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कुरान में तीन तलाक को नाजायज माना गया है। कानून में भी मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों पर बड़ी सकारात्मक सोच रखी गई है। किंतु भारत के मुल्ला-मौलवी शरिया कानून की आड़ में अपनी मनमानी व्याख्या से तीन तलाक के जरिए मुस्लिम समाज में असहज हालात पैदा कर रहे हैं। मध्यकालीन सोच वाला मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड आज भी तीन तलाक को जायज ठहराने का पैरोकार है। ऐसे में महिलाओं की त्रासदी का औजार बने 'तीन तलाक' के विरुद्ध खुद मुस्लिम समाज की महिलाएं खुलकर आ रहीं सामने
शाहिदा कुरैशी
शरिया कानून का सीधा संबंध पवित्र कुरान और इस्लाम के पैगम्बर हजरत मोहम्मद द्वारा दी गई हिदायतों से है जिसे साधारण भाषा में सुन्नत कहा जाता है। जहां तक इस्लामी कानून को मानने का सवाल है तो वह सिर्फ इस्लाम को मानने वाले नागरिकांे तक ही सीमित है। मगर शरिया कानून में कई विषयों पर प्रकाश नहीं डाला गया है। अंग्रेजांे ने भारत के मुसलमानों के लिये अपनी सुविधा से कुछ विषय निर्धारित किये जिनमें शरिया कानून लागू किया गया और कुछ विषयों को छोड़ दिया गया, जिन्हें भारत के मुसलमानों को एक साजिश के तहत बताया भी न गया। इनमंे शामिल हैं आपराधिक इस्लामिक कानून, आर्थिक इस्लामिक कानून, सामाजिक संबंध से जुड़े शरिया कानून और मुल्क से मुहब्बत और दूसरे मत-पंथों की इज्जत करने के विचारों वाले शरिया कानून यानी कुल मिलाकर तलाक, बहुविवाह, संपत्ति के बंटवारे, हिबा यानी दान, मेहर से संबंध रखने वाले शरिया कानूनों की ही व्याख्या मुख्य इस्लामिक कानून के रूप में की गई और बड़े साजिशाना तरीके से इस बात को भारत के मुसलमानों से छिपाते हुये उन्हें और पूरी दुनिया को सिक्के का सिर्फ एक पहलू ही बताया गया। इससे गैर-मुसलमानों में यह बात स्वत: घर कर गई कि मुसलमानों को भारत में बहुविवाह और आसान तलाक जैसे मामलों पर रियायत दी गई है। एक सोची-समझी साजिश के तहत मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जैसी स्वयंभू संस्थाओं के माध्यम से शरिया कानून की अपने तरीके से व्याख्या कर समाज में दरार डालने का काम किया गया।
अगर एक जानकारी को यहां साझा करूं तो उससे इन तथाकथित कट्टरपंथी उलेमाओं के होश फाख्ता हो जायेंगे। वह जिस शरिया कानून को भारत में लागू करने की बात करते हैं, उसे पाकिस्तान जैसे मुस्लिम देश ने भी बहुत बाद में, 70 के दशक में कानून बनाकर लागू किया था और वह भी अर्धसत्य के रूप में यानी वहां भी शरिया कानून के वैयक्तिक भाग पर ही सहमति है, ना कि आपराधिक, आर्थिक और अन्य मुद्दों पर। ऐसे हालात में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और अन्य कट्टर मौलवियों का शरियत जैसी व्यवस्था पर गलत राय देना अखरता है। अगर वे वास्तव मंे मुस्लिम समाज का हित सोचते हैं तो उन्हें समाज को सही बात बिना अपनी व्यक्तिगत राय के पवित्र कुरान और हदीस की रोशनी में बतानी चााहिये, समाज में दूरी पैदा करने वाले संदेहास्पद बयान नहीं थोपने चाहिये।
यह कहता है फिक्हा
