़ें, हमें वनवासी अंचलों में जाकर कार्य करना पडे़गा। शेष हिन्दू समाज का कार्य है कि वह उनके बीच जाए, उन्हें शिक्षित बनाए और उनके सांस्कृतिक स्तर तथा जीवन-स्थितियों में उत्कर्ष लाकर अपनी भूल का प्रायश्चित करेे। श्रीगुरुजी के व्यक्तित्व तथा सोच पर स्वामी विवेकानंद के विचारों का गहरा प्रभाव था। यही कारण है कि वे स्वामी विवेकानन्द के 'दरिद्र नारायण' की सेवा के मार्ग पर चलने वाले एक साधक बने थे। वे कहते हैं, ''जितने दीन-दुखी मिलें वे सब भगवान के स्वरूप हैं और इस प्रकार भगवान ने अपनी सेवा का अवसर हमें प्रदान किया है, ऐसा समझें और इस भाव से उनकी प्रत्यक्ष सेवा करने के लिए उद्यत हों।''
उल्लेखनीय है कि संघ किसी जाति को मान्यता नहीं देता। उसके समक्ष प्रत्येक व्यक्ति हिन्दू है। जबकि इसके विपरीत राष्ट्रीय एकात्मता की बातें करने वालों ने ही अल्पसंख्यकों व बहुसंख्यकों, अनुसूचित जनजातियों, अनुसूचित जातियों तथा पाड़ी जातियों व अन्य वन्य जातियों, पिछडे़ वर्गों में समाज को विभक्त कर रखा है। राष्ट्रीय समस्याओं के प्रति यह एक सर्वाधिक अराष्ट्रीय दृष्टिकोण है। कन्याकुमारी में स्वामी विवेकानंद शिला स्मारक के प्रेरणापुरुष और सूत्रधार श्री एकनाथ रानाडे ने दिल्ली में एक साक्षात्कार में साफ कहा था कि ''सामाजिक प्रयत्नों के द्वारा ही हमें राष्ट्रनिर्माण का प्रयत्न करना चाहिए। सामाजिक कार्य और राजनीति को एक दूसरे से अलग ही रहना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि समाज भी सत्ता-राजनीति का उपकरण बन जाए।'' श्रीगुरुजी कहा करते थे कि प्राचीनकाल में हमने एक ऐसी व्यवस्था की थी जिसमें अलग-अलग कामों का विभाजन था। वह व्यवस्था आक्रमण के काल में उपयोगी साबित हुई। लेकिन कालक्रम से उसमें दोष आ गये। आज तो अलग-अलग वर्ण नहीं हैं। सबका एक ही वर्ण है। वे कहा करते थे कि ऊंच-नीच समाप्त होनी चाहिए। ये श्रीगुरुजी ही थे जिन्होंने समस्त साधु-समाज को एकत्रित किया। 1969 में उडुपी में हुए विश्व हिन्दू परिषद सम्मेलन में हिन्दू धर्म, हिन्दू समाज की दृष्टि से एक क्रान्तिकारी उद्घोषणा हुई। सभी शंकराचार्यों ने एकमत से कहा कि अस्पृश्यता हमारे धर्म का अंग नहीं है। 'हिन्दव: सहोदरा: सर्वे'-सारे हिन्दू भाई हैं, सहोदर हंै।
अगर इतिहास में देखें तो कांग्रेस के शिमला सम्मेलन (29 जून, 1945) के अवसर पर 'सवर्ण हिन्दू' (कॉस्ट हिंदू) तथा 'परिगणित जाति' शब्दों का प्रयोग कर हरिजनों को हिन्दुओं से अलग करने का प्रयास किया गया। 1911 तक जनगणना में सिख हिन्दुओं के अन्तर्गत ही गिने जाते थे। जबकि 1920 से सिखों में भी अलगाव का भाव निर्मित किया गया। उल्लेखनीय है कि इसके पहले सिखों और वैष्णवों के गुरुद्वारे एक ही होते थे। पर अकाली आंदोलन के परिणामस्वरूप वैष्णव महंतों को गुरुद्वारे से निकाल बाहर कर दिया गया।
संघ विचारक और भारतीय मजदूर संगठन के प्रणेता दत्तोपंत ठेंगड़ी का मानना था कि शताब्दियों की गुलामी के परिणामस्वरूप हममें कुछ विकृतियां, ऊंच-नीच के भेद, आर्थिक विषमता, पिछड़ापन, जातिवाद आदि उत्पन्न हुए होंगे। परन्तु इन्हें अपना हथियार बनाकर कोई विदेशी हमारे स्वत्व का अपहरण करना चाहेगा तो हम उसे सहन नहीं करेंगे, उसकी यह आकांक्षा हम मिट्टी में मिला देंगे। अपने लाभ मात्र के लिये या सामाजिक दृष्टि से अवनति से निकलने के लिये हम विदेशियों के हस्तक बनने वाले नहीं हैं।
हमें अपने में उत्पन्न होने वाले जयचन्दों से सावधान रहना होगा। संघ के तृतीय सरसंघचालक बालासाहब देवरस के शब्दों में, चातुर्वर्ण्य व्यवस्था ने सबसे बड़ी समस्या निर्मित की है, अस्पृश्यता और सामाजिक विषमता की। संघ के कार्यक्रमों में स्पृश्य और अस्पृश्य का भेद नहीं रहता। लेकिन यह दो-चार हजार साल पुरानी समस्या केवल आक्रोश प्रकट करने या कोई स्टंट करने से हल नहीं होगी। संघ की पद्धति ज्यादा परिणामकारक है, ऐसा मुझे लगता है। फिर भी मैं मानता हूं कि परिवर्तन की गति तेज होनी चाहिए। मेरी मान्यता है कि अस्पृश्य बस्तियों में संघ-शाखाएं बढ़ें तो स्वाभाविक रूप से अपस्पृश्यता निवारण होगा। जबकि संघ के चतुर्थ सरसंघचालक प्रोफेसर राजेन्द्र सिंह उपाख्य रज्जूभैया (1998) ने इस संदर्भ में कहा था कि किसी की ज्यादा खुशामद नहीं होगी-किसी को 'दामाद' नहीं बनाया जायेगा। सभी भाई-भाई हैं। 'जस्टिस टू ऑल एंड पेम्परिंग ऑफ नन'।
डॉ. आंबेडकर का अपनी मृत्यु के कुछ ही दिन पूर्व काठमांडू के बौद्ध सम्मेलन में दिया गया भाषण सभी राष्ट्रभक्तों के लिए स्मरणीय है, जिसमें उनकी श्रद्धा, मान्यताएं, वेदनाएं, स्वप्न, आदर्श सब कुछ प्रकट होता है। विगत कुछ शताब्दियों की कुरीतियों-रूढि़यों के कारण पिछड़े बंधुओं पर हुए अन्याय का निराकरण करने के लिए समाज को आगे आना होगा, उसके लिए आंदोलन छेड़ने होंगे, यह उनका आग्रह था, किन्तु वह एक राष्ट्रीयता की कीमत पर नहीं। – राजेन्द्र चड्डा
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