समर उनका, शौर्य था हमारा
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प्रथम विश्व युद्ध में अद्भुत शौर्य का प्रदर्शन करने वाले भारतीय रणबांकुरों की स्मृति अभिलेखागारों में भले हो, देश की जमीन और लोगों के मन से मिटती दिखती है।
देश की आजादी का सपना संजोकर देश-विदेश में युद्घ के विभिन्न मोचार्ें पर प्राणोत्सर्ग करने वाले लगभग चौहत्तर हजार बलिदानी वीरों का आज इस देश में कोई नामलेवा नहीं है। संसार का इतिहास-भूगोल बदलने वाले तथा नए सैन्य अनुभव लेकर जीवित स्वदेश लौटने वाले इन सभी शौर्यपुत्रों के नाम न तो इतिहास ग्रंथों में मिलते हैं और न ही संग्रहालयों में। संदर्भ है प्रथम विश्व युद्घ (1914-1918) का, जिसमें इस देश के लगभग तेरह लाख सैनिक भर्ती किए गए। इनमें 74187 ने प्राणोत्सर्ग किया, 65,128 घायल हुये तथा 10000 लापता रहे। इन आंकड़ों में मत भिन्नता हो सकती है किन्तु यह तय है कि यह लाखों वीर गुमनामी के अंधेरे में खो गये हैं। एक अंग्रेजी कवि के शब्दों में 'वे अनजाने अनवंदित, अनगाये चले गये।' संसार के इतिहास में यह विरला उदाहरण है कि एक देश के इतने अधिक सैनिक किसी दूसरे देश की प्रभुसत्ता की सुरक्षा के लिए प्राण हथेली पर रखकर संघर्ष करें, कुछ इतिहासकारों ने इसे 'भारत का महान युद्घ' कहा है।
उन दिनों देशवासी गुलामी की छटपटाहट में स्वराज के सपनों का तानाबाना बुन रहे थे। साथ ही, देश के स्वाधीनता संग्राम के अग्रणी नेताओं का यह 'आह्वान था कि यदि हम अपने विदेशी शासकों के संकटकाल में उनकी सहायता करेंगे तो वे देश को अंतरिम स्वायत्त शासन दे देंगे। विदेशी सत्ता के अधीन रहते हुए भी हमें उत्तरदायी शासन का अधिकार मिल जाएगा। यानी वे बलिदानी वीर देश की स्वाधीनता की प्रत्याशा में बलिदान-पथ पर चल निकले। ऐसे ही वीरों के मार्ग में फूल बनकर बिछ जाने की कल्पना 'एक भारतीय आत्मा' कविवर माखनलाल चतुर्वेदी ने की थी-
मुझे तोड़ लेना बनमाली,
उस पथ पर देना तुम फेंक।
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने,
जिस पथ जाएं वीर अनेक।
कोहिमा में एक शहीद की समाधि पर अंकित संदेश यहां अत्यंत प्रासंगिक है कि…..
'जब आप घर जाएं तो उन्हें (देशवासियों को) बताएं और कहें कि उनके कल के लिए हमने अपना आज (जीवन) दे दिया। क्या हमने इस संदेश को देश की नयी पीढ़ी तक पहुंचाया? हमारा कर्तव्य है कि ऐसे बलिदानियों को लोग जानें ताकि सैनिकों का मनोबल बढ़ता रहे।
ऐसा था युद्घ का नजारा
बोस्निया की राजधानी सराजेवो में ऑस्ट्रिया सम्राट के उत्तराधिकारी आर्क ड्यूक फ्रेंज फर्डिनेंड की हत्या से गुस्साए ऑस्ट्रिया-हंगरी ने में 28 जुलाई 1914 को बोस्निया पर हमला बोल दिया। इससे लड़ाई शुरू हो गई। इस प्रसंग पर कुछ ही दिनों में दुनिया दो भागों में बंट गई। ब्रिटेन ने विश्व युद्घ की घोषणा 4 अगस्त 1914 को की। इसमें 37 देशों ने भाग लिया। एक ओर थे केन्द्रीय शक्ति, ऑस्ट्रिया, हंगरी, बुल्गारिया आदि, दूसरी ओर मित्र राष्ट्र-इंग्लैंड, फ्रांस, रूस, अमरीका, जापान। लगभग 7 करोड़ सैनिकों ने भाग लिया, जिसमें लगभग एक करोड़ ने प्राण गंवाए। सभी देशों के लगभग दो सौ बिलियन पौंड व्यय हुए। इस युद्घ में पहली बार टैंक, वायुयान, आग उगलने वाले अस्त्रों, मारक रसायनों, जहरीली गैसों का प्रयोग किया गया। एक लाख कबूतर संदेशवाहक के रूप में भेजे गये। कुत्तों में डाबरमैन, पिंसचर्ज और जर्मन शेफर्ड लोकप्रिय हुए। युद्घ 11 नवम्बर 1918 तक चला।
