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पिछली तीन सितम्बर को अखबार के पन्नों और दूरदर्शन के पर्दे पर जिस किसी दर्शक ने एक बालक की समुद्र के किनारे औंधे मुंह पड़ी लाश का चित्र देखा होगा, वह सहम जरूर गया होगा और अपने मन से सवाल करने लगा होगा, यह मासूम किसका है? उसको किसने मारा? मरते समय उसकी नन्ही जान पर क्या बीती होगी? तीन बरस के बच्चे की लाश तुर्किस्तान के बोरडन नामक समुद्र तट पर पड़ी मिली थी। यह वह भाग है जहां समुद्र की ऊंची लहरों में चीजें तैरकर किनारे आ लगती हैं। किनारे पर यह लाश आई तो मालूम पड़ा कि वह तो किसी छोटे बच्चे का मृत शरीर है। उस बच्चे की लाश देखकर लोग हैरान रह गए। उनके मन में कई सवाल उठे होंगे। जैसे, किसका बच्चा होगा? यहां कैसे आ गया? इसके मां-बाप उसे ढूंढ तो नहीं रहे होंगे? लोगों ने मारने वाले से मन ही मन यह सवाल पूछा होगा कि इस 21वीं सदी में भी तुम इतने निर्दयी कैसे हो सकते हो? उस बच्चे की लाश का परिचय देते हुए मीडिया ने बतलाया कि अपनी अत्याचारी सरकार से तंग आए घर वालों के साथ वह तीन साल का बच्चा अपने देश से पलायन करके बचता-बचाता तुर्किस्तान पहुंचा था। वहां से अपने माता-पिता के साथ यूनान जाने के लिए एक नाव का मुसाफिर बन गया। सम्भवत: उस परिवार की लाचारी और दुख के दर्द से बेचैन होकर समुद्र की ऊंची-ऊंची लहरें किनारे पर सर पटकने लगीं। नतीजा यह हुआ कि नाव उलट गई। बच्चे के बाकी परिवारजन तो पानी में डूब गए, लेकिन उस तीन साल के अबोध बालक की लाश सागर के तट पर आ गई। उसकी बंद आंखें उस दुनिया को देख रही थीं जिसने मरने से पहले उसे परमात्मा की धरती पर दो बूंद दूध भी नसीब नहीं कराया… उसके माता-पिता और भाई बहनों को उससे छीन लिया। जान निकलने से पहले उसने पूछा होगा-ऐ मेरी मां, मुझे इस निर्दयी दुनिया में तूने क्यों जन्म दिया? समुद्र की लहरों से कहा होगा कि तुम भी मेरी मौत सहन नहीं कर सकीं इसीलिए तो मुझे बाहर उठाकर फैंक दिया ! औंधे मुंह पड़ा धरती को नमन कर रहा हूं। इस्लाम को मानने वाले बताएं, ‘क्या परवरदिगार की इबादत करने का यही तरीका है? तुम इंसानियत के दुश्मनों का देश स्थापित करना चाहते हो, जिसे कब्जा कर अपने हरे झंडे को सलामी देते रहना ही तुम्हारा अंतिम ध्येय होगा। इस्लामी विश्व बंधुत्व की बातें करने वालो, क्या यही तुम्हारा मजहब है? इंसानों को मारकर किसे कलमा पढ़ाओगे और मुसलमान बनाओगे?’दुनिया के सच्चे मुसलमान कुछ नहीं कर सकते हैं तो बस इतना करें कि ऐसे हत्यारों को इस्लाम से खारिज करके, इन आतताइयों की मौत जायज है, इस तरह का फतवा ही जारी कर दें।