फिक्हा का अर्थ इस्लामी विधिशास्त्र से लगाया जाता है यानी शरिया कानून की सूक्ष्म व्याख्या, जो किसी एक बिन्दु पर हो, फिक्हा में शामिल की जाती है। भारत के मुस्लिम विद्वान फिक्हा पर नहीं बोलते बल्कि अंग्रेजों द्वारा चलायी गयी मुस्लिम संस्थाओं के रटे-रटाए बिन्दुओं पर ही अपनी जबान खोलते दिखते हैं। फिक्हा में साफतौर से इस बात की ताकीद की गई है कि मूल तलाक के प्रावधान को उसके शुद्ध रूप में प्रस्तुत किया जाए। तीन तलाक के मुद्दे पर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और तथाकथित मुस्लिम विद्वानों के बयानों से स्पष्ट है कि वे या तो फिक्हा को जानते नहीं हैं या जान-बूझकर मुस्मिल समाज को सही दिशा नहीं दे रहे हैं। वे कहीं न कहीं भारत के मुस्लिम समाज पर तालिबानी सोच थोपने की कोशिश कर रहे हैं जिससे मुसलमानों में तो संघर्ष छिड़े ही, साथ ही अन्य मत-पंथों के लोगों से भी मुस्लिम समाज की दूरी बढ़ जाए।
इस्लाम से पूर्व महिला और तलाक
इस बात को स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं है कि इस्लाम से पूर्व का अरब एक असभ्य और दुर्दांत माहौल वाला समाज था, जहां कायदे-कानून जैसा कुछ न था। महिलाओं को समाज के सबसे निचले पायदान पर रखा जाता था और तलाक का यह हाल था कि कभी भी, किसी भी हालात में तलाक दे दिया जाता था। इस पर कोई नियंत्रण नही था। बच्ची पैदा हाती तो उसे जिंदा दफन कर दिया जाता था या तम्बाकू का पानी पिलाकर उसे मार दिया जाता था।
इस्लाम और तलाक
यह बात सत्य है कि आज इस्लाम में तलाक को सबसे बुरी चीजों में समझा जाता है और इसे बहुत मजबूरी में प्रयोग में लिया जा सकता है। जिस पर पवित्र कुरान ने बहुत बारीकी से प्रकाश डाला है। पवित्र कुरान की सूरा बकरा में इसे समझाया गया है, बाद में इस्लाम के चारों सुन्नी इमामों ने इसकी व्याख्या की है तथा शिया इमामों ने भी अपने तरीके से इसे प्रकाशित किया है। कुरान में एक साथ तीन तलाक का कहीं वर्णन नहीं आया है, मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड इस संदर्भ में भ्रमित करने की नाकाम कोशिश कर रहा है।
आज जब यह बात आमतौर पर प्रचारित हो रही है कि मुस्लिम महिलाओं को तीन बार तलाक, तलाक, तलाक कहकर अपने जीवन से निकाला जा सकता है तब यह बात गौर करने की है कि शरिया कानून के मुख्य आधार यानी पवित्र कुरान में यह बात कहां पर कही गई है, इसका अध्ययन करना पड़ेगा, क्योंकि सच्चाई यह है कि आज शरिया कानून, जो कि पूर्व में वर्णित हो चुका है कि अंग्रेजों ने सोच-समझकर उसे अपने हिसाब से प्रस्तुत किया है, के मुख्य आधार यानी पवित्र कुरान की कही बात नहीं है। पूरे कुरान शरीफ में कहीं भी महिलाओं को भोग की वस्तु नहीं माना गया और कुदरत के जोडे़ को तोड़ने की सिफारिश को आसान नहीं बनाया है। जब हम कुरान देखते हैं तो पता चलता है कि उसमें न तो बहुविवाह का पुरजोर समर्थन है और न ही तलाक का आसान उपाय, क्यांेकि कुदरत के जोडे़ को तोड़ने से दुनिया का निजाम बिगड़ जायेगा। बहुत मजबूरी की हालत में ही तलाक को मंजूरी मिली है। पवित्र कुरान की सूरा बकरा में इस बात का उल्लेख मिलता है कि तलाक किन हालात में दिया जा सकता है। नि:संदेह इस उपाय में महिलाओं के हक और अधिकारों को तरजीह दी गयी है।
आयत नं. 228, 229, 230 में खुलकर तलाक के बारे में बताया गया है। इसमें साफतौर पर कहा गया है कि अगर हेज के पूरा होने तक महिला को घर से बाहर नहीं निकाला जा सकता है यानी जिस प्रकार से भ्रम फैलाया जा रहा है कि सिर्फ तीन बार तलाक कहने से आप महिला को घर से निकाल देंगे, तो यह भ्रामक है। कुरान में आगे कहा गया है कि अपनी बीवी को तलाक के बाद उसके सभी हक देने होंगे जिसमें मेहर वगैरह शामिल हैं, साथ ही अलगाव की स्थिति को बेहतर बनाया जायेगा जिसमें तलाकशुदा बीवी की इज्जत करना भी शामिल है।
