|
विद्वानों के अनुसार सृष्टि के जन्मकाल से ही मान और अपमान का अस्तित्व है। आपने यह कहावत सुनी ही होगी –
बिना मान अमृत पिये, राहु कटायो सीस॥
लक्ष्मण जी ने वनवास में रावण की बहन शूर्पणखा की नाक काटी थी। उसने इसे सम्पूर्ण राक्षस जाति का अपमान बताते हुए खूब नमक-मिर्च लगाकर राक्षसराज रावण से शिकायत कर दी। परिणाम स्वरूप रावण ने सीता का हरण किया और श्रीराम ने रावण का कुलनाश कर दिया।
लाखों पूत करोड़ों नाती, उस रावण घर दिया न बाती। द्रौपदी ने इन्द्रप्रस्थ के महलों में दुर्योधन पर एक व्यंग्य कस दिया था, ‘‘अंधे का पुत्र अंधा ही होता है।’’ इस वाक्य ने पूरा महाभारत रच दिया। महाराणा प्रताप ने मानसिंह के साथ भोजन नहीं किया। इससे अपमानित होकर वह विदेशी और विधर्मी आक्रांता अकबर से जा मिला। अपमान की आग ऐसी ही घातक होती है।
सम्मान की बात करें, तो मुगल और फिर अंग्रेज शासक भारत के प्रभावी लोगों को विभिन्न उपाधियां देकर अपने पक्ष में कर लेते थे। मियां, मिर्जा और शाह से लेकर सर, रायसाहब और रायबहादुर ऐसी ही उपाधियां थीं। भारत सरकार भी प्रतिवर्ष कुछ विशिष्ट लोगों को पद्मश्री, पद्मभूषण, पद्मविभूषण और भारत रत्न से अलंकृत करती है। ये सम्मान किसे, क्यों और कैसे दिये जाते हैं, इसकी कहानी ‘‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’’ की तरह है; पर यह बात सौ प्रतिशत सत्य है कि सम्मान से सुख मिलता है और अपमान से दुख।
खैर, अब कुछ बात अपने प्रिय शर्मा जी की भी कर लें। हमारे नगर का ‘साहित्यप्रेमी मंडल’ हर उस छोटे-बड़े लेखक को सम्मानित कर देता है, जो शॉल खुद लाए और बाद में सबको बढ़िया चाय-नाश्ता करा दे। एक बार शर्मा जी भी उनके चक्कर में आ गये, पर कार्यक्रम में किसी के बुलावे पर उस क्षेत्र में नए-नए तैनात हुए दरोगा जी भी टपक पड़े। तुकबंदी का शौक होने के कारण वे स्वयं को उच्च कोटि का साहित्यकार समझते थे। आयोजकों ने मजबूरी में वह शॉल उन्हें ही समर्पित कर दी। शर्मा जी के हिस्से में केवल माला ही आयी। आप समझ सकते हैं कि उन पर क्या बीती होगी ? गुस्से में वे बिना चाय पिये ही घर आ गए। तब से उन्होंने ऐसे फर्जी सम्मानों से तौबा कर ली है।
शर्मा जी का दूसरा शौक समाजसेवा है। वे वर्षों से इस काम में लगे हैं। कुछ मित्रों ने उन्हें यह कहकर बल्ली पर चढ़ा दिया कि इतनी समाजसेवा के बाद आपको भारत सरकार की ओर से ‘पद्मश्री’ तो मिलना ही चाहिए! शर्मा जी इससे उत्साहित होकर और तेजी से काम करने लगे, पर कितने ही वर्ष बीतने पर भी किसी ने उनसे सम्पर्क नहीं किया। हर साल 26 जनवरी से पहले वे प्रतीक्षा करते हैं कि शायद सरकार की तरफ से कोई पत्र या फोन आएगा, पर बेकार।
लेकिन पिछले दिनों शासन ने तो नहीं, पर नगर की एक धनाढ्य संस्था ने उन्हें ‘नगरश्री’ की उपाधि से विभूषित किया। इसमें उपाधि के साथ दस हजार रुपए भी दिये गये। शर्मा जी बहुत खुश हुए। चलो, किसी ने तो उनकी निस्वार्थ सेवाओं का महत्व समझा। उन्होंने अपनी तरफ से भी कई लोगों को समारोह में बुलाया। मान-सम्मान के बाद जब उनका बोलने का नंबर आया, तो उन्होंने संस्था की प्रशंसा करते हुए कहा कि यह सम्मान मेरा नहीं, यहां उपस्थित सब लोगों का है। मैं इसे आपको ही समर्पित करता हूं।
गुप्ता जी की पिछले कुछ दिनों से शर्मा जी से खटपट चल रही थी। वे खड़े हो गये, ‘‘शर्मा जी, सम्मान तो आप अपने पास ही रखें। हां, जो धन आपको मिला है, उसे यदि आप यहां आये लोगों को समर्पित करना चाहें, तो हम सब तैयार हैं।’’
फिर क्या था, शर्मा जी आगबबूला होकर अपनी असलियत पर उतर आये। उन्होंने धाराप्रवाह गाली बकते हुए मेज पर रखा फूलदान उठाया और मंच से उतरकर गुप्ता जी की ओर दौड़े। गुप्ता जी भी कम नहीं थे। उन्होंने कुर्सी उठा ली। जैसे-तैसे लोगों ने दोनों को शांत कराया। बीच-बचाव में सिन्हा जी की नयी कमीज फट गयी। सारा कार्यक्रम गुड़-गोबर हो गया। अगले दिन अखबारों में सम्मान की बजाय इस झगड़े की ही खबर और चित्र छपे। तबसे शर्मा जी ने तय कर लिया है कि चाहे जो हो; पर वे अब किसी सम्मान समारोह में नहीं जाएंगे। तुलसी बाबा ने ठीक ही कहा है –
देखत मन हरषे नहीं, नैनन नहीं सनेह
तुलसी वहां न जाइये, चाहे कंचन बरसे नेह॥
एक शुभचिंतक होने के नाते मैं आपको नेक सलाह देना चाहता हूं कि यदि आपको भी कोई सम्मानित करने के लिए बुलाए, तो जाने से पहले ठोक बजाकर जांच लें, कहीं ऐसा न हो कि़.। विजय कुमार
टिप्पणियाँ