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भाजपा सांसद पर मढ़ा दोष, प्रशासन को भी ठहराया लापरवाह
सहारनपुर दंगे पर समाजवादी पार्टी की रपट अनुमान के अनुकूल रही। दंगे के लिए स्थानीय भाजपा सांसद राघव लखनपाल को भी जिम्मेदार ठहराया गया है, जबकि प्राथमिकी में कांग्रेस के विवादास्पद नेता इमरान मसूद का नाम दर्ज होने के बावजूद इस रपट में उनका नाम नहीं है। यहां सवाल यह उठता है कि क्या हिन्दुत्व की राजनीति करने वाली भाजपा के सांसद लखनपाल की वास्तव में इसमें कोई भूमिका है या यह सपा की रणनीति का हिस्सा है? कहीं ऐसा तो नहीं कि मूल दंगाई से ध्यान हटाने के लिए भाजपा का नाम घसीटा जा रहा है? अगर ऐसा है, तो क्या यह खतरनाक परिपाटी नहीं बनती जा रही है?
रपट सपा के वरिष्ठ नेता और उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री शिवपाल यादव की अध्यक्षता में गठित पांच सदस्यीय समिति ने दी है। इसलिए इसकी विश्वसनीयता पहले से ही संदिग्ध थी। इस रपट ने प्रदेश की अखिलेश सरकार की विश्वसनीयता को और गिरा दिया है। गौरतलब है कि प्रदेश में विधानसभा उपचुनाव होने वाले हैं और उसके पहले मीडिया में रपट लीक होने के पीछे राजनीतिक मंशा देखी जा रही है। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि जिस मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति के तहत सपा ने ऐसा किया है, उसके उलट हिन्दुओं में धुव्रीकरण बढ़ने लगा है। सूत्रों का कहना है कि मीडिया में रपट आ जाने से मुलायम सिंह यादव नाराज हैं, उन्हें इससे लाभ के बजाय नुकसान की आशंका तो सता रही है?
सहारनपुरवासी भाजपा कार्यकर्ता दिनेश सेठी कहते हैं कि यह दंगा पूर्व नियोजित था। मुस्लिम दंगाइयों ने चार समूहों में बंटकर इसे अंजाम दिया। यह भी कहा जा रहा है कि पुलिस प्रशासन को मुसलमानों की बैठक की सूचना थी। इसके बावजूद उसने चुप्पी साधी। रपट में भी प्रशासन को जिम्मेदार ठहराया गया है, लेकिन प्रशासन तो उन्हीं के हाथ में है। बार-बार प्रशासन ऐसे संवेदनशील मामलों में कार्रवाई करने से क्यों चूक रहा है? प्रदेश भाजपा प्रवक्ता डॉ. चंद्रमोहन के मुताबिक शासन-प्रशासन के बीच अविश्वास का संकट पैदा हो गया है। इस कारण प्रशासन त्वरित निर्णय नहीं ले पाया, जबकि वह सपा की वोट बैंक की राजनीति के कारण दबाव में है।
जो भी हो, दंगा भयानक था, तो उसके बाद का परिदृश्य कम चिंताजनक नहीं है। सरकार ने कुछ गिरफ्तारियां कीं और मोहर्रम अली भी पकड़ा गया, लेकिन इमरान मसूद खुलेआम घूम रहा है। इमरान मसूद कांग्रेस का नेता है, तो मुहर्रम अली की इमरान के अलावा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के साथ भी निकटता सामने आई है। यह भी बताया जा रहा है कि शिवपाल समिति के एक सदस्य जेल में जाकर मुहर्रम अली से मिले भी थे। कांग्रेस और सपा इस पर चुप हैं, जबकि ये दोनों दल लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार श्री नरेंद्र मोदी की सभा में मुजफ्फरनगर दंगे के अभियुक्त संगीत सोम के आने पर कोहराम मचा रही थीं। दंगों पर राजनीति की कड़ी में अब उसी सपा ने भाजपा को लपेटने की कोशिश की है। कई मुस्लिम बुद्धिजीवी पहले से इसमें भाजपा का हाथ बता रहे थे। संयोगवश यह रपट उसी लाइन पर है। सवाल यह है कि जब दंगे की शुरुआत मुस्लिम समुदाय के लोगों ने की और वह सिख समुदाय के खिलाफ था तो इनके बीच में भाजपा कहां से आ गई? अगर इसमें भाजपा का हाथ है, तो क्या मुहर्रम अली और इमरान मसूद उसके सदस्य हैं?
