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पाञ्चजन्य का कृषि विशेषांक पूर्व नियोजित और घोषित था। किंतु फिर भी खेती-किसानी की खबरों से जुड़े कुछ ऐसे कारण हैं जिन्होंने इसे ज्यादा प्रासांगिक और सामयिक बना दिया है। कारण मिले-जुले हैं,अच्छे और बुरे भी।
बुरी खबरें कम मानसून के बारे में हैं। मौसम वैज्ञानिकों का मानना है कि इस बार वर्षा सामान्य की तुलना में 12 प्रतिशत तक कम होगी। उत्तर भारत सहित देश का बड़ा भू-भाग ऐसा है जिसका आधा क्षेत्र आने वाले दिनों में सूखे की चपेट में आ सकता है। लेकिन इसके बरअक्स कुछ अच्छी खबरें भी हैं। उदाहरण के लिए भूमि अधिग्रहण विधेयक पर केन्द्र सरकार का अतिशय लचीला रुख। कहा जो भी जाए लेकिन इसके जरिए केन्द्र सरकार ने विधेयक के विरोधियों पर ही कृषक हित को परिभाषित करने और विधेयक के क्रियान्वयन में बाधक या साधक सिद्ध होने का दारोमदार डाल दिया है। दूसरी अच्छी बात है 'स्मार्ट गांव' की दिशा में पहल। 'स्मार्ट सिटी' की ही भांति गांव की चिंता करने वाला यह कदम ऐसा है जो सम्पूर्ण ग्रामीण अर्थतंत्र का कायाकल्प करने और किसान को कारोबार से जोड़ने का दम रखता है। इन अच्छी-बुरी खबरों का जिक्र जरूरी है। क्योंकि आज जेठ की धूप और पूस की रातें समर्थन मूल्य और सब्सिडी की सरकारी गुल्लकों से बंधी हैं। वैसे भी, कृषि एवं कृषक की चर्चा वर्तमान संदभार्ें से कटकर नहीं की जा सकती।
क्योंकि, बादल बूंदें कम-बरसाएं या ज्यादा किसान की समझदारी हर बार परखते हैं। क्योंकि, सरकार हल नहीं चलाती लेकिन जरूरत पड़ने पर कृषि समस्याओं के हल निकाल सकती है। सो, किसान के लिए खेत-खलिहान के साथ-साथ सरकार और बादलों का रुख देखना जरूरी है। आज किसान और विकास के बीच एक दूरी दिखाई देती है। खेती और खुशियों के बीच एक फासला है जो बीते दशकों में बढ़ता गया। एक छोर पर किसान, दूसरे छोर पर उद्योग। एक तरफ उत्पादक (किसान) दूसरी तरफ ऐसा उपभोक्ता वर्ग जो मांग तो बढ़ाता है मगर पूर्ति में उसका योगदान नगण्य है। सोचिए, 'भूखे भजन न होय गोपाला' की टेर लगाने वाला समाज यदि उद्योग को श्रेष्ठ और कृषि को हीन समझ लेगा तो सवा अरब लोगों के पेट तक दाना कौन पहुंचाएगा, क्यों पहुंचाएगा? दरअसल, विकास की जो लीक स्वतंत्रता के बाद से कृषि प्रधान देश ने पकड़ी उसमें कुछ ऐसा अटपटापन था जो इस देश की स्थिति-परिस्थिति और परंपरा से मेल नहीं खाता था। किसान हित को उद्योग विरोधी और औद्योगिक हित को खेती-किसानी की कीमत पर तय करने का यह चलन ऐसा रहा जिसने इस देश की पहचान रहे समूचे किसान वर्ग में हताशा बढ़ाने का ही काम किया।
खेती राष्ट्रीय आय में 16.6 प्रतिशत ही योगदान देती है, लेकिन यह योगदान वैसा हल्का नहीं है जितना सांख्यिकी ग्राफ में दिखता है। मानसून हल्का रहने और कृषि पर इसके प्रभाव के आकलनों के बीच विश्व व्यवस्थाओं की साख निर्धारित करने वाली प्रमुख एजेंसी मूडीज ने वर्ष 2015-16 के लिए अपनी नवीनतम रपट में भारत की विकास दर का पूर्वानुमान संशोधित कर दिया है। मूडीज के अनुसार पहले जो विकास दर 7.5 प्रतिशत रहनी थी, अब वह संभवत: 7 प्रतिशत ही रहेगी। यानी, कृषि के समग्र चित्र को बूंदों में बारह प्रतिशत कमी की बजाय देश के विकास पूर्वानुमानों को गहरे प्रभावित करने वाले कारक के तौर पर समझना चाहिए।