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उस समय ब्रिटिश नियंत्रण वाली भारतीय सेना संसार की सबसे बड़ी स्वयंसेवी सेना थी। इसकी कुल क्षमता 240,000 सौनिकों की थी। 1918 तक इसमें 548311 सैनिक शामिल हो चुके। काफी तादाद में भारतीय सर्विस कार्प में थे, इनमें धोबी, दर्जी, रसोइये, माल ढोने वाले श्रमिक कुली आदि शामिल थे। भारत के लगभग 10 लाख सैनिकों ने इसमें भाग लिया, जिसमें 74187 शहीद हो गये। घायलों, लापता तथा युद्घ बंदियों को मिलाकर यह संख्या एक लाख से ऊपर पहुंचती है। भारतीय सेना ने ब्रिटेन के अधीन जर्मन साम्राज्य, मिस्र गैलीपोली मेसोपोटानिया आदि देशों में लड़ाइयां लड़ीं।
भारत की ओर से सत्रह लाख पशुओं के अलावा 37 लाख टन अनाज भेजा गया। यह युद्घ जल, थल, नभ तीनों की सेनाओं द्वारा लड़ा गया था। भारत की देशी रियासतों ने सेना तथा धन के रूप में विशेष सेवाएं दी थीं। इनमें पटियाला तथा बीकानेर नरेश प्रमुख थे। पहला विक्टोरिया क्रास पाने वाले, कनाट्स आन बलूचीज के 129वें ड्यूक खुदा दाद खां प्रथम भारतीय थे। पटियाला नरेश भूपेन्द्र सिंह ने 1918 में वार केबिनेट लंदन में, भारत का प्रतिनिधित्व किया था। ग्यारह भारतीय सैनिकों को ब्रिटेन के सवार्ेच्च सम्मान विक्टोरिया क्रास से नवाजा गया तथा 9200 सैनिकों को अन्य अलंकरण प्रदान किये गए।
भारत के अप्रतिम योगदान के कारण ही इसे 'भारत का महान युद्घ' कहा गया। ब्रिटेन ने पहले इसे दी ग्रेट वार कहा, किंतु जब पुन:विश्वयुद्घ(1939-1945) में छिड़ा तब पूर्ववर्ती (1914-1918) युद्घ को प्रथम विश्व युद्घ कहा गया। घायल भारतीय सैन्य अधिकारियों के उपचार हेतु एक पंच-सितारा अस्पताल बनाया गया जिसके लिए जार्ज पंचम ने अपना ब्राइटन रायल पैलेस दे दिया। इसमें 4306 विशिष्ट सैनिकों के इलाज की सूचना मिलती है। अब इसी रायल पैवीलियन में प्रथम विश्व युद्घ में भारत के विशेष योगदान का संग्रहालय स्थापित किया गया है। शताब्दी समारोह की तैयारी की जा रही है। उसके शोधकर्ता भारत सहित अनेक देशों के अभिलेखागारों तथा संग्रहालयों आदि में व्यक्तिगत पत्र, फोटोग्राफ, अधिकारियों की रिपोर्ट्स तथा अन्य जानकारियां खँगाल रहे हैं।
इन भारतीय सैनिकों की स्मृति में 1931 में इंडिया गेट दिल्ली का निर्माण किया गया। इसके वास्तुशिल्पी सर एडविन लुटियन थे। इस पर केवल 12516 सैनिकों के नाम अंकित हैं। 1971 में बंगलादेश विजय के बाद से क्रांति स्मारक के रूप में यहां अखंड ज्योति प्रज्ज्वलित है। यह इंडिया गेट, नई राजधानी के प्रवेश द्वार के रूप में वाइसराय हाउस (वर्तमान राष्ट्रपति भवन) के सामने बनाया गया था। इसके अतिरिक्त तीन मूर्ति मार्ग पर तीन मूर्तियाँ स्थापित की गईं जो इस युद्घ में हैदराबाद, मैसूर तथा जोधपुर के वीर सैनिकों के शौर्य की प्रतीक हैं। जिन विभिन्न गांवों से सैनिक भर्ती तथा शहीद हुए, उन गांवों में युद्घ स्मारक के शिलालेख लगाये गये जिसमें शामिल होने वाले तथा प्राण गंवाने वाले सैनिकों की संख्या तथा गांव का नाम मात्र लिखा है। सैनिकों के नाम इस पर अंकित नहीं हैं। अनेक गांवों में पत्थर तथा ईंट लोग चुरा ले गये, एक शायर की यह पंक्तियां सच साबित हुईं-
