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इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड अल शाम (आईएसआईएस) का अचानक से उभरते दिखना, इसका बगदाद के उत्तर में इराक के प्रमुख शहरों पर कब्जा करना, इराक और सीरिया के बड़े इलाकों पर नियंत्रण करना और अपने नेता अल बगदादी को इस्लामी उम्मा का नेता घोषित करना, सब घटनाओं ने पूरे क्षेत्र और उसके आगे तक के भूभाग को झकझोर कर रख दिया है। ईरान ने ड्रोन भेजे हैं, रूस ने सुखोई लड़ाकू विमान तो अमरीका ने 300 सैन्य सलाहकारों की टोली भेजी है ताकि संकट में फंसी इराकी सरकार को थोड़ी सहायता मिले। ये सारी गतिविधियां ऐसे वक्त में हुई हैं जब इराक में राजनीतिक प्रक्रिया पूरी तरह ध्वस्त हो गई है। इस बीच कुर्द प्रधानमंत्री नूर अल मलिकी के उस उत्तेजक बयान के बाद मलिकी सरकार से बाहर आ गए हैं जिसमें मोसुल के पतन में कुर्दों की मिलीभगत की ओर 'इशारा' किया गया था।
परिधि के बाहर के किरदारों, ईरान और सऊदी अरब ने घटनाचक्र को प्रभावित तो किया है, पर लगता है दोनों ने ही अपनी नीतियों के नकारात्मक पहलुओं को इससे अलग रखा है। ये कूटनीति की आड़ में रणनीति का एक अनोखा उदाहरण है। इसमें ईरान की अहम भूमिका की शुरुआत 2003 से मानी जाती है, और ये एक तरह से 2003 में अमरीकी हमले की मददगार कही जा सकती है। तब अमरीका के पास जमीनी जानकारी की कमी थी और वह कुख्यात राजनीतिक मध्यस्थ अहमद शलाबी और उसकी इराकी नेशनल कांग्रेस से संवेदनशील जानकारी पाने की आस लगाए हुए था। उसकी सूचनाओं ने सीआईए, और उसके जरिए राष्ट्रपति बुश को, ये भरोसा दिला दिया कि सद्दाम के पास बड़े पैमाने पर तबाही मचाने वाले अस्त्र थे। अमरीका मन बना चुका था और उसने आक्रमण के लिए यही बहाना इस्तेमाल किया। कुछ ही हफ्तों के अंदर उन्हें समझ आ गया कि उनसे धोखा किया गया है, शलाबी के घरों और दफ्तरों पर छापे मारे गए, तौहीन की गई लेकिन अमरीका इस संजाल में उलझकर रह गया। जैसा कि सामने आया, शलाबी ईरान सरकार के काफी नजदीक था।
एक और 'जानकारी', जो शलाबी ने अमरीकियों को दी, वह ये थी कि दमन के शिकार शिया बहुसंख्यक इतने परेशान थे कि वे अमरीकी सेना का वहां आने पर स्वागत करेंगे। अमरीका के तत्कालीन उप रक्षामंत्री पॉल वोल्फोविट्ज इस आकलन को मान गए। लेकिन असलियत इससे ठीक उलट निकली। इराक पर कामयाबी से कब्जा करने के फौरन बाद ही, मोक्तादा अल सद्र की माहदी सेना ने कब्जे के खिलाफ एक खूनी गुरिल्ला जंग छेड़ दी। इसकी दूर-दूर तक उम्मीद नहीं थी क्योंकि सद्र के पिता, एक सम्मानित शिया मौलवी, की सद्दाम के आदेश पर हत्या कर दी गई थी और सद्दाम द्वारा शियाओं का दमन एक वास्तविकता थी। अमरीकियों ने जब अल सद्र की मुश्कें कसनी शुरू कीं तो वह अपने गढ़, सद्र शहर से खिसक गया और ईरान जा बसा, जिसके इशारों पर वह अभिनय करता रहा था।
नतीजा यह हुआ कि अमरीकियों को पहले तो उलझनभरी सूचनाएं उपलब्ध कराई गईं और फिर ऐसी परिस्थिति में फंसा दिया गया जहां से निकलना आसान नहीं था। असल में, माहदी सेना की कामयाबी ने तमाम सद्दाम समर्थक सुन्नी गुटों में हथियार उठाने का जोश भरा और बाद में, विडम्बना देखिए, अल कायदा ने इराक में दमदार दस्तक दी। अमरीका की सद्दाम को अल कायदा से जोड़ने की कोशिश शुरू से ही ठीक से अमल में नहीं लाई गई थी, पर इसने अल कायदा के लिए ऐसे हालात बनाए कि उसकी इराक में गतिविधियां शुरू हो गईं।
