|
यदि मैं गलत नहीं हूं तो सोशल मीडिया के चबूतरे पर हाल तक भारतीय लोगों के लिए कोई मनपसंद खेल रहे हैं तो वह हैं फार्म विले और फार्म फ्रेंजी। वर्चुअल वर्ल्ड यानी परोक्ष विश्व में कृषि और पशु उत्पाद बेचते, खेतों का आकार बढ़ाते और एक-दूसरे से जुड़ते कुटुम्ब सदस्यों की यह अलग दुनिया है… एंग्री बर्ड और कैंडी क्रश सागा की मौसमी लोकप्रियता, अनचाही रिक्वेस्ट के अंबार और अब उकताए हुए लोगों का डिजिटल दुनिया में फिर से पुराने खेल पर लौटना बताता है कि वहां कुछ ऐसा था जिसमें भारतीय मन रमता था। वैसे, क्या खेल से जुड़ाव में भी आनुवांशिक आग्रहों की कोई डोर किसी खास दिशा में खींचती है, क्या यह महज संयोग है कि रफ्तार और शिकार, घुर्र..घुर्र और धांय-धांय हमें इतनी नहीं सुहाती! ऐसे डिजिटल खेल और प्रत्यक्ष हिंसात्मक आयोजन, जो अमरीका-ऑस्ट्रेलिया को दीवाना बनाते हैं, अपने यहां जम नहीं पाते! इसके उलट खेती-किसानी और व्यापार को प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति देने वाले गोवर्धन पूजा जैसे पर्व और फार्म विले जैसे खेल हमें सहज ही बांधते हैं। असल में खेतीबाड़ी, क्रय-विक्रय और प्रकृति का सहज-सहिष्णु साहचर्य इस भूमि की संतानों के रक्त में है। विश्व की सबसे पुरानी पुस्तकों, वेदों में भरत-भू के कृषि ज्ञान और इससे जुड़ाव की अभिव्यक्तियां देखी जा सकती हैं। ऋग्वेद और अथर्ववेद की अनेक ऋचाएं पूरे विश्व को इसी ज्ञान से सींचते हुए बुरी आदतें छोड़कर आगे बढ़ने की राह दिखाती हैं।
अक्षैर्मा दीव्य:कृषिमित् कृषस्व वित्ते रमस्व बहुमन्यमान:। (ऋग्वेद 34-16)
अर्थात्, जुआ मत खेलो, खेती करो और सम्मान के साथ जीविकोपार्जन करो। ऐसे में हिन्दू भूमि पर कृषि को जीवन और व्यक्तिगत सम्मान से जोड़ता वेद वाक्य यदि हमारे गुणसूत्रों पर भी अमिट रूप से अंकित हो गया तो कैसा आश्चर्य! फार्म विले के लिए प्यार की 'फ्रेंजी' हिलोर पर कैसा आश्चर्य! दरअसल भूमि की उर्वरा शक्ति को पूजने, खाद्यान्न को प्रसाद का स्थान देने वाला यह समाज अनूठा है। सदियों का यह जुड़ाव और ज्ञान हमारे कार्य-व्यवहार में सहज रूप से झलकता भी है। मौसम की भविष्यवाणियों से जुड़ी घाघ-भड्डरी की उक्तियां इस किसान समाज की थाती हैं। नारदस्मृति, अग्निपुराण, कृषि परायण, वृक्षायुर्वेद, कृषि पाराशर जैसे ग्रंथों में खेती की जो बारीकियां (उदाहरण के लिए खगोलीय गति के अनुसार मौसम और फसल के चुनाव का सामंजस्य अथवा क्षेत्र विशेष में वर्षा को मापने की सटीक विधि) बताई गई हैं, वह प्रकृति के अतिसूक्ष्म अध्ययन से ही संभव है। विज्ञान सम्मत, प्रकृति अनुकूल कृषि सदा ही भारतीय समाज का आर्थिक आधार रही है। खास बात यह कि किसानी के लिए भारतीय समाज के इस परंपरागत प्यार में कहीं भी प्रकृति अथवा जीव-जगत की उपेक्षा की कल्पना तक नहीं है। दाने (अन्न) और आने (अर्थ) का यह संतुलन इतना सुंदर है कि इसमें खोट ढूंढना मुश्किल है। किंतु स्वतंत्रता प्राप्ति और उर्वरक आधारित हरित क्रांति के बादके परिदृश्य में आज भारतीय खेती एक चुनौतीपूर्ण मोड़ पर है। भारी जनसंख्या का दबाव, जोत का घटता आकार, रसायनों के अति उपयोग के बाद जमीन की उर्वरता का क्षरण, कीटनाशकों का घुलता जहर और इस सबमें पिसते किसान की खस्ताहाली ने एक दारुण स्थिति पैदा की है।
आनुवांशिक रूप से संवर्द्धित (जीएम) बीजों के जोखिम और देश की बढ़ती जरूरतों पर छिड़ी बहस ने किसान और विज्ञान के संबंध का नया खाका खींचा है। इस पूरी खींचतान के बीच संदर्भ में ली जाने वाली बात यह है कि भारतीय कृषि के लिए विज्ञान कोई नई चीज नहीं है। न ही नएपन को देखे-परखे बगैर अस्वीकारने की अपनी कोई परंपरा है। दसों दिशाओं से ज्ञान-आलोक का स्वागत करने वाला समाज किसी नई बात को सिर्फ इसलिए तो खारिज नहीं करेगा कि वह पश्चिम से आई…लेकिन जोखिम और जरूरत के बीच संतुलन कहां सधेगा? इस बारे में एक परंपरागत कसौटी आज भी कारगर हो सकती है- प्रगति जब तक प्रकृति संगत और मानव कल्याण से जुड़ी है तब तक स्वीकार्य है।
सबसे पुरानी सभ्यता के तौर पर भारतीय समाज की विशेषता है कि यह विपत्ति के अंधेरे में अपने पुरखों और परंपराओं से उजाला पाता है। मनु और याज्ञवल्क्य ने जिस समाज को कृषि के सामाजिक विधान दिए उसे पूज्य गुरु नानक देव जी के जीवन का एक प्रसंग ऐसे मौके पर सामाजिक दर्शन दे सकता है। शिष्यों के साथ प्रवास पर गए गुरुनानक देव जी को किसी गांव में अशिष्ट व्यवहार और भारी उपेक्षा मिली। उन्होंने लौटते हुए ग्रामीणों से कहा, 'सब यहीं बने रहो।' दूसरे गांव में इसके उलट अच्छे व्यवहार पर ग्रामीणों से कहा, 'सब बिखर जाओ।' नानक के इस दर्शन में जिस बुराई को एक जगह समेटने और भलाई के बीजों के चारों ओर बिखेरने की आशीष है वह जीएम फसलों के 'फील्ड ट्रायल' और कीटनाशकों के जहर पर भी लागू होती है।
विज्ञान यदि जीव-जगत लिए विष और विसंगतियां लेकर आया तो उसे वहीं रोकना, सीमित करना होगा, यदि वह प्रकृति से सामंजस्य रखते हुए संपन्नता की राह बनाता है तो इस समृद्धि के बीज हर दिशा में बिखरने चाहिए।
स्वाद और गुण से हीन, एक जैसी फसलों और पशुओं की क्लोनिंग का गणित फार्म विले जैसे खेलों की आभासी दुनिया और स्क्रीन तक तो ठीक है, भारत की जमीन में रोपे जाने से पहले 'नवीन कृषि उपायों को' संस्कृति, समाज और सरकार की साझा सहमति और स्वीकृति प्राप्त करनी होगी।
टिप्पणियाँ