जिनके लिए हम मर गये
ये हाल है उनका,
ईंटें चुराकर ले गए
मेरी मजार की।
सैनिकों का मनोबल
बढ़ानेे के लिए
देश की एकता और अखंडता के लिए सेना का मनोबल बनाए रखना जरूरी है, इससे नयी पीढ़ी को भी सेना में जाने तथा देश के लिए मर मिटने की प्रेरणा मिलती है। मनोबल को बनाने का सबसे महत्वपूर्ण साधन है
शहादत का सम्मान।
शहादत को सम्मान देने का श्रेष्ठतम उदाहरण राजग (प्रथम) के कार्यकाल में कारगिल युद्घ के समय देखने को मिला, जब शहीदों के बलिदानी शव विशेष ताबूत में सम्मानपूर्वक उनके घर पहुंचाए गए। चिता के समय मेला लगा, लोगों ने उनके शौर्य और त्याग की सराहना की। साथ ही उस-उस शहीद की विधवा तथा आश्रितों को स्वतंत्र भारत में, सर्वाधिक वित्तीय सहायता एवं पेंशन आदि की सुविधा दी गई। पूर्ववर्ती संप्रग सरकार ने तो विधवाओं के सहारे पर भी आघात कर दिया। यह आत्मचिंतन का विषय है कि देश में आजादी के बाद क्या हमने, प्रथम विष्व युद्घ अथवा 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों के परिवारों का कोई सम्मान अथवा आर्थिक सहयोग देकर उन्हें अहसास कराया कि हम तुम्हारे पूर्वजों के बलिदान के आभारी हैं? क्या हमने सेना की नौकरी में उनकी पात्रता के अनुरूप, नौकरी दी? सैन्य बहुल ग्रामों को शहीद ग्राम का दर्जा देकर विकास की कल्पना की? क्या उनके गांवों के संपर्क मार्ग का नामकरण शहीद मार्ग के रूप में किया?
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क्या अंग्रेजों द्वारा बनवाए गये युद्घ स्मारकों को तलाश कर उन्हें नया स्वरूप देने की कोशिश की? क्या हमने विदेशों की तर्ज पर युद्घ-पर्यटन अथवा युद्घ-संग्रहालयों को बढ़ावा देकर शहीदों के बारे में, नयी पीढ़ी को जानने का अवसर प्रदान किया? क्या हमने पारंपरिक आयुध-कलाओं (मार्शल आर्ट्स) को संरक्षित, संवर्धित करके समाज को स्वरक्षा के लिए दीक्षित करने का प्रयास किया? इन प्रश्नों के उत्तर ही, शहीदों के प्रति सम्मान देने का हमारा प्रस्थान बिन्दु तय करेंगे। शहीद परिवार इसके लिए याचना करें, यह सम्मानजनक नहीं है। जरूरी है कि शासन, स्वयंसेवी संस्थाएं तथा हर नागरिक अपना कर्तव्य निर्वहन करे।
इस अवसर पर हमें आभार मानना चाहिए पूना नगरवासियों का तथा उ़ प्ऱ में माधौगढ़ क्षेत्र के पूर्व भाजपा विधायक संतराम सिंह सेंगर का जिन्होंने आजादी के बाद हुए शहीदों की स्मृति में पूना तथा सैन्य बहुल क्षेत्र के हदरुख ग्राम में शानदार शहीद स्मारक बनवाए। हदरूख ग्राम के भव्य शहीद स्मारक का उद्घाटन वर्तमान केन्द्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह (तत्कालीन मुध्यमंत्री उ0प्र0) ने किया था। शौर्य तथा सांस्कृतिक पुनर्जागरण केन्द्र झांसी ने भी झांसी छावनी से लेकर अन्य जिलों तक जाकर शहीदों की स्मृति में अनेक आयोजन किए। रंगमंच तथा ललित कलाओं की अखिल भारतीय संस्था संस्कार भारती ने 'नमन 1857' तथा 'सरहद पर स्वरांजलि' कार्यक्रम करके राष्ट्रीय क्षितिज पर शहादत का सम्मान किया। इन सबकी प्रेरणाएं समाज को नयी दिशा दे सकती हैं। आइए, समवेत स्वर में कहें- 'अर्चना के इन कणों में, एक कण मेरा मिला लो। वंदना के इन स्वरों में, एक स्वर मेरा मिला लो।'
-अयोध्या प्रसाद गुप्त 'कुमुद'
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