पवित्र कुरान की सूरा बकरा की आयत 102 मंे वर्णन आया है हारूद और मारूद का। वे जादू के जोर पर पति-पत्नी के संबंध बिगाड़ा करते थे। अल्लाह ने इसे पसंद नहीं फरमाया क्योंकि जिस प्राकृतिक जोड़े यानी पति-पत्नी को कुदरत ने ही बनाया हो, उसे तोड़ना कुदरत को पसंद नहीं आयेगा। हम सीधे शब्दों में कह सकते हैं कि शरिया कानून में तलाक को ही अच्छी चीज नहीं माना है, तो तीन तलाक के माध्यम से पति-पत्नी के कुदरती जोड़े को तोड़ना मुनासिब न लगता। इसीलिये पवित्र कुरान ने अत्यंत ही विषम परिस्थितियों में पति-पत्नी के मध्य अलगाव की शर्तों सहित उपाय बताया हैं। इसमें निश्चित रूप से महिलाओं के हितों को संरक्षित किया गया है।
तीन तलाक के मामले में भारत के विभिन्न उच्च न्यायालयों ने समय-समय पर विचार रखे हैं। ये स्पष्ट करते हैं कि मूल शरियत कानून मंे तलाक को सामान्य हालात में देना अच्छा नहीं माना गया है। सूरा बकरा में महिलाओं के अधिकारों को तलाक के उपाय के बावजूद संरक्षित किया गया है, यह तीन तलाक की पर्सनल लॉ बोर्ड वाली परिभाषा के विपरीत है।
ए़ एस़ परवीन अख्तर बनाम भारत सरकार के मामले मंे 27 दिसम्बर, 2002 को मद्रास उच्च न्यायालय ने भी तीन तलाक को शरिया कानून से समर्थित नहीं माना है। मुस्लिम पर्सनल लॉ शरियत एप्लिकेशन एक्ट, 1937 की धारा 2 के द्वारा तलाक-उल-बिद्वत और तलाक-ए-बादाई को मान्यता प्रदान की गयी है जहां यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि उक्त तलाक में भी तीन तलाक की मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और कठमुल्लाओं द्वारा दी गयी व्याख्या से विपरीत भावना है।
जब बात इस्लामिक कानून की होती है तो हमें यह भी स्मरण रखना चाहिये कि भारत के मुसलमान पहले भारतीय हैं और भारत के कानून उन पर आम नागरिकों की तरह ही लागू होते हैं। भारत के संविधान का अनुच्छेद 25 हर नागरिक को पंथ की स्वतंत्रता प्रदान करता है और मजहबी रूप से देखा जाये तो तीन तलाक की कुरूपित व्याख्या, जो कठमुल्लाओं ने थोपी है, मूल तलाक की अवधारणा से मेल नहीं खाती। वह मुस्लिम महिला के संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों पर कुठाराधात करती है, क्योंकि संविधान मजहबी मामलों की आजादी देता है और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड उस मूल वैयक्तिक आजादी को तोड़-मरोड़कर पेश करता है, जो कि असंवैधानिक है।
श्रीमती सबा अदनान सामी बनाम अदनान सामी के प्रकरण में बॉम्बे उच्च न्यायालय ने तारीख 23 मार्च, 2010 को अपने फैसले मंे तीन तलाक के मामले में स्थिति स्पष्ट की है:
तलाक के विभिन्न स्वरूपों पर विचार कर के, साथ ही मुल्ला के मोहम्मदी कानून के खण्डों 311 एवं 312 के प्रावधानों पर चिंतन करने के बाद दिल्ली उच्च न्यायालय ने मसरूर अहमद मामले पर निर्णय के अनुच्छेद 26 और 27 में कहा:
''26़. सुन्नी सोच के बीच भी यह विचार प्रचलित है कि एक बार में तलाक सुना दिए जाने को तीन नहीं बल्कि एक तलाक ही माना जाए। इस तथ्य पर न्यायिक पर्यवेक्षण के आधार पर यह सच सामने आता है कि तीन तलाक के रूप में अचानक होने वाली क्रूरता की शिकार तलाकशुदा महिला को गहरे मानसिक अवसाद से गुजरना पड़ता है और यही परिस्थिति पुरुषों के सामने भी आती है जिसके पास अपनी भूल सुधार या पुन: मेलजोल करने की कोई गुंजाइश नहीं बचती। इतिहास के किसी काल विशेष में यह कदम किसी मकसद में कारगर रहा होगा, परंतु यदि इस प्रथा की जड़ से उखाड़ दिया जाए तो यह इस्लाम के किसी आधारभूत सिद्धांत या कुरान अथवा पैगंबर मोहम्मद के किसी निर्णय के विरुद्ध नहीं होगी।
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड या विचार-ए-पाकिस्तान?
