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भारत को मिली आजादी के पश्चात की अवधि पर एक दृष्टि डालें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि अमरीका ने भारत को हतोत्साहित करने के लिए कोई अवसर नहीं छोड़ा था। 50 के आसपास की सारी दुनिया दो महाशक्तियों में बंटी हुई थी। चूंकि पड़ोसी देश पाकिस्तान तुरंत अमरीकी संधियों का सदस्य बन गया था। इसलिए अमरीका की यह सोच बन गई थी कि भारत किसी भी दिन रूस के खेमे में चला जाएगा। यद्यपि जवाहर लाल नेहरू, मार्शल टीटो, कर्नल नासिर और सुकार्णों जैसे विश्व के दिग्गज नेताओं ने तटस्थ राष्ट्रों का गुट बनाकर इन महाशक्तियों से दूरी बना रखी थी। इसलिए अमरीका ने अपने जासूसी तंत्र को भारत में चारों और फैला दिया था। कभी सीआईए तो कभी पीएल 480 की बेडि़यां भारत के पांव में पड़ी रहती थी। इसके बावजूद भारत अपनी नीतियों से नहीं डिगा। सबसे बुरे दिन तो 1971 के बाद इंदिरा गांधी को देखने पड़े थे। जब निक्सन ने उन्हें अमरीका आमंत्रित करके भी उनसे मिलने में आनाकानी दर्शायी। नतीजा यह हुआ कि इंदिरा बिना मिले ही भारत लौट आईं। इन संकटों के बावजूद भारत ने अपने हाथ से लोकतंत्र का पल्ला नहीं छोड़ा। भारत में अपार शक्तियां छिपी हुईं थी। अपने बौद्धिक कौशल के सहारे भारत-अमरीका को प्रभावित करता रहा। जब उदारीकरण का युग प्रारम्भ हुआ तो भारत ने अमरीका का दिल जीत लिया। एक मोर्चा था अपने बाजार में अमरीका का स्वागत और दूसरा भारत की नई पीढ़ी द्वारा ज्ञान अर्जन के क्षेत्र में लगातार बढ़ोतरी। अमरीका के वैज्ञानिक भारतीयों से प्रभावित थे, इसलिए अनेक क्षेत्रों में अमरीकी और भारतीय साझेदारी बढ़ती गई। राजनीति के कटु अनुभवों को अपने दिलो-दिमाग पर भारतीयों ने हावी नहीं होने दिया। साथ ही अमरीका ने ही भारतीयों की इस क्षमता और योग्यता को देखकर अपने रवैये को बदलना शुरू कर दिया। जिसका नतीजा आज भारत के लिए शुभ साबित हो रहा है। अमरीका में नासा जैसी उच्च कोटि की वैज्ञानिक संस्था हो या फिर वहां के विश्वविद्यालय, हर जगह भारतीय दिखलाई पड़ते हैं। भारतीय केवल वहां ज्ञान अर्जित करने ही नहीं जाते, बल्कि वहां के बड़े उद्योग घरानों में भी अपनी सेवाएं देकर उनकी प्रगति में सहायक हो रहे हैं। भारतीयों की शिक्षा और बौद्धिक प्रगति इतनी चौंका देने वाली है कि स्वयं राष्ट्रपति ओबामा अपने देशवासियों को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि पढ़ो वरना बेंगलूरू आ जाएगा। 25-30 साल पहले जो अमरीका भारत से दूर भागता था वह अब उसकी प्रगति में सहायक होने के कारण उसके निकट आ रहा है। इस स्थिति को देखते हुए भविष्य में अमरीका और भारत एक-दूसरे के अधिक निकट आ जाएं तो आश्चर्य की बात नहीं होगी। भारतीयों ने अमरीकियों का दिल जीत लिया है। एस समय था कि अमरीकी स्वामी विवेकानंद के अध्यात्म से प्रभावित होकर भारत के निकट आए थे। आज 150 वर्ष बाद फिर वह समय आया है कि जब अमरीकी-भारतीयों की शैक्षणिक और औद्योगिक क्षमता को देखकर उसके निकट आ रहे हैं। इसी लिए यह कहा जा सकता है कि भविष्य में भारत और अमरीका एक-दूसरे के पूरक बन सकते हैं। दोनों देशों पर नजर दौड़ाएं तो ऐसे उदाहरण हमारे सम्मुख आकर खड़े हो जाते हैं जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि बहुत शीघ्र दोनों देश एक-दूसरे के पूरक बन जाएंगे। माइक्रोसॉफ्ट नामक अमरीका की प्रसिद्ध सॉफ्टवेयर कम्पनी ने भारत में जन्मे सत्या नडेला को अपना चीफ एक्जीक्यूटिव आफिसर(सीईओ) अधिकारी नियुक्त कर दुनिया को दंग कर दिया है। अमरीकी डॉलर और अमरीकी तकनीक भारत में धड़ल्ले से आ रही हैं, लेकिन अभी तक वह समय नहीं आया है कि कोई अमरीकी- भारत की राजनीति में अपना स्थान बना सका हो। लेकिन भारतीय इस मामले में अमरीकियों से दो कदम आगे हैं। राष्ट्रपति ओबामा ने पिछले दिनों दक्षिण मध्य एशिया के मामलों के लिए परनीशा देसाई बिसवाल को मनोनीत किया है। जबकि राजनीतिक और सैनिक मामलों के लिए पुनीत तलवार की नियुक्ति की गई है। कला एवं मानवीय विभाग की कमेटी के अध्यक्ष पद पर परकाल पेन मनोनीत किए गए हैं। इतना ही नहीं बलागीर मूर्ति ओबामा के जनरल सर्जन हैं।
अमरीका की राजनीति में भारतीयों ने अपनी ऊंचाई के झंडे गाड़े हैं। नम्रता निक्की रंधावा, हेली और पीयूष जिंदल जो अमरीका में बॉबी जिंदल के नाम से प्रसिद्ध हैं, इसके साथ ही दो अन्य भारतीय अमरीका के दो राज्यों के गवर्नर हैं। इतना ही नहीं अमरीका के राजनीतिज्ञों का मानना है कि अमरीका में कोई विदेशी परिवार का व्यक्ति भविष्य में राष्ट्रपति बनेगा तो वह बॉबी जिंदल ही होगा। अमरीका की प्रतिनिधि सभा में हवाई राज्यों से जो दो प्रतिनिधि निर्वाचित हुए हैं उनमें एक तुलसी गबार्ड हैं, जो अमरीका में ही जन्मी हैं। तुलसी को अपने हिन्दू होने पर बड़ा गर्व है। वे कहती हैं ह्यमैं तो कर्मयोगी हूं जिसमें मुझे आस्था है।ह्ण तुलसी ने अपने पद की शपथ गीता पर हाथ रखकर ली थी। अमरीका में रहने वाले हिन्दू अपने विचार और दर्शन का प्रचार करने के लिए अधिकतर वेबसाइट का उपयोग करते हैं। उनका कहना है कि हिन्दूत्व अपने स्वभाव में ही पंथनिरपेक्षता लिए हुए होता है इसलिए उसे किसी पर भी थोपने का सवाल नहीं उठता। एक बार जो इसका मुरीद हो जाता है वह जीवनभर पंथनिरपेक्षता का अनुयायी बन जाता है। अमरीका में भारतीयों की लोकप्रियता का रहस्य यही है कि वे अपने विचारों में कट्टर नहीं होते हैं। जब धर्म के दर्शन पर बहस करते हैं तो उनका उद्देश्य सार्वजनिक हित का होती है। उनका यह मानना है कि धर्म में जब तक विशालता और मानवीय संवेदना नहीं होती है वह धर्म नहीं कहलाता है। प्राय: अमरीकी खुले दिमाग के होते हैं। वे विचारों को बौद्धिक कसौटी पर कसते हैं इसके पश्चात ही उसे अपनाते हैं व पाखंड से दूर रहते हैं। इसलिए उनका दृष्टिकोण अवैज्ञानिक नहीं होता है। स्वभाव में भारतीय लचीले होते हैं इसलिए अपना मित्रमंडल बढ़ाने और अमरीका को जड़ों से पहचानने में उन्हें तनिक भी कठिनाई नहीं आती है। अमरीकी और भारतीय दोनों ही पंथनिरपेक्ष पिंड के होते हैं। कर्मकांड के स्थान पर वे विचार और सिद्धान्त को अधिक महत्व देते हैं।
अमरीका में रंगभेद की नीति का विरोध करने वाले किंग मार्टिन लूथर महात्मा गांधी से प्रभावित थे। इसलिए जब अमरीका में उनका आन्दोलन चला तो अनेक भारतीय बुद्धिजीवियों ने उनका समर्थन किया। जिस काल में श्वेत अमरीकी काले नीग्रो से घृणा करते थे उस समय भी भारतीयों का रवैया संतुलित होता था। वे भारतीयों के संयम के प्रशंसक हैं। आज जो भारतीयों के प्रति अमरीका का सम्मान है वह उन्होंने अपने श्रम और कार्य कुशलता से पैदा किया है। प्रारम्भ में भारतीयों को बड़ा संघर्ष करना पड़ा लेकिन एक दिन उन्होंने अपनी मेहनत और बुद्धि का लोहा मनवा लिया। आज जिसका परिणाम यह है कि अमरीका-भारतीयों का सम्मान करने के लिए मजबूर हो गया है।
देवयानी खोब्रागड़े के मामले में अमरीका का प्रतिनिधित्व करने वाले एटॉर्नी प्रीत भरारा पंजाब के फिरोजपुर में पैदा हुए थे। वे भारतीय वंशज अमरीकी हैं, लेकिन इस मामले के सामने आने की स्थिति में चर्चा के केन्द्र में देवयानी रही और प्रीत भरारा पर ध्यान नहीं दिया गया। देवयानी के पति आकाश सिंह राठोड़ पेनसिलवानिया विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हैं। आकाश और देवयानी की दो बेटियां हैं, जो इस समय अमरीका में ही हैं। एक समय ऐसा भी था जब अमरीका वियतनाम की लड़ाई लड़ रहा था। वियतनामी गोरिल्लाओं ने अमरीका की नाक में दमकर रखा था। भारत की नीति वियतनाम के पक्ष में थी। इस बात पर अमरीका बुरी तरह से चिढ़ा हुआ था। प्रतियोगिता जीत जाने के बाद रीटा को अमरीका ने अपने यहां आने का निमंत्रण दिया था। रीटा वहां पहुंची तो अमरीका ने उसे आदेश दिया कि वह कुछ दिन वियतनाम में जाकर अमरीकी सैनिकों की सेवा करे। रीटा को अमरीका की बात माननी पड़ी। वह अंतत: वियतनाम पहुंची और अमरीका ने अपनी हठ मनवा ली। अमरीका का यह निशाना भारत पर था। उसने रीटा से अपनी बात मनवाकर दुनिया को दिखला दिया कि जो उसका विरोध करते हैं उनसे निपटना और उनको सबक सिखलाना उसे बराबर आता है। यही घटना यदि आज घटी होती तो क्या अमरीका ऐसा कर सकता था? दुनिया में जो ताकतवर होता है उसके सामने सभी झुकते हैं। भारत को उस समय तो अपमानित कर दिया, लेकिन क्या अब इस प्रकार की हरकत अमरीका कर सकता है?
मोदी के मामले में अमरीका को जो अपना रवैया बदलना पड़ा वह आज का जीवित उदाहरण है। मंगल और चांद पर जाने वाले यान के यात्री कौन थे? कल्पना चावला और सुनीता विलियम्स ने जो इतिहास रचा वह अमरीकी-भारतीयों की उच्चतम सफलता है। यान में यात्रा करते समय सुनीता अपने साथ गीता और गणपति लेकर गई थीं।
भारत के लिए यह गर्व का विषय है कि नासा के अंतर्गत पीएचडी करने वालों के लिए संस्कृत भाषा का अनिवार्य रूप से अध्ययन करने की शर्त भारत के गौरव और गरिमा में चार चांद लगाने वाली है। भारतीय मूल के एक डॉक्टर ने ह्यप्रेगनेंसी टेस्टह्ण की तरह अब कैंसर की जांच भी कागज की स्ट्रीप पर ह्ययूरिन सैंपलह्ण से करके एक चौंका देने वाली खोज की है। औरंगाबाद के फरीद जकरिया ने अमरीका की पत्रकारिता में एक महत्वपूर्ण स्थान बनाकर देश का नाम रोशन किया है।
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