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लोकसभा में अपने पहले भाषण के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जैविक कृषि के बारे में ध्यान आकृष्ट कराया था। उन्होंने सिक्किम द्वारा 100 प्रतिशत जैविक तरीकों द्वारा कृषि किए जाने की प्रशंसा की। उन्होंने दुनिया भर में जैविक कृषि द्वारा उगाए गए खाद्यान्नों की मांग का हवाला दिया और कहा कि हर व्यक्ति चाहता है कि वह जो खाद्य पदार्थ खाए उसमें रासायनिक चीजों का बिल्कुल प्रयोग न हो और उसकी सेहत अच्छी रहे। इसके लिए हर व्यक्ति दाम चुकाने को तैयार रहता है। यदि जैविक कृषि को बढ़ावा दिया जाता है तो उससे किसानों की आर्थिक स्थिति भी सुधरेगी। सिक्किम के किसान जैविक तरीके से खेती किए जाने को पूरी तरह अपना सकते हैं तो सभी राज्य जैविक कृषि के तरीकों को क्यों नहीं अपना सकते हैं? प्रधानमंत्री ने कहा कि सरकार उत्तरपूर्वी राज्यों में जैविक खेती को बढ़ावा देना चाहती है। जबकि वहां ज्यादातर किसान पहले से ही जैविक तरीकों से खेती कर रहे हैं। बजट के दौरान वित्त मंत्री अरुण जेटली ने जैविक कृषि के लिए 100 करोड़ रुपए देने की बात कही। हालांकि वह इस बारे में कुछ स्पष्ट नहीं कर पाए कि हमारे यहां यूरिया बनाने के लिए 50 हजार करोड़ की सरकारी छूट क्यों दी जाती है, क्यों किसानों को ज्यादा अनाज उगाने के लिए इसकी जरूरत होती है। कृषि क्षेत्र में यही असमंजस भारत के किसानों को यूरिया का इस्तेमाल करने के लिए प्रोत्साहित करता है और वे यूरिया का ज्यादा इस्तेमाल करते हैं।
अमरीका हरित क्रांति के लिए यूरिया और अन्य रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल करने की सलाह देकर भ्रमित करता है। हमारे कृषि वैज्ञानिकों को यह बताने की आवश्यकता है कि 78 प्रतिशत नाइट्रोजन मुफ्त में मिलता है। वे यह भूल चुके हैं। उन्हें इस संबंध में दोबारा जानकारी एकत्रित करने की आवश्यकता है। मिट्टी में नाइट्रोजन बैक्टीरिया को समाहित करने में क्या भूमिका निभाता है,इस संबंध में किसानों को जानने की आवश्यकता है। जैविक कृषि को लेकर हमें क्यूबा के अनुभव को जरूर जानना चाहिए। क्यूबा और पूर्व सोवियत संघ के नजदीकी संबंधों के बारे में सब जानते हैं। क्यूबा और अमरीका की दुश्मनी भी जगजाहिर है। हर कोई जानता है कि क्यूबा तंबाकू और चीनी के उत्पादन के लिए जाना जाता है जिसे वह सोवियत संघ को बाजार से ऊंचे दामों पर बेचा करता था। इसकी एवज में सोवियत संघ द्वारा क्यूबा को सारी सुविधाएं मुहैया करवाई जाती थीं। सोवियत संघ के नियमों के अनुसार क्यूबा ने कृषि का उत्पादन बढ़ाने के लिए रासायनिक उर्वरकों के इस्तेमाल से खेती करने के तरीकों को बड़े स्तर पर अपनाया। क्यू के बहुत से किसान शहरों में पलायन कर गए और कारखानों में काम करने लगे और उनकी छोटी जमीनों को जोड़कर बड़े पैमाने पर मशीनों से खेती की जाने लगी। अचानक बिना किसी सूचना के सोवियत संघ ने क्यूबा से व्यापार समझौता तोड़ दिया। यह वह समय था जबकि क्यूबा में खाद्य आपूर्ति के लिए 54 प्रतिशत खाद्यान्न आयात किया जाता था। अचानक वहां अनाज और खाद्य पदार्थों की कमी हो गई। अमरीका ने शर्तें ऐसी रखीं कि कोई देश क्यूबा का सहयोग करने के लिए तैयार नहीं था। तब क्यूबा के कृषि वैज्ञानिकों ने महज तीन वर्षों के दौरान क्यूबा को खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बना दिया। सैकड़ों लोग जो क्यूबा गए उन्होंने इसे एक चमत्कार बताया। दक्षिणी अमरीका की कुल जनसंख्या के मुकाबले में क्यूबा की आबादी दो प्रतिशत है लेकिन दक्षिणी अमरीका के मुकाबले वहां पर वैज्ञानिकों की संख्या 12 प्रतिशत है। क्यूबा में खाद्यान्न की कमी के दौरान सभी वैज्ञानिक इकट्ठा हुए और विचार किया कि रासायनिक उर्वरकों के इस्तेमाल के बिना कैसे खाद्य पदार्थों का उत्पादन बढ़ाया जाए। वे जानते थे कि जिन किसानों ने अपनी जमीनें बड़े पैमाने पर कृषि के लिए नहीं सौंपी थीं वे अपने खेतों में खुद के लिए अनाज उगा रहे थे। उनके ग्राहक सीमित थे और वे किसी रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल भी नहीं कर रहे थे। उन्होंने इन किसानों के खेतों की मिट्टी का परीक्षण किया और पाया कि मिट्टी बिना रासायनिक उर्वरकों के इस्तेमाल के लिए बहुत अच्छी है। इस मिट्टी में पैदावार भी बहुत अच्छी हो रही है। क्यूबा के वैज्ञानिकों ने मिट्टी से इसके सूक्ष्म तत्वों को अलग किया और जैविक तरीके से उन्हें प्रयोगशालाओं में विकसित किया। इसके बाद उन्होंने युवाओं को इस संबंध में प्रशिक्षण दिया और जैविक तरीके से उगाए गए खाद्यान्नों के बारे में किसानों को जानकारी दी। जल्द ही बिना रासायनिक उर्वरक की मदद के क्यूबा के किसान सभी तरह के खाद्य पदार्थ उगाने लगे। खाद्य पदार्थों की आपूर्ति तेजी से करने के लिए शहरी इलाकों में लोगों को गमलों व छोटे-छोटे बगीचों में सब्जियां उगाने के लिए प्रोत्साहित किया गया फिर चाहे जमीन 10 वर्ग मीटर हो या फिर कई एकड़। आज क्यूबा की राजधानी हवाना में 10 हजार से ज्यादा छोटे-छोटे बगीचे (किचन गार्डन) हैं, जहां लोग अपने निजी प्रयोग के लिए सब्जियां उगा रहे हैं। हमारे देश में ऐसे क्षेत्रों में जहां छोटे किसान सिंचाई के लिए बारिश के पानी पर निर्भर हैं सरकार वहां छोटे गड्ढे खोदने की योजना बना सकती है ताकि पानी को सहेज कर रखा जा सके। इससे ग्रामीण पुरुषों और महिलाओं को रोजगार भी मिलेगा। जैविक कृषि को बढ़ाने की दिशा में उठाए गए कदम रोजगार और किसानों की आमदनी बढ़ा सकते हैं।
-मनोहर परचुरे
लेखक नागपुर में जैविक कृषि के विशेषज्ञ हैं व भारत सरकार के कृषि मंत्रालय की जैविक कृषि पर समिति के सदस्य हैं
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