शाजिया शेख
देश 21वीं सदी में आगे बढ़ रहा है। सम्भवत: 2016 जाते-जाते अमेरिकी महिलाओं को प्रथम महिला राष्ट्रपति भेंट कर जाए। पर भारत की महिलाओं हेतु क्या? नि:संदेह भारत सरकार एवं सर्वोच्च न्यायालय महिलाओं हेतु समता तथा उनके हितों की रक्षा हेतु प्रतिबद्ध है तथा जो परिवर्तन समाज ने 2014 में किया है, वह भारतीय समाज के सभी अंगों हेतु सर्वस्पर्शी है तथा 'सबका साथ, सबका विकास' को वास्तविकता के धरातल पर लाने हेतु अग्रसर है। परंतु कोई है जो समता, विकासवादी विचारधारा तथा पंथनिरपेक्षता के संवैधानिक विचार का विरोधी है, जो भारत के मुस्लिम समाज की 50 प्रतिशत जनसंख्या (महिलाओं) हेतु असमानता के भाव का प्रहरी है, जो पुरुषों के हाथ में ऐसी तलवार देकर रखना चाहता है, जिसे वे महिलाओं के सिर पर लटकाकर मर्दानगी सिद्ध कर सकें, जो पंथनिरपेक्षता का चोला ओढ़े न्याय के धर्म को खंडित करता है, जो विश्वगुरु बनते भारत में 40 के दशक के पाकिस्तानी विचार में भारतीय मुसलमान को रखने हेतु प्रतिबद्ध है, उसका नाम है 'मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड', जो तीन तलाक की कुप्रथा को जीवित रखने हेतु न्यायालय तथा सरकार की हर पहल को चुनौती देकर उसकी रक्षा करना अपने कायम रहने का मकसद मानता है।
उपरोक्त वाक्य में '40 के दशक के पाकिस्तानी विचार' शब्द का उपयोग इस कारणवश है कि पाकिस्तान नामक कोई राष्ट्र नहीं है, जो संस्कृति एवं नस्ल के आधार पर जन्मा हो, अपितु वह तो एक विचार है जिसके चलते भारतीय समाज रूपी शरीर का एक अंग स्वयं को शेष शरीर से पृथक मानने लगे। अत: जहां भी समाज रूपी शरीर का एक अंग स्वयं को शेष शरीर से पृथक मानने लगे वहीं पाकिस्तान का जन्म होता है। फिर चाहे वह कोई प्रांत हो, नगर का कोई भाग या फिर कोई छोटा सा ग्राम ही क्यों न हो।
यदि वास्तव में पाकिस्तान का नाश करना है तो पाकिस्तान के तत्व में जो विचार है उसका नाश करना होगा। अत: समाज के प्रत्येक वर्ग, संप्रदाय, जाति, क्षेत्र आदि को मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जैसी संस्थाएं (जो एक राष्ट्रीय समाजरूपी शरीर में समता के विचार तथा विधि की सर्वोच्चता का विरोध करती हैं) का सामाजिक विरोध करना होगा और उत्तम होगा कि विरोध का नेतृत्व भारत का मुस्लिम समाज करे। यहां यह उल्लेखनीय है कि 1938 के पूर्व देश में सभी के लिए समान नागरिक संहिता का अनुपालन
जरूरी था।
राष्ट्रीय समता एवं अखंडता की रक्षा तथा राष्ट्र के पंथनिरपेक्ष चरित्र के विकास एवं सशक्तिकरण हेतु समय की मांग है कि अब तीन तलाक की कुप्रथा पर मीडिया चर्चाओं में इसके गैर मजहबी पक्ष पर केंद्रित तर्कों के उपयोग पर विराम लगा कर चर्चा का केंद्र संविधान एवं न्याय व्यवस्था को ही रखा जाए। ऐसा करने से राष्ट्रीय चरित्र के विकास को प्रोत्साहन मिलने के साथ पर्दाफाश होगा जो पंथनिरपेक्षता अथवा