श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर विशेष - विचलित से कृष्ण, प्रसन्नचित्त सी राधा
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श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर विशेष – विचलित से कृष्ण, प्रसन्नचित्त सी राधा

by
Aug 16, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 16 Aug 2014 15:36:45

राधा का समर्पण, दुनियाभर में नारी के प्रेम और शक्ति की आत्यंतिक ऊंचाई है। यहां 'नारी के'बोलना भी ठीक नहीं, 'प्रेम और शक्ति की आत्यंतिक ऊंचाई है' यही कहना ज्यादा उचित होगा। कोई शक्ति और स्वयं भगवान भी उससे ऊपर नहीं, उसके आधीन हैं। प्रेम से ज्यादा शक्तिशाली कुछ नहीं है, इस प्रसंग को पढ़कर यह आप स्वयं जान जाएंगे… फिर मानने जैसी कोई बात न रह जाएगी। प्रेम, भक्ति और समर्पण करने की नहीं, जीने की चीज है, पीने की चीज है, रक्त और श्वास में शामिल करने की चीज है।

स्वर्ग में विचरण करते हुए
अचानक एक दूसरे के सामने आ गए
विचलित से कृष्ण, प्रसन्नचित्त सी राधा
कृष्ण सकपकाए, राधा मुस्काई।
इससे पहले कृष्ण कुछ कहते, राधा बोल उठी,
कैसे हो द्वारकाधीश?
जो राधा उन्हें कान्हा-कान्हा कह के बुलाती थी
उसके मुख से द्वारकाधीश का संबोधन
कृष्ण को भीतर तक बेध गया,
फिर भी किसी तरह अपने आप को संभाल लिया
और बोले राधा से ………
मैं तो तुम्हारे लिए आज भी कान्हा हूं
तुम तो द्वारकाधीश मत कहो!
आओ बैठते हैं….
कुछ मैं अपनी कहता हूं, कुछ तुम अपनी कहो।
सच कहूं राधा,
जब भी तुम्हारी याद आती थी
इन आंखों से आंसुओं की बूंदें निकल आती थीं।
बोली राधा, मेरे साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ,
ना तुम्हारी याद आई, ना कोई आंसू बहा
क्यूंकि हम तुम्हें कभी भूले ही कहां थे
जो तुम याद आते।
इन आंखों में सदा तुम रहते थे
कहीं आंसुओं के साथ निकल ना जाओ
इसलिए रोते भी नहीं थे।
प्रेम के अलग होने पर तुमने क्या खोया
इसका एक आईना दिखाऊं ?
कुछ कड़वे सच, प्रश्न सुन पाओ तो सुनाऊं?
कभी सोचा इस तरक्की में तुम कितने पिछड़ गए।
यमुना के मीठे पानी से जिंदगी शुरू की
और समुद्र के खारे पानी तक पहंुच गए?
एक अंगुली पर चलने वाले सुदर्शन चक्र पर
भरोसा कर लिया, और
दसों अंगुलियों पर चलने वाली
बांसुरी को भूल गए?
कान्हा जब तुम प्रेम से जुड़े थे तो….
जो अंगुली गोवर्धन पर्वत उठाकर लोगों को विनाश से बचाती थी
प्रेम से अलग होने पर वही अंगुली
क्या क्या रंग दिखाने लगी।
सुदर्शन चक्र उठाकर विनाश के काम आने लगी
कान्हा और द्वारकाधीश में
क्या फर्क होता है बताऊं?
कान्हा होते तो तुम सुदामा के घर जाते,
सुदामा तुम्हारे घर नहीं आता।
युद्ध में और प्रेम में यही तो फर्क होता है।
युद्ध में आप मिटाकर जीतते हैं
और प्रेम में आप मिटकर जीतते हैं।
कान्हा, प्रेम में डूबा हुआ आदमी
दुखी तो रह सकता है
पर किसी को दु:ख नहीं देता।
आप तो कई कलाओं के स्वामी हो,
स्वप्न दूर दृष्टा हो,
गीता जैसे ग्रन्थ के दाता हो,
पर आपने क्या निर्णय किया।
धर्म स्थापना के लिए महाभारत आवश्यक है,
किन्तु कहां करुणा और
प्रेम का प्रतीक कान्हा और कहां युद्ध?
क्या आपमें करुणा नहीं जगी
क्या आप प्रेम से शून्य हो गए?
धरती पर जाकर देखो
जन-मन के मन का कृष्ण आज भी कौन सा है?
अपनी द्वारकाधीश वाली छवि को
ढूंढते रह जाओगे हर घर, हर मंदिर में
मेरे साथ ही खड़े नजर आओगे,
आज भी मैं मानती हूं।
लोग गीता के ज्ञान की बात करते हैं
उसके महत्व की बात करते है
मगर धरती के लोग
युद्ध वाले द्वारकाधीश पर नहीं
प्रेम वाले कान्हा पर भरोसा करते हैं।
गीता में मेरा दूर-दूर तक नाम भी नहीं है
पर आज भी लोग उसके समापन पर
'राधे राधे' करते हैं …।
(राधा-कृष्ण संवाद)
(प्रेम की चरम परिणति के प्रमाण स्वरूप अपने प्रियतम को उलाहना देती राधा रानी)

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