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मेरा नाम राजेन्द्र प्रसाद महतो है। मैं गांव-भैंसमारी, प्रखण्ड-राजमहल, जिला-साहेबगंज (झारखण्ड) का रहने वाला हूं। कभी-कभी किसान होने पर बहुत दु:ख होता है। सच कहें तो खेती करने का मन नहीं होता है। उस खेती से क्या लाभ जिससे मैं अपने परिवार का भरण-पोषण भी न कर सकूं। मैं अपने पूरे परिवार के साथ दिन-रात जुताई-बुनाई-कटाई में पसीना बहाता हूं। मेरे पास 30 बीघा खेत है। इसके बावजूद मैं अपने 19 सदस्यीय परिवार का भरण-पोषण बहुत मुश्किल से कर पा रहा हंू। किसी पर्व-त्योहार को मनाने के लिए भी मुझे सोचना पड़ता है। खुद की एक बनियान खरीदने के लिए भी मुझे फसल कटने का इंतजार करना पड़ता है। घर में कोई बीमार हो जाए तो भारी मुसीबत। मैं अपने बच्चों को किसी अच्छे विद्यालय में नहीं पढ़ा सका। मुझे कोई बैंक 25,000 रु. से ज्यादा का कर्ज नहीं देना चाहता है। जबकि वही बैंक 20-25 हजार की नौकरी करने वाले किसी बाबू को डेढ़ से दो लाख रु. 'पर्सनल लोन' के रूप में देने के लिए तैयार रहता है। चूंकि मेरे पास 30 बीघा जमीन है। इसलिए सरकार की नजर में मैं गरीब नहीं हूं। इस कारण मैं इंदिरा आवास योजना का हकदार भी नहीं हूं। मुझे अपने घर की पुरानी छत को ठीक कराने के लिए किसी से पैसा उधार लेना पड़ता है। यदि सरकार की नजर में गरीब होता तो इंदिरा आवास योजना के तहत घर बनाने के लिए मुझे सरकारी मदद मिलती। मुझे लगता है कि आज की तारीख में मेरे से अच्छा जीवन एक दिहाड़ी मजदूर का है। 8 घंटे की मेहनत के बाद उसके पास 150-200 रु. रोजाना आ जाते हैं। मैं भी अपने बच्चों के साथ दिनभर हाड़तोड़ मेहनत करता हूं, लेकिन शाम को एक अठन्नी भी नहीं आती है। महीनों खेत में लगी फसल का इंतजार करना पड़ता है। बारिश ठीक हुई तो घर में कुछ अनाज जरूर आ जाता है। उसी को बेचकर नमक, तेल का इंतजाम करता हूं। यदि किसी वर्ष बारिश ठीक नहीं हुई तो खाने के भी लाले पड़ जाते हैं। समाज क्या कहेगा, इस डर से मैं घर की खर्ची चलाने के लिए कहीं मजदूरी भी नहीं कर सकता हूं।
खेती की बढ़ती लागत से मैं परेशान हूं। सिंचाई के साधन नहीं होने के कारण मेरे इलाके में सिर्फ धान की खेती होती है। वह भी बारिश पर निर्भर है। जिस वर्ष बारिश साथ नहीं देती है उस वर्ष पूरे इलाके में मायूसी छा जाती है। लोग रोजी-रोटी के लिए मुम्बई, दिल्ली, कोलकाता जैसे बड़े शहरों की ओर पलायन करने लगते हैं। वहां मजदूरी करते हैं, रिक्शा चलाते हैं, अपमानित होते हैं। उन्हें अपना जीवन बोझ लगने लगता है। खेती की बढ़ती लागत से मैं गरीब होता जा रहा हूं। आज की तारीख में एक बीघा खेत में धान लगाने के लिए कम से कम 4600 रुपए का खर्च आता है। ट्रैक्टर से तीन बार जुताई होती है। एक बार की जुताई के लिए 500 रु. देने पड़ते हैं। इस प्रकार जुताई में 1500 रु., बीज और खाद (डी.ए.पी.) के लिए 1500 रु., रोपाई 800 रु., मजदूरी 300 रु., सिंचाई 400 रु. और यूरिया खाद के लिए 400 रु.। चूंकि हमारे इलाके की जमीन पथरीली है इसलिए एक बीघा खेत में 5-6 कुन्तल से अधिक धान नहीं हो पाता है। एक कुन्तल धान की कीमत 1100 रु. होती है। यानी कुल 5500 रु. का धान पैदा होता है। यदि हम इसमें अपने और अपने परिवार की मजदूरी भी जोड़ लें तो कुछ भी नहीं बचता है। यानी लागत के बराबर भी फसल नहीं होती है। खेती घाटे का सौदा रह गई है। अब आप ही बताइए कि मैं खेती क्यों करूं? यहां कुछ लोग सवाल उठा सकते हैं कि खेत की जुताई के लिए बैल क्यों नहीं रखते हो? धान की खेती के अलावा और किसी तरह की खेती हमारे इलाके में नहीं हो पाती है। एक फसल के लिए दो बैलों को सालभर पालना बहुत महंगा पड़ता है। चारा नहीं मिलता है। बैल रखने से कम से कम एक आदमी को उसके पीछे रहना पड़ता है। वह और काम नहीं कर सकता है। इसलिए बहुत कम लोग हल बैल रखते हैं।
मेरा गांव और मेरे खेत गंगा नदी से केवल दो किलोमीटर की दूरी पर हैं पर भूजल स्तर 125 फीट से भी नीचे है। इस हालत में सिंचाई का कोई भी साधन कारगर नहीं हो पाता है। सरकार से निवेदन है कि ऐसी कोई योजना बनाई जाए ताकि गंगा नदी का पानी हमारे इलाके तक पहुंच जाए। यकीन रखिए जिस दिन हमारे इलाके के खेतों तक पानी पहुंच जाएगा उस दिन के बाद यहां के लोग शहरों की ओर पलायन नहीं करेंगे, यहां के युवा किसी शहर में मजदूरी नहीं करेंगे, शहर में रिक्शा चलाने को मजबूर नहीं होंगे।
प्रस्तुति : अरुण कुमार सिंह
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