समाजवादी चोला ओढ़े घोर साम्प्रदायिक चरित्र रखते हैं। अंग्रेजी का उपयोग करें तो यह कथन अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं है कि यह उन लोगों के चरित्रों का 'लिटमस टेस्ट' हो जायेगा। जहां तक लोकतांत्रिक व्यवहार का प्रश्न है, तो किसी भी लोकतंत्र में 50 प्रतिशत जनसंख्या के हितों की अवमानना लोकतंत्र का व्यवहार नहीं हो सकती। अत: मुस्लिम समाज की आधी जनसंख्या के हितों की अवमानना भारत जैसे सुदृढ़ लोकतंत्र की सरकार द्वारा कैसे संभव है! राष्ट्रहित के लिए देशवासियों का यह कर्तव्य है कि भारत सरकार को बल प्रदान करें ताकि वह इस 'विचार-ए-पाकिस्तान' पर कुठाराघात
कर सके। (बातचीत पर आधारित)
27़ इस पृष्ठभूमि के आधार पर मेरा यह मानना है कि तीन तलाक (तलाक-ए-बिदात), सुन्नी मुस्लिमों के लिए भी एक फिर से हटा देने वाला तलाक ही माना जाए। इस आधार पर पति को इस विषय में सोचने का समय मिलेगा और इद्दत के दौरान इसे वापस लेने का उसके पास पर्याप्त अवसर होगा। इसी समय के दौरान दोनों पक्षों के परिवारजन भी समझौता कराने हेतु गंभीर प्रयास कर पाएंगे। यदि इद्दत का समय भी निकल जाता है और तलाक को वापस लिए जाने की स्थिति नहीं बनती, तो अलग हो चुके दंपति मेहर आदि की नई शतार्ें पर पुन: निकाह कर वैवाहिक बंधन में बंध सकते हैं।''
इस्लाम के नियमों की बात करते वक्त वह बात तब तक अधूरी ही मानी जायेगी जब तक कि यह जिक्र न किया जाए कि मुसलमानों पर यह बात आधिकारिक रूप से लागू है कि वे जिस देश मे रहें, उस देश के कानून का पालन करें। इस बात को पवित्र कुरान और हदीसों में विस्तार से बताया गया है। पवित्र कुरान की सूरा अल मइदा, सूरा अल इसरा, सूरा अल नहल और सूरा बकरा में यह बात समझाई गयी है कि मुसलमानों को कानूनों का पालन करते हुये अन्य समाज के लोगों से बेहतर संबंध बनाने चाहिये और देश के नियम-कानूनों का पालन करते हुये एक सभ्य समाज की रचना करनी चाहिए। यही उनका मुख्य उद्देश्य होना चाहिये जिससे मानवता के जज्बे को बल मिलता रहे। भारत जैसे राष्ट्र में, जहां विभिन्न मत-पंथों, संस्कृतियों के लोग मिल-जुलकर निवास करते हैं और मुसलमान भी करीब 1300 साल से इस देश की मूल संस्कृति से मिल-जुलकर रह रहे हैं, जहां सांस्कृतिक रूप से भारतीय ही हैं, वहां तीन तलाक के मुद्दे को तथाकथित उन्मादी बोडोंर् और उलेमाओं द्वारा दिशा से भटकाकर मुस्लिम महिलाओं के प्रति अपमानकारी व्यवस्था के बीज को बोना एक निंदनीय कदम है। इसे कुरान शरीफ में हारूद और मारूद के रूप में बहुत पहले ही समझा दिया गया है। आज का मुस्लिम समाज इन कट्टरपंथी और भटकाव वाली सोच से मुक्त है। वह महिलाओं के सम्मान और मानवीय मूल्यों के संरक्षण को पोषित करने वाली व्यवस्था को ही अंगीकार करना चाहता है।
(लेखिका म.प्र. उच्च न्यायालय में अधिवक्ता हैं)
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