हम भारतीयों पर भी तो यही बीती थी जब 1947 में मजहब के नाम पर देश का बंटवारा करके उन हत्यारों ने अपना असली चेहरा दुनिया को दिखला दिया था। लीग ने राजनीति की खातिर देश को बांटा था। आज फिर जिहाद की तलवारें चमकाकर खनिज तेल के भंडारों पर कब्जा करने के लिए तेल की जगह इंसानों का खून जला रहे हैं। जब हिन्दुस्थान बंटा था तो मजहब का सहारा लेकर उन्होंने इस्लाम को कलंकित किया था। इस्लाम के नाम पर बंटवारे की साजिश की थी, और अब अपने ही हम-मजहबियों को मार-काटकर अपनी सल्तनत का विस्तार कर रहे हैं। इस्लाम के नाम पर मध्य-पूर्व के अनेक मुस्लिम देशों पर हमला करके अपनी सत्ता का झंडा बुलंद कर रहे हैं। कोई मुस्लिम मौलाना इनके विरुद्ध फतवा जारी क्यों नहीं कर रहा है? पाकिस्तान की इस्लामी सेना जिहाद जगाकर अपने मजहब का पालन क्यों नहीं कर रही है? वे एक बगदादी को घेरकर ठिकाने नहीं लगा सकते, लेकिन जिहाद के बहाने सारी दुनिया को इस्लामी दुनिया बनाने का बहकावा अवश्य उछालते हो। बगदादी के पीछे कौन है? बड़े मुस्लिम देशों के नेता और जिसकी एकता पर डींगें मारी जाती हैं वह उम्मा (मुस्लिमों की सामूहिक जमात) क्यों मौन है? कहीं दंगा हो जाए तो फतवों की बरसात होने लगती है लेकिन यहां तो मुसलमानों को ही गाजर, मूली की तरह काटा जा रहा है, फिर इस्लामी बम किस दिन काम आने वाला है यह बतलाना ही पड़ेगा? यदि इस्लामी देश कोई कार्यवाही नहीं करते, वे सब एक बर्बर बगदादी से भयभीत हैं या फिर उसके साथ मिलीभगत है? वे भी यही चाहते हैं कि इस तरह की मारकाट मचाकर दुनिया को इस्लामी धरती बना दिया जाए।
मुसलमानों का यह मौन अत्यंत खतरनाक है। मुल्ला और राजनीतिज्ञों में क्या कोई मिलीभगत है? वे बगदादी की शैली में सारी दुनिया को अपनी मुट्ठी में भींच लेना चाहते हैं। इसका दो टूक फैसला संयुक्त राष्ट्रसंघ में बैठकर दुनिया को कर लेना चाहिए। साम्प्रदायिक दंगे की बात हो या फिर विश्व में मुस्लिम आतंकवादियों का भूमि और तेल के स्रोतों पर अधिकार जमाने का सतत् प्रयास, हर जगह एक ही नारा सुनाई पड़ता है- इस्लाम खतरे में है। यह कथन सुनते-सुनते बीसवीं शताब्दी 21वीं शताब्दी में बदल गई लेकिन अब तक हिंसा की राजनीति करने वालों की सांस थमी नहीं है चूंकि मतान्ध और अनपढ़ मुसलमानों को अपनी सेना का सिपाही बनाने के लिए उनके पास इससे अच्छा नारा नहीं हो सकता है। एटम बम की दुनिया में भी इससे बढ़कर कोई शक्तिशाली हथियार उनके पास नहीं होता है। लेकिन पिछले दिनों समुद्र के किनारे पर पड़ा एक बालक अपनी तुतलाती भाषा में यह सवाल दुनिया के सामने रखकर विदा हो गया कि- खतरे में कौन है, इस्लाम या वह मुसलमान जो अपने मजहब और ईमान के नाम पर आतंकवाद की राजनीति करता है?