देश और या कहिए दुनिया में कृषक की भूमिका जितनी दिखती है उससे कई गुना व्यापक है। उसकी समझ कई मोचार्ें पर बार-बार परखी जाती है और ज्यादा पैनी होती जाती है।
चीन, इण्डोनेशिया और भारत भी में धान के खेतों में मछली पालन करने वाले और इससे अपनी आमदनी में चौथाई का उछाल लाने में कामयाब रहे किसानों के उदाहरण हैं।
चित्रकूट में पहाड़ों से तेजी से बह जाने वाले पानी को मेंड़ लगाकर रोकते, ढाल पर छोटी तलैया या तलहटी में डबरा-डबरी का उपाय करने वाले किसानों की समझदारियां हैं।
लेकिन पंजाब की भठिंडा पट्टी जैसे इलाकों में सहज उपजने वाले ज्वार-बाजरा को छोड़कर कपास के लालच में कंगाल हुए किसानों जैसे कुछ सबक भी हैं।
बारिश में कमी किसान के लिए आकस्मिक परीक्षा जैसी बात है, जबकि उत्पादकता में कमी शाश्वत चुनौती। किसान बाहर के उदाहरणों, अपनी छोटी-छोटी समझदारियों और पूर्व में मिले सबकों से सीखते हैं, लेकिन इतना ही काफी नहीं है। ऐसे में उपाय क्या है? मिले-जुले तरीके अपनाकर इन परेशानियों से निकला जा सकता है। इसमें खेती को लेकर परंपरागत समझ, उपभोग को लेकर भारतीय दर्शन और नीति एवं तकनीक के स्तर पर सरकारी सहयोग के समीकरण बैठाने होंगे। इसका हल भारत की विचार परंपरा में है। जिनका जन्मशताब्दी वर्ष देश मना रहा है उन पं. दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानव दर्शन में है। उस समाज के चेतन-अवचेतन मन में है जहां जल का अर्थ पानी नहीं, भूमि का अर्थ जमीन का टुकड़ा नहीं और जानवर भी जानवर नहीं, पशुधन है।
संसाधनों के शोषण की बजाय दोहन की राह दिखाने वाली यह सोच वैश्विक तौर पर सभी के लिए गुणकारी है, किन्तु कृषि आधारित समाज के लिए इसका विशेष महत्व है। या कहिए, इस दर्शन का बीज ऐसे ही समाज के पास हो सकता था जिसके पांव खेती-किसानी में मजबूती से जमे हों, जो जंगल को सिर्फ नोटों से लदे पेड़ों का झुरमुट ना समझता हो। बाढ़-सुखाड़ की विपत्तियों में, दशकों तक शासकीय विरक्तियों से जूझते हुए भारतीय किसान यदि अपना खेत, बीज और स्वावलंबन बचाए हुए है तो अपनी इस परंपरागत थाती के कारण ही। कम बारिश में भी कैसे बीजों और कौन सी फसलों के सहारे अपना वार्षिक नियोजन बिठाना, यह इस देश का किसान अपनी पीढि़यों से अर्जित ज्ञान से समझता ही था। यह ठीक है कि बीजों की उन्नत किस्में और खेती के आधुनिक तौर-तरीके उसे अधिक लाभ दिला सकते हैं। लेकिन किसान की परेशानियों से जुड़ी यह इकलौती बात नहीं है। सवाल है कि औद्योगिक विकास के साथ पेशे के तौर पर कृषि और उद्यमी के रूप में कृषक कैसे तालमेल बैठा सकते हैं? भविष्य में इसका उत्तर संभवत: किसी स्मार्ट गांव का कोई किसान देगा जिसने उद्योग और कृषि के बीच संतुलन साधा हो। जो अपनी खाद्य प्रसंस्करण इकाई लगाकर न्यूनतम समर्थन मूल्य के फेर और आढ़ती के कांटे से दूर हो चुका हो। प्रतीक्षा कीजिए भविष्य के ऐसे ही भारत की।
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