अफगानिस्तान में सबको साथ लेने वाला राजनीतिक ढांचा तैयार करने में अपनी नाकाम कोशिशों से सबक लेकर अमरीका ने इराकी रसूखदार राजनीतिकों के बीच एक जटिल आमराय तैयार की। यानी एक संसदीय लोकतंत्र, जिसमें मुख्य पद विभिन्न मजहबी, नस्लीय गुटों को देना आगे बढ़ने का एकमात्र कारगर तरीका था। उदाहरण के लिए, ताकतवर प्रधानमंत्री शिया होना था, संसद अध्यक्ष सुन्नी और रस्मी राष्ट्रपति कुर्द होना था। एक स्वायत्त कुर्द क्षेत्रीय सरकार गठित हुई और इस व्यवस्था ने दोनों संघर्षरत कुर्द नेताओं को शामिल करने और इसे एक संघीय ढांचे जैसा दिखाने की सहूलियत दी।
बहरहाल, असद अलवी को हटाकर नूर अल मलिकी के प्रधानमंत्री बनने के साथ ही ये नाजुक संतुलन उघड़ने लगा। मलिकी ने अमरीका से दूरी बना ली, और अमरीकी सैनिकों को इराकी कानून से बाहर इराक में अपनी कार्रवाई संचालित करने देने का कानूनी समझौता न करके अमरीकी सैनिकों की उपस्थिति पर रोक लगा दी। वे ईरान के नजदीक हो गए, और उनके प्रॉक्सी के तौर पर काम करने लगे। इसके बदले ईरान घरेलू इराकी मुद्दों का मुख्य मध्यस्थ बनकर उभरा, जिसमें राष्ट्रपति जलाल तालाबानी को समझौते करने के लिए तेहरान तक जाना पड़ा। इसके साथ ही सुन्नी विरोधी सशस्त्र लड़ाके बड़े सुन्नी नेताओं को निशाना बनाने लगे। राजनीतिक रूप से भी उन पर निशाना साधा गया। सुन्नी उपराष्ट्रपति तारिक हाशिमी को देश छोड़कर जाना पड़ा। उनकी गैर मौजूदगी में उन्हें मौत की सजा सुनाई गई।
अंतत: नतीजा ये निकला कि सुन्नी इलाके, खासकर एक बड़ा प्रांत अनबर, जिसने अल कायदा को उखाड़ फेंकने के लिए अमरीकियों के साथ काम किया था, इराक सरकार का विरोधी हो गया। सीरिया का संघर्ष इराक के गैर शासित इलाकों तक फैल गया। नतीजा ये हुआ कि खुद इराक के सामने चुनौती खड़ी हो गई। अब अमरीकी जनता, इराक और अफगानिस्तान के अनुभव के बाद एक और सशस्त्र विदेशी दखल के पक्ष में नहीं जाएगी।
आईएसआईएस के उभरने में सऊदी अरब अपने ही तरीके से मददगार रहा है। असद के अल्पसंख्या वाले अलवाई शासन को हटाना उसके और दूसरे अरब राष्ट्रों के लिए ईरान को नीचे रखने और मुस्लिम जगत में अपनी धाक बनाने के लिए नाक का सवाल बन चुका है। सीरिया के विद्रोहियों को एक बिन्दु के आगे मदद देने में आनाकानी ने सऊदी अरब वालों और उनके साथियों में उग्रवाद को जिहाद में बदल देने का जोश भर दिया। हाउस ऑफ सऊद (और कतर) के बीच सौदेबाजी से सीधे-सीधे आईएसआईएस का उभार और बढ़त हुई है।
आज आईएसआईएस दो शिया संचालित देशों को हटाने पर नजरें जमाए है, पर अल कायदा की ही तरह, बेलगाम फ्रेंकेंस्टीन को नियंत्रित नहीं किया जा सकता। वे लोग जो कहते हैं तानाशाही, लोकतंत्र से उलट, लंबे समय तक की सोच रखती है, उनके लिए इराक और उसके आगे ईरानी और सऊदी कार्यवाहियों को जायज ठहराना मुश्किल साबित होगा। (लेखक सेवानिवृत्त वरिष्ठ नौकरशाह हैं)
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