अब तक सीरिया और लीबिया के लोग ही समुद्री मार्ग से यूरोप में घुसपैठ करते थे। लेकिन तीन साल के बच्चे की इस लाश से अचानक शरणार्थियों के द्वारा अपनाए जा रहे इस नए मार्ग का पता चला है। जर्मनी और आस्ट्रेलिया ने शरणार्थियों के इस रेले को आने की स्वीकृति दी तो हंगरी के बूडापेस्ट स्टेशन पर तीन हजार व्यक्तियों ने आस्ट्रिया की ओर अपने कदम बढ़ाए। यह भाग लगभग सौ किलोमीटर से अधिक दूर है। अचानक ही यूरोप ने शरणार्थियों के लिए अपने घर के द्वारा खोल दिए और उन्हें सहायता करने के लिए अपने कानून तक बदल डाले। जो कार्य तीन हजार लोगों के भूमध्य सागर में डूब जाने के बाद नहीं हुआ, वह तीन साल के बच्चे की लाश ने कर दिखाया।
अब्दुल्ला कुर्दी ने उस रात की भयंकर कहानी सुनाते हुए कहा था, ‘हम रबर की नाव से बोरडन से रवाना हुए थे। हम कुल 14 जन थे, जिनमें दो मानव तस्करी करने वालों सहित कोबानी के अन्य 8 व्यक्ति शामिल थे। हम जब समुद्र के बीच पहुंचे तो तूफान ने हमें घेर लिया। हम तो जीवन के लिए ऊपर वाले से दुआएं मांग रहे थे, लेकिन वे दोनों तस्कर समुद्र में कूद गए। मैं, मेरी पत्नी, बच्चों के हाथ पकड़ कर बोट पर घुटने के बल बैठ गये। एक घंटे तक हम लहरों से लड़ते रहे। बड़े बेटे गेलप ने दम तोड़ा तो मैंने उसे बचाने के लिए दूसरे बेटे का हाथ छोड़ दिया। लेकिन एलान भी बच नहीं सका। उस मासूम को डूबता देखकर उसकी मां भी मर गई। अब मैं अकेला था। समुद्री लहरों से लड़ रहा था। इसके बाद कोस्ट गार्ड ने मुझे बचाने का प्रयत्न किया। नाव में चढ़ते समय हमें जो लाइफ जैकेट दी थी गई वह अत्यंत घटिया थी जो किसी काम नहीं आ सकी।’ अब्दुल्ला कुर्दी कहता है,‘मेरा परिवार मेरे सामने पानी के हवाले हो गया।’ कोबानी ने कहा कि अब और भागने से क्या होगा? कोबानी दाइश से परेशान होकर यूरोप जा रहा था। उसने इरादा बदल दिया और फिर अपने नगर कोबानी लौट आया। जिस परिवार के सुख के लिए वह यूरोप जा रहा था वह खो गया तो उसने सोचा होगा, चलूं फिर से अपने गांव और देश में ही जाकर अपनी मौत को गले लगाऊं। उसकी किस्मत में तो समुद्र के किनारे पड़ी तीन वर्षीय एलान की लाश को ही देखना लिखा था। दाइश ने उसके सगे-सम्बंधियों को पहले ही मौत के घाट उतार दिया था।
अपने परिवार की सुरक्षा के लिए भागे तो यहां भी नसीब ने उसका साथ नहीं दिया। इस मासूम की लाश को देखकर इस्लामी दुनिया के देश तो जाग्रत नहीं हुए लेकिन यूरोपीय संघ के देशों के दिलों में मानवता बेचैन हो उठी। फ्रांस, जर्मनी और यूरोपीय संघ के अन्य देशों ने इन शरणार्थियों को स्वीकार करने की जिम्मेदारी अपने सिर ले ली। लेकिन तेल से लबालब इस्लामी देश अपने पेट्रो डॉलर के ढेर पर अय्याशी करते रहे। उनमें से कोई इन निर्दोष इंसानों को बचाने के लिए आगे नहीं आया। अब सवाल उठता है कि ‘इस्लामी बिरादरी की डींगें मारने वालो, तुम मुसलमानों की रक्षा करते हो या फिर वे देश जिनका पंथ ईसाइयत है। तुम्हारी मानवता कहां दफन हो गई? इस्लामी भाईचारे का नारा लगाने वालो, तुम्हारी यह राक्षसी प्रवृत्ति एक दिन तुमसे भी ऐसा ही बदला ले सकती है। फिर यह मत कहना हमें बचाने के लिए कोई नहीं आया। इस्लामी बिरादरी की डींगें मारने वालो, बताओ, एलान जैसे नन्हे बालकों की हत्या कब तक करते रहोगे? मुजफ्फर हुसैन
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