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मुसलमानों को खुश करने के लिए प. बंगाल सरकार बेहद अजीबोगरीब आदेश जारी करने लगी है। हाल में संपन्न दुर्गापूजा पर भी ममता सरकार ने मुस्लिम तुष्टीकरण की हद कर दी थी
असीम कुमार मित्र
संपूर्ण बंगाल में दुर्गापूजा सबसे बड़ा पर्व है, क्योंकि यह मात्र एक उत्सव नहीं है बल्कि इसमें हिंदू समाज की भक्ति, श्रद्धा और सद्भाव का समावेश रहता है। मन में स्वयं की भलाई के साथ-साथ समाज और समस्त चराचर की भलाई हेतु शक्ति स्वरूपा मां दुर्गा से मन्नतें मांगी जाती हैं। यही इस 9 दिवसीय पूजोत्सव की सबसे बड़ी विशेषता है।
परंतु कहीं न कहीं हम इस पथ से हटते जा रहे हैं। पूजा को छोड़ कर मां दुर्गा को स्थापित करके उनके सामने अपने राजनेता और व्यापारी अपने राजनीतिक एवं व्यापारिक हित साधना चाहते हैं। थोड़े कड़े शब्दों में कहें तो ये दोनों वर्ग इस बहाने अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं। मां दुर्गा की जो मूर्तियां पहले बड़े भाव के साथ बनाई जाती थीं अब उनके भी दिन लद गए हैं। अब तो बिजली के तेज प्रकाश में मां कभी बादल में छिप जाती हैं तो कभी सामने आकर जनता को दर्शन देती हैं। पूजा को लेकर हर साल आधुनिकता लाने की होड़ जारी है। ऐसा होना स्वाभाविक है। परंतु पुरोहितों का कहना है कि ऐसी मूर्तियों के सामने मंत्र-पूजा और उनकी प्राणप्रतिष्ठा संभव नहीं है। यही कारण है कि सभी बड़े पूजा-पंडालों के निकट मिट्टी से बनी छोटी-मूर्तियां लगायी जाती हैं ताकि पुरोहित उनकी पूजा कर सकें तथा भक्तजन उनमें अपनी आस्था व्यक्त कर सकें।
इसी होड़ के चलते कोलकाता में 20 से 25 पूजा मंडपों में देखा गया कि मां दुर्गा के हाथों में एक भी शस्त्र नहीं था जबकि मां को तो 'त्वं ही दुर्गा दशप्रहरणधारिणी' कहा जाता है। इतिहास बताता है कि समस्त देवी-देवताओं ने असुरों का संहार करने के लिए मां दुर्गा के हाथों अपने-अपने शस्त्र सौंप दिए थे। उन शस्त्रों को मां के हाथों से वापस लिया जा सकता है क्या? और लिया है तो यह कहां तक उचित है? पूजा मंडप कार्यकर्ताओं की तरफ से यह प्रचार होना स्वाभाविक था कि 'विश्व में शांति चाहिए इसीलिए हमने मां के हाथों में शस्त्र नहीं दिये।' कोलकाता के लाखों हिन्दुओं ने इन प्रतिमाओं के दर्शन किए परंतु आश्चर्य की बात है कि हमारे तथाकथित प्रगतिशील पत्रकारों ने इन प्रतिमाओं की सराहना करते हुए बड़े-बड़े लेख भी लिखे। इससे अधिक लज्जा का विषय और क्या हो सकता है?
व्यापार जगत ने दुर्गा पूजा के मैदानों में खास प्रबंधन को उतार दिया ताकि पूजा नामक खास अनुपत्रक का आर्थिक दृष्टि से फायदा उठाया जा सके। इसके तहत होटलों-रेस्तरांओं में नाच-गाने के साथ साथ पर्यटन उद्योग को बढ़ाने के नाम पर हर प्रकार के बेहूदेपन का प्रदर्शन किया गया, लाखों-करोड़ों रुपए खर्च किए गए। दुर्गापूजा को बड़े लोगों का तमाशा बनाने की यह जुगत कुछ साल पहले से भिड़ाई जा रही थी। इस बार यह तमाशा एक नई ऊंचाई पर पहुंच गया। दुर्भाग्य की बात यह है कि आम हिन्दू चुप्पी साधे बैठे रहे।
गत 30 अगस्त को प. बंगाल सरकार की ओर से सभी दुर्गा प्रतिमाओं के विसर्जन का समय घोषित किया गया था जिसमें हर कदम पर हिन्दुओं से इस विषय में मुसलमानों के साथ समझौता करने की बात कही गयी थी, क्योंकि उन्हीं दिनों में मुहर्रम के ताजिये निकलने वाले थे। प्रश्न था कि आज तक भी तो पूजा कमेटियां तथा ताजिया कमेटियां आपस में बातचीत कर यह विषय तय करती थीं। परंतु आखिर इस बार प्रशासन ने एक तारीख घोषित क्यों कर दी, जिसे हिन्दुओं के लिए मान लेना उचित नहीं था। आश्चर्य की बात यह है कि पूरा एक महीना (30 अगस्त से) बीत जाने पर भी एक भी दुर्गा पूजा कमेटी ने अदालत का दरवाजा नहीं खटखटाया था। अंत में उच्च न्यायालय में एक मामला दर्ज हुआ जिस पर मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति गिरिशचन्द्र गुप्त तथा न्यायमूर्ति अरिन्दम सिन्हा की खंडपीठ ने विचार किया। एक दूसरी अदालत में न्यायमूर्ति दीपंकर दत्त ने अपना निर्णय सुनाते हुए राज्य सरकार को आड़े हाथों लिया। उन्होंने कहा, ''प्रेस विज्ञप्ति कानून कोई सरकारी निर्देश नहीं हो सकता क्योंकि किसी पांथिक विषय में सरकार कोई एकतरफा फैसला नहीं ले सकती।'' उन्होंने प्रश्न उठाया कि क्या सभी जानते हैं कि इलाहाबाद में सबसे बड़ी ताजिया कमेटी ने यह तय किया था कि दशहरे के दिन ताजिया नहीं निकाला जाएगा? उन्होंने आगे कहा, ''इस बार मुम्बई में गणेश चतुर्थी का जुलूस और ताजिये एक ही दिन निकालने का फैसला हुआ था और ऐसा हुआ भी। पर वहां कोई गड़बड़ी नहीं हुई।''
इस तरह के बहुत सारे उदाहरण हैं। इस बार प. बंगाल के मुर्शीदाबाद में पुलिस ने स्थानीय दुर्गा पूजा कमेटी तथा ताजिया कमेटी के लोगों की बैठक बुलाई थी। वहां हिन्दू व मुस्लिम दोनों पक्ष के नेताओं ने कहा कि इस विषय में हम लोगों ने आपस में तय कर लिया है अत: इस बैठक की कोई जरूरत नहीं है। यह कहकर वे बैठक छोड़कर चले गये। परंतु कुछ राजनीतिक दलों का स्वभाव है कि वे दंगे-फसाद के नाम पर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकें। न्यायमूर्ति दत्त ने साफ पूछा, ''अगर किसी साल ईद और गणतंत्र दिवस एक ही दिन पड़ जाएं तो क्या सरकार कोलकाता के ट्रेडिशन रेड रोड पर सेना की परेड नहीं होने देगी क्योंकि वहां ईद की नमाज होगी?'' प. बंगाल में यह हो रहा है मुस्लिम तुष्टीकरण के नाम पर।
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