इस मसले पर सहारनपुर के बाहर स्थित सिख समुदाय की प्रतिक्रिया एक जैसी नहीं रही। पंजाब स्थित शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति ने अपना प्रतिनिधिमंडल सहारनपुर भेजा था, लेकिन सिख पंथ के लिए आग उगलने वाले उग्रवादियों की कोई प्रतिक्रिया सामने नहीं आई। इस बीच कांग्रेस से निकटता रखने वाले दिल्ली गुरुद्वारा प्रबंधक समिति के पूर्व अध्यक्ष परमजीत सिंह सरना जामा मस्जिद के इमाम सैयद अहमद बुखारी के साथ समझौता वार्ता चलाने लगे, जबकि सहारनपुर में सिख लुटे-पिटे थे। इस पर दिल्ली की धर्म प्रचार समिति के पूर्व अध्यक्ष परमजीत सिंह का कहना है कि यह सिखों के जख्म पर नमक छिड़कने जैसा था। सवाल यह है कि क्या यह सिख समुदाय के हित में था या हिन्दुओं के खिलाफ सिखों-मुसलमानों को लामबंद करने की कोशिश का हिस्सा था या
कुछ और?
यहां ध्यान देने की बात है कि मुस्लिम समुदाय के एक प्रतिष्ठित व्यक्ति ने इस समझौता वार्ता पर आपत्ति जताने के बावजूद यह कहा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ वहां पर दो अल्पसंख्यक समुदायों को आपस में लड़ाना चाहता था। आखिर दंगे पर होने वाली इस राजनीति का निहितार्थ क्या है? फिलहाल इतना तो साफ है कि सपा न केवल सांप्रदायिक दल है, बल्कि मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति की खातिर समाज के प्रति अपनी व्यापक जिम्मेदारी को भी भूल गई है। यह वर्तमान ही नहीं, भविष्य के साथ भी खिलवाड़ है। समाज में तेजी से धु्रवीकरण हो रहा है। अगर यही प्रवृत्ति जारी रही, तो उत्तर प्रदेश कभी भी भयानक दंगों की लपटों में घिर सकता है।
गौरतलब है कि गत 26 जुलाई को सहारनपुर दंगे की जड़ में वहां के अंबाला रोड स्थित 375 वर्ग गज जमीन का एक हिस्सा था, जिस पर सिख पंथ अपने स्वामित्व का दावा कर रहा था। दूसरी ओर मुसलमानों का दावा था कि उस जमीन पर मस्जिद थी। लेकिन अदालत मुसलमानों के दावे से संतुष्ट नहीं थी, उसने सिखों के पक्ष में अपना फैसला सुना दिया था। बताया जाता है कि प्रदेश का अखिलेश प्रशासन मुस्लिम नेताओं के दबाव में उन्हें परेशान कर रहा था, लेकिन अदालत के फैसले के मद्देनजर वे उस जमीन पर लंगर हाल बनाने लगे।
इसी बीच मुसलमानों की उग्र भीड़ ने निर्माण स्थल पर धावा बोल दिया था। धीरे-धीरे पूरे शहर में लूटपाट, आगजनी और गोलीबारी शुरू हो गई थी और पुलिस मूकदर्शक बनी रही। तीन लोग मारे गए और करोड़ों रुपए की संपत्ति नष्ट हो गई थी। -अजय कुमार सिंह
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