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भारतीय जनता पार्टी और रा. स्व. संघ को लेकर एक आम भारतीय में हमेशा भ्रम फैलाए जाते रहे हैं। लेकिन आज निस्संदेह भारतीय राजनीति अपने अभूतपूर्व दौर में है। त्रिपुरा में कभी 50 सीटों पर चुनाव लड़कर 49 सीटों पर जमानत जब्त करवाने वाली भारतीय जनता पार्टी ने 2018 के विधानसभा चुनाव में वामपंथ के इस गढ़ को ढहा दिया और कांग्रेस को शून्य पर समेट दिया। क्या इतना कुछ यूं ही हो गया? जिस राज्य में संघ और भाजपा के कार्यकर्ता हमेशा वाममोर्चा के निशाने पर रहे, वहां सफलता की ऐसी इबारत लिख पाना बेशक आसान नहीं है। 2018 के विधानसभा चुनाव में त्रिपुरा के अलावा नागालैंड और मेघालय में भी राजग का ही जादू चला।
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार को पिछले चार साल में घेरने के प्रयास कम नहीं हुए हैं। हर फैसले को शक की नजरों से देखा गया। लेकिन लोकतंत्र में जनता का निर्णय ही अंतिम व मान्य होता है। क्या ऐसे में महज विरोध के लिए विरोध का झंडा तानने वालों को एक बार आत्मावलोकन नहीं करना चाहिए? त्रिपुरा में भाजपा की ऐतिहासिक जीत के बाद ही हिंसा की खबरें आईं। उग्र भीड़ ने कई दुकानों में तोड़फोड़ और आगजनी की। वामपंथी स्मारकों पर बुलडोजर चलाए जाने की भी खबरें हैं। रूसी क्रांति के नायक लेनिन की मूर्ति को ध्वस्त कर दिया गया। हिंसा कैसी भी हो, उसे उचित नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन ऐसी घटनाओं से साजिश की बू जरूर आती है।
यह किसकी साजिश है, यह जांच का विषय है, मगर हर हिंसा के पीछे राष्ट्रवादी दल के कार्यकर्ताओं पर उंगली उठाने वाले कथित बुद्धिजीवियों को तब क्या हो जाता है, जब केरल और त्रिपुरा में भाजपा के कार्यकर्ताओं की दिनदहाड़े हत्या कर दी जाती है। त्रिपुरा में वामपंथी सरकार के दौरान भाजपा के 11 कार्यकताअरं को मौत की नींद सुला दिया गया। कर्नाटक में कांग्रेस के शासन में 24 भाजपा कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी गई। तब इनके विरोध का स्वर अवरुद्ध क्यों हो जाता है?
दरअसल देशभर में भाजपा और संघ के बढ़ते प्रभाव ने इन तथाकथित सेकुलरों को विचलित कर दिया है। ये सभी संघ और भाजपा के नाम पर जनता को डराते रहे हैं और खुद भी 'फियर साइकोसिस' के शिकार रहे हैं। हर घटना के पीछे इन्हें संघ और भाजपा के कार्यकर्ता ही नजर आते हैं इसलिए जांच के पहले ही ये निर्णय पर पहुंच जाते हैं। ये भूल जाते हैं कि त्रिपुरा, केरल और पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा के कैडरों ने कैसे-कैसे खूनी खेल खेले हैं। इनके मानस में संघ का ऐसा डर पैठा है कि वे चाहकर भी उससे उबर नहीं पा रहे। यही हाल मीडिया के एक खास वर्ग का भी है। यहां संघ से जुड़ी हाल ही की एक घटना का संदर्भ देखा जा सकता है। संघ के सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत की 'संघ में सेना जैसे अनुशासन' की बात को जिस तरह से मीडिया के एक वर्ग ने 'सेना के अपमान' से जोड़कर पेश किया और उस पर पार्टियों ने बयानबाजी शुरू की, उससे तो यही लगा कि देश में लोकतंत्र की आजादी के नाम पर जहां सेकुलर मीडिया गैर जिम्मेदारी की हद तक स्वतंत्र है, वहीं कुछ नेता अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं, भले ही वह कोई संवेदनशील मुद्दा क्यों न हो।
बिहार के मुजफ्फरपुर में एक कार्यक्रम के दौरान श्री भागवत ने कहा था, ''यह हमारी क्षमता है, पर हम सैन्य संगठन नहीं हैं। कभी देश को जरूरत हो और संविधान इजाजत दे तो स्वयंसेवक मोर्चा संभाल लेंगे। देश की विपदा के वक्त स्वयंसेवक हर तरह से मदद देते हैं।'' उन्होंने भारत-चीन युद्ध की चर्चा करते हुए कहा कि जब चीन ने हमला किया था तो उस समय संघ के स्वयंसेवक सीमा पर सेना के आने तक डटे रहे थे। दरअसल संघ के प्रति दुर्भावना फैलाने का सिलसिला कोई नया नहीं है। आजादी के बाद देश में सबसे लंबे समय तक शासन करने वाली पार्टी कांग्रेस ने संघ के खिलाफ कुप्रचार के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी और आज भी अपना पूरा दम लगाकर इसकी पुरजोर कोशिशें कर रही है, मगर परिणाम सामने है।
आज देश की सबसे पुरानी पार्टी के खेवनहार और उनके सलाहकारों की फौज के पास संघ विरोध और मोदी विरोध के अलावा दूसरा कोई मुद्दा नहीं है। सच तो यह है कि देश में लोकतंत्र और सेकुलर जमात की अगुआई का श्रेय लेने वाली पार्टी के अंदर कभी लोकतंत्र नहीं था, यह जगजाहिर है। युवराज की ताजपोशी ने इस बात को एक बार फिर साबित कर दिया। ऐसी पार्टी और ऐसे खेवनहारों की नजर में लोकतंत्र की परिभाषा क्या हो सकती है, इसे बताने-समझाने की जरूरत नहीं है।
क्या यह ऐतिहासिक तथ्य नहीं है कि चीन के हमले के वक्त स्वयंसेवक सेना के मोर्चा संभालने तक डटे रहे थे? क्या इस बात से इनकार किया जा सकता है कि देश के जितने भी वनवासी व जनजाति बहुल क्षेत्र हैं, वहां वर्षों से संघ के आनुषंगिक संगठन मानवसेवा के भाव के साथ लगे हुए हैं।
किसी संस्था का राष्ट्रोत्थान की बात करना, अपनी विचारधारा की बात करना और अपने स्वयंसेवकों पर भरोसा जताना गुनाह तो नहीं है? यदि विरोधियों को हर सही मुद्दे को गलत तरीके से पेश कर विरोध करने का हक है तो वही हक अपनी बात रखने वालों को भी है।
कांग्रेस सहित कुछ दलों को लगता है कि विचारधारा की राजनीति से कुछ हासिल नहीं होगा, ये बातें अवसरवादी राजनीति के दौर में बेमानी हैं। इसलिए वे इस सत्य को भी स्वीकारना नहीं चाहते कि विचारधारा की राजनीति करने वाली भाजपा आज देश के अधिकांश राज्यों (21 राज्यों में भाजपा और उसके सहयोगी दलों की सरकार) में सत्ता में है।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनहित में सत्ता की आलोचना व विरोध में कोई बुराई नहीं है बल्कि यही लोकतंत्र की जड़ों को पुष्ट ही करता है, मगर सही कार्यों पर भी संदेह और कुतर्क करना अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने से ज्यादा कुछ नहीं है।
सेकुलर मुखौटा पहने कांग्रेस के शासनकाल में 1984 में सिखों की जो दुर्दशा हुई, वह किसी से छिपी नहीं है। घोटालों और दलों को तोड़ने-जोड़ने से लेकर लोकतंत्र को पंगु बनाने का जो खेल कांग्रेस ने खेला, वैसा इस देश में किसी ने भी नहीं किया। भाजपा के प्रति लोगों में भय भरने वालों ने देख लिया कि उनकी चालबाजियों का किसी पर भी कोई असर नहीं हुआ। लोगों ने झूठों को तरजीह नहीं दी और उन्हें सिरे से नकार दिया। त्रिपुरा में भी वही हुआ।
त्रिपुरा में करारी शिकस्त के बाद अपनी झेंप मिटाने की वामपंथी नेताओं की ये चालबाजियां हमेशा की तरह फिर नाकाम साबित होंगी, क्योंकि देश की जनता सब जानती है। – मनोरंजना